भारत मे सिविल सर्विस civil services की विकास कैसे हुआ?


सिविल सर्विस

सिविल सर्विस का मख्य कार्य कानन लाग करना और राजस्व की वसली करना था। अपने । सैनिक और धार्मिक कार्यों में रत सहायकों से नागरिक अधिकारियों को अलग करने के लिए ईस्ट इंडिया कंपनी ने पहली बार (सिविल सर्विस) शब्द का इस्तेमाल किया। पहले यह सेवा' केवल व्यापार तक ही सीमित थी, परंत धीरे-धीरे यह सिविल सर्विस में परिणत हो गई। शरू से ही इस सेवा में पदानक्रम की व्यवस्था थी-प्रशिक्षार्थी, लेखक, कारिंदा, कनिष्ठ व्यापारी और उसके ऊपर वरिष्ठ व्यापारी। वरिष्ठ व्यापारियों के बीच से गवर्नर जैसे उच्च पदों के लिए लोगों को चना जाता था। यह पदानक्रम 1839 तक चला। इन पदों पर नियुक्ति करने का विशेषाधिकार ईस्ट इंडिया कंपनी के कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स को प्राप्त था। इनके द्वारा नियक्त अधिकारी भ्रष्टाचार, घसखोरी और अवैध निजी व्यापार में व्यस्त रहते थे। कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के संरक्षण की नीति के कारण पनप रहे इस भ्रष्टाचार को कार्नवालिस ने रोकने की कोशिश की। उसने उनपर कछ प्रतिबंध लगाए (जैसे निजी व्यापार पर रोक लगा दी गई) परंत मआवजे के तौर पर उनका वेतन बढ़ा दिया। उदाहरण के तौर पर एक कलक्टर को प्रति महीना 1500 रुपया वेतन मिलता था। इसके अतिरिक्त, ज़िले से वसले गए राजस्व का एक प्रतिशत भी उसे दिया जाता है। कम्पनी की सिविल सर्विस के अधिकारियों को जितना वेतन मिलता था, शायद उस समय विश्व की किसी भी सेवा में इतने वेतन का प्रावधान नहीं था। इसके बावजद, प्रशासन में भ्रष्टाचार और अक्षमता की समस्या मौजद रही। लार्ड वेलेस्ली 1798 में भारत आया। उसने इस दिशा में कछ महत्वपूर्ण कदम उठाए। उसने भारत के सिविल सर्विस के पदाधिकारियों के प्रशिक्षण का विचार सामने रखा। उसने महसूस किया कि आधारभत प्रशिक्षण ब्रिटेन में दिया जाए और फिर भारत में उन्हें प्रशिक्षण दिया जाए। सिविल सर्विस के पदाधिकारियों को भारत के साहित्य, विज्ञान और भाषाओं की जानकारी देने के लिए 24 नवंबर, 1800 को कलकत्ता में फोर्ट विलियम कॉलेज की स्थापना की गई। इसके पांच साल बाद सिविल सर्विस के यवा अधिकारियों को दो साल का प्रशिक्षण देने के लिए हेलीबरी में ईस्ट इंडिया कॉलेज की स्थापना की गई। अगले पचास वर्षों तक इसी हेलीबरी कॉलेज में सिविल सर्विस के अधिकारी प्रशिक्षण प्राप्त करते रहे। अभी भी नियक्ति का विशेषाधिकार कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स के पास ही था। वे अपने बेटों और भतीजों को इस सेवा के लिए नियुक्त करते थे। 1833 के चार्टर अधिनियम के तहत पहली बार नियुक्ति के लिए "प्रतियोगिता" का विचार सामने आया। पहले इस पद पर अधिकारी मनोनीत किए जाते थे। परंत यह प्रतियोगिता काफी सीमित दायरे में होती थी और इसे मनोनयन और प्रतियोगिता का मिला-जुला रूप ही कहा जा सकता है। पहले कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स को जरूरत से चार गना ज्यादा प्रत्याशियों का मनोनयन करना होता था। इन मनोनीत प्रत्याशियों को प्रतियोगिता परीक्षा में बैठना होता था। इनमें से एक-चौथाई प्रत्याशियों को प्रतिष्ठित सिविल सर्विस के लिए अंतिम रूप से नियुक्त किया जाता था। परंत धीरे-धीरे खली प्रतियोगिता की मांग बढ़ने लगी। अंततः 1853 के चार्टर ऐक्ट के जरिए कोर्ट ऑफ डायरेक्टर्स का मनोनयन अधिकार समाप्त कर दिया गया और अब खुली प्रतियोगिता का प्रावधान हो गया। प्रतियोगिता परीक्षा के नियमों, योग्यता और विषयों के निर्धारण के लिए मैकाले की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई, जिसे अपना सझाव बोर्ड

ऑफ कंट्रोल के सामने रखना था। 1858 में हेलीबरी स्थित कॉलेज को समाप्त कर दिया गया और अब सिविल सर्विस आयोग को प्रतियोगिता परीक्षाओं की जिम्मेदारी सौंप दी गई। प्रतियोगिता परीक्षा का आयोजन साल में एक बार इंग्लैंड में होना था, अतः भारतीयों के लिए इस परीक्षा में बैठना नामुमकिन था। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में भारत में ही परीक्षा लिए जाने की मांग की जाने लगी। सिविल सर्विस के पदाधिकारियों की नियक्ति नियंत्रण कक्ष और जिले का प्रमुख अधिकारी कलक्टर हुआ करता था, जिसकी मुख्य जिम्मेदारी राजस्व वसूल करना था। हदबंदी और राजस्व संबंधी सभी विवादों का निपटारा करने का अधिकार उसे प्राप्त था। उसकी सहायता के लिए एक तहसीलदार होता था, वह भारतीय होता था।

1831 के सुधार के बाद मैजिस्ट्रेट और स्थानीय पुलिस अधीक्षक का कार्यालय भी उसके अधीन आ गया। इससे जिले में उसे पूर्ण अधिकार प्राप्त हो गया। 1831 के बाद बड़े जिलों में कलक्टर और तहसीलदार के बीच डिप्टी कलक्टर की भी नियुक्ति होने लगी। बनाया जाने लगा। धीरे-धीरे यह पद अनौपचारिक हो गया और अनुभवी भारतवासियों को डिप्टी कलक्टर आने वाले वर्षों में भारतीय सिविल सर्विस विश्व के सबसे चस्त और शक्तिशाली नागरिक सेवा के रूप में उभर कर सामने आई। भारत में ब्रिटिश नीति निर्धारण में इसके सदस्यों ने प्रमुख भूमिका निभाई और भारत में शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य को सुचारु रूप से चलाने में योगदान दिया। 1947 में स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारत ने सिविल सेवा की व्यवस्था को आत्मसात कर लिया और यह व्यवस्था आज तक कायम है

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