चीन के राष्ट्रवाद को उदय देने वाले कारक- historyindiaworld.blogspot.com


                 राष्ट्रवाद का उत्थान


चीन में राष्ट्रवाद के तीन विभिन्न लेकिन परस्पर संबंधित तत्व रहे :
 i) पहले, राष्ट्रवाद का अर्थ होता था। का विरोध और उससे संघर्ष करना। 

ii) दूसरे, राष्ट्रवाद एक ऐसे मज़बूत, आधुनिक और केंद्र-केंद्रित राष्ट्र-राज्य की मांग करता था जो न केवल साम्राज्यवाद को पीछे धकेल दे, बल्कि देश के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक जीवन में उसकी नई आकांक्षाओं को आगे भी बढ़ाए। 

iii) तीसरे, राष्ट्रवाद का अर्थ होता था मांचू (चिंग) वंश को उखाड़ फेंकना। इन तीन तत्वों में से, साम्राज्यवाद का विरोध निश्चित रूप से सबसे महत्वपूर्ण था।

 साम्राज्यवाद का प्रतिरोध 
बीसवीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों में, "प्रभुसत्ता के अधिकारों की बहाली" प्रत्येक प्रबुद्ध चीनी का आदर्श वाक्य बन गया। उन्नीसवीं शताब्दी के अंत तक "राष्ट्रीय प्रभुसत्ता" और प्रभुसत्ता के अधिकार" जैसे पश्चिमी शब्द सरकरी दस्तावेजों में आ गए थे। कुछ ही 
वर्षों में वे चीनी शब्द भंडार के अभिन्न अंग बन गए। अफीम युद्ध के समय से, चीन पर बाहरी आक्रमण होते रहे। प्रत्येक युद्ध का अंत एक असमान संधि के साथ हुआ। चीन को विजेता ताकतों को हर्जाने, विशेषाधिकार और क्षेत्रीय रियायतें तक देनी पड़ी। 1894-95 के चीन-जापान यद्ध ने चीन की कमजोरी का पूरा पर्दाफाश कर दिया. वह किसी को किसी बात के लिए भी इंकार नहीं कर सका। इस युद्ध का तुरंतगामी परिणाम "रियायतों के लिए होड़ या भगदड़" के रूप में सामने आया। बॉक्सर विद्रोह को कुचलने के आठ राष्ट्रों के अभियान के बाद चीन में कुछ साम्राज्यवादी ताकतों की निरंकश लूटमार देखने में आती है। चीन के अतिक्रमण रोक पाने में असमर्थ होने के बावजूद, इस समय देश को मजबूत करने और तमाम हाथ से निकली चीजों को फिर से अपने हाथ में लेने के बारे में चीन में कहीं अधिक दृढ़ संकल्प की स्थिति थी। अवमानना या मान-हानि की स्थिति के साठ वर्षों का हिसाब तो चुकता होना ही था। 

बीसवीं शताब्दी के पहले दशक में चीनी अधिकारियों ने अंग्रेजों पर रोक लगाने के लिए तिब्बत पर केवल आधिपत्य का ही नहीं बल्कि अपनी प्रभुसत्ता या सर्वसत्ता का भी दावा पेश किया। रूस ने मंचूरिया पर कब्जा कर लिया था, लेकिन 1905 में जापान के हाथों हार जाने के बाद इसकी ताकत कम पड़ गई। चीनियों ने समय नहीं गंवाया। उन्होंने मंचूरिया में प्रवास की गति बढ़ा दी और वहां प्रशासनिक तंत्र की फिर से संरचना की। उनका ध्येय जापान के विस्तार को रोकना था। रूस ने क्योंकि अपना ध्यान अब मंगोलिया पर लगा लिया था, चीन ने इसकी प्रतिक्रिया में अपने इस अधीनस्थ राज्य पर पूरी प्रभुसत्ता जमा दी। यह उसने इस प्रकार किया : 

• मंगोलिया में चीनियों के प्रवास को बढ़ावा देकर, 



•स्थानीय अधिकारियों को रूसी प्रभाव को समाप्त करने का आदेश देकर,

• योग्य और आधुनिक मानसिकता वाले अधिकारियों के अधीन एक चीनी किस्म का प्रशासन कायम करके, और

• चीनी छावनी की सेनाओं को बाहर भेजकर। 



चीनी सरकार ने ये उपाय इस व्यापक भय के कारण किए थे कि चीन का बंटवारा होने की आशंका थी। 

आम जनता में भी पश्चिम और जापान के मंसूबों की तीखी प्रतिक्रिया हुई। स्थानीय और राष्ट्रीय समाचार-पत्रों में इन मुद्दों पर चर्चा हुई। अनेक जगहों पर प्रदर्शन और सभाओं के माध्यम से विदेशी ताकतों के मंसूबों की निंदा की गई। गानों और नाटकों के माध्यम से भारत में अंग्रेजों और हिंद-चीन में फ्रांसीसियों के अत्याचारों को दिखाया गया। इस तरह के गानों और नाटकों की प्रस्तुतियाँ दक्षिण चीन में आम हो गईं। इतिहासकारों और दूसरे प्रचार माध्यमों से चीनी राष्ट्रवाद के संदेश का प्रसार किया गया। 
अधिक जबरदस्त विरोध "बहिष्कार अधिनियम" के विरोध में 1905 का अमेरिका-विरोधी बहिष्कार और 1908 में तावू मार कांड को लेकर होने वाला जापान-विरोधी बहिष्कार थे। इन बहिष्कारों ने यह दिखा दिया कि चीनी सौदागर और मजदूर अपने राष्ट्रवादी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए भौतिक त्याग करने को भी तैयार थे। विशेष विदेशी अधिकारों और क्षेत्रीयता की समाप्ति क्रांतिकारियों, सुधारकों और मांचू सरकार की मांग थी।


 राष्ट्रवाद और राष्ट्र-निर्माण
राष्ट्रवाद केवल साम्राज्यवाद का विरोध ही नहीं था, बल्कि इसमें प्रांतवाद और क्षेत्रवाद पर विजय भी निहित थी। पतनशील मांचू शासन ने जो सुधार के प्रयास किए उनके एक अंग के रूप में चीन में कियांग को छोड़कर और सभी जगहों पर प्रांतीय सभाएं कायम की गई। ये सभाएँ वाद-विवाद और विचार-विमर्श का मंच बन गई और इन्होंने राष्ट्रभक्त लोगों को एक जगह पर लाने का काम किया। एक जाने-माने लेखक के अनुसार, इस प्रांतवाद ने "राष्ट्रवाद के उदय को सुगम बनाया"। अनेक स्थानीय मुद्दों पर जो विचार-विमर्श चला उससे साम्राज्यवाद के प्रतिरोध से संबंधित मदों की ओर ध्यान देने की स्थिति बनी। उदाहरण के लिए, क्वांगतंग प्रांत के स्वशासन संघ ने जब एक अंग्रेजी नदी गश्ती दल के आने पर आपत्ति की तो उससे समूची संधि व्यवस्था को चुनौती देने की स्थिति बनी। इसी तरह, स्थानीय सौदागरों की अपने व्यापार को फैलाने की इच्छा ने एक समान राष्ट्रीय आर्थिक व्यवस्था की मांग को जन्म दिया। राष्ट्रवादी भावना ने राष्ट्र-निर्माण की आवश्यकता को जन्म दिया, जिससे यह मांग बनी कि चीन एक एकीकृत, मज़बूत राष्ट्र बन जाए।

 मांचू-विरोधी भावनाएँ 
सन् 1644 से चीन पर राज करने वाला चिंग वंश प्रजाति या नस्ल की दृष्टि से उन हान चीनियों से भिन्न था जो देश की आबादी का 4 प्रतिशत थे। चिंग वंश के लोग मंचूरिया प्रांत की मांच प्रजाति के थे जो कि संख्या की दृष्टि से नगण्य थे। वंश कमजोर होने लगा तो वंश-विरोधी भावनाएँ जातीय अर्थों में अभिव्यक्त की जाने लगी, जबकि क्रांतिकारी राष्ट्रवाद ने चीन को अपनी जद में लिया तो इसका एक तत्व था विदेशी मांच राज के प्रति चीनी जातीय विरोध, क्योंकि वह घरेलू नीतियों में तो प्रतिक्रियावादी था और विदेशी मामलों में कायरतापूर्ण। अनेक हान चीनियों का विश्वास था कि देश पर क्योंकि एक गैर-हान वंश राज कर रहा था इसलिए उसमें हान लोगों की इच्छा और जन्न नहीं था, इसलिए वह इतनी दयनीयता के साथ आधिपत्य स्वीकार कर लेता था।

 यह कहना सही न होगा कि मांचू शासक दूसरों से पूरी तौर पर कटे रहे। इसके विपरीत. चिंग दरबार में बड़ी संख्या में हान चीनी शामिल थे और साम्राज्यवाद को दूर-दराज के क्षेत्रों से जोड़ने वाली देश की लो6क सेवा में हान चीनियों का बोलबाला था। चीन पर कथित चीनी मांच कलीन वर्ग का राज था। इस गुट में प्रतिक्रियावादी भी थे और सुधारक भी और प्रचंड साम्राज्यवाद विरोधी भी थे तो समझौतावादी भी। लेकिन, आम विश्वास यह भी था कि सम्राट व्यवस्था अपने आप में अपर्याप्त थी, इसलिए जातीय मुद्दे पर आवश्यकता से अधिक ज़ोर नहीं ही देना चाहिए। एक साधारण-सी मांचू विरोधी भावना थी तो लेकिन यह कुछ छोटे भौगोलिक क्षेत्रों और क्रांतिकारी संगठनों की उन शाखाओं में ही अधिक मुखर थी जो सामाजिक विप्लव का माग नहीं करते थे। इसी तरह, कुछ गुप्त संघों (Secret Societies) और सुमद्र पारीय चीनी समुदायों ने यह नारा लगाया: "मांचुओं को उखाड़ फेंको, चीनियों को वापस लाओ"। 

मांचू विरोधी भावना की तीव्रता अलग-अलग समय और अलग-अलग स्थानों पर भिन्न-भिन्न रही। अनेक मामलों में इस नकारात्मक धारणा का उदय पहले राष्टत्व की अपेक्षाकृत अधिक सकारात्मक भावना में रूपांतरित होने के लिए हुआ। एक बात निश्चित है कि मांचू-विरोध ने चीनियों को इतना एकजुट नहीं किया, जितना कि साम्राज्यवाद-विरोध ने।

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