Posts

Showing posts with the label 8वी से 15वी सदी तक

भक्ति आंदोलन का उदय -Takeknowledge

    उत्तर भारत में 14वीं-17वीं शताब्दी के बीच अनेक राजनीतिक, सामाजिक-आर्थिक और धार्मिक कारणों से भक्ति आंदोलन का जन्म हुआ। इस आंदोलन से काफी संख्या में लोग प्रभावित हुए।     भक्ति आंदोलन के उदय के राजनीतिक कारण यह माना जाता है कि तुर्कों के आक्रमण के पहले उत्तर भारत के सामाजिक-धार्मिक क्षेत्र पर राजपूत-ब्राह्मण गठबंधन का वर्चस्व था, जो किसी भी प्रकार के गैर ब्राह्मण आंदोलन के सख्त खिलाफ थे। तुर्कों के आक्रमण के बाद इस गठबंधन का वर्चस्व समाप्त हो गया। तुर्कों के आक्रमण के साथ इस्लाम का भी आगमन हुआ और इससे ब्राह्मणों की शक्ति और प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा। इस प्रकार निरीश्वरवादी आंदोलनों के उदय का रास्ता साफ हो गया, इन आंदोलनों ने जाति-विरोधी और ब्राह्मण विरोधी सिद्धांत अपनाएं। ब्राह्मण हमेशा जनता को यह विश्वास दिलाने की कोशिश करते रहते थे कि मंदिर में रखी प्रतिमाएं और मूर्तियां मात्र ईश्वर की प्रतीक नहीं हैं, बल्कि साक्षात् ईश्वर है और इन्हें केवल वे (ब्राह्मण) ही प्रसन्न कर सकते हैं। तुर्कों ने ब्राह्मणों से उनके मंदिर का धन छीन लिया और उन्हें प्राप्त होने वाला राज्य . संरक्षण स

बहमनी साम्राज्य की सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति -Takeknowledge

बहमनी साम्राज्य की सामाजिक-संरचना का स्वरूप सार्वभौमिक था जिसमें मुस्लिम, हिंदु, इरानी, ट्रांसऑक्सियन, ईराकी और अबीसीनियन (हब्शी) सम्मिलित थे। 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में पूर्तगालियों का आगमन हुआ। अगर हम इसके भाषाई ढांचे पर ध्यान दें तो यह विषम चरित्र अधिक स्पष्ट होता है। फारसी, मराठी, दक्खनी उर्दू (प्रारंभिक उर्द), कन्नड और तेलुगु भाषाएं राज्य के विभिन्न भागों में व्यापक रूप से बोली जाती थीं। मोटे तौर पर समाज में दो वर्ग थे। निकितीन के अनुसार एक तरफ निर्धन और दूसरी तरफ अमीर थे जो "अतिसमृद्ध" थे। उसका कहना है कि "अमीरों को चांदी के तख्तों पर बिठा कर लाया जाता था, जिनके आगे सोने के आभूषणों से लदे 20 घोड़े होते थे और 300 घुड़सवार तथा 500 पैदल-सिपाही, 10 मशालची साथ-साथ चलते थे।" निकितीन बहमनी वज़ीर, महमूद गावां के वैभव का भी सजीव वर्णन करता है। वह लिखता है कि प्रत्येक दिन उसके साथ 500 व्यक्ति भोजन ग्रहण करते थे। उसके घर की सुरक्षा के लिए ही, प्रतिदिन 100 सशस्त्र व्यक्ति निगरानी करते थे। इसके विपरीत आम जनता निर्धन थी। यद्यपि निकितीन केवल दो वर्गों का वर्णन करता ह

बहमनी साम्राज्य की अर्थव्यवस्था -Takeknowledge

महमूद गावां ने भूमि की नियमित नाप के और गांवों व कस्बों की सीमाओं के निर्धारण के आदेश दिये। इस प्रकार इस क्षेत्र में उसे राजा टोडरमल का पर्वगामी माना जा सकता है। इन उपायों से राजकोष को बहुत लाभ हआ। प्रथम, साम्राज्य की आय निश्चित और अग्रिम रूप से ज्ञात हो गयी. द्वितीय, इसने अमीरों के भ्रष्टाचार को भी कुछ सीमा तक कम कर दिया, जिससे राज्य की आय में वृद्धि हुई। बहमनी राज्य में, वाणिज्य और व्यापार उन्नत अवस्था में था। एक रूसी यात्री निकितीन, जो 1469-74 के दौरान दक्खन में रहा बीदर में वाणिज्यक गतिविधियों के बारे में पर्याप्त सूचना देता है। उसके अनुसार प्रधानतः घोड़ों, वस्त्रों, रेशम और मिर्च का व्यापार होता था। उसका आगे कहना है कि शिखबालदिन पेरातिर और अलादिनान्द के एक बाजार में बड़ी संख्या में लोग एकत्रित होते थे वहाँ व्यापार दस दिनों तक जारी रहता था। वह बहमनी राज्य के सामुद्रिक-बंदरगाह मुस्तफाबाद-दभोल का एक वाणिज्य-केन्द्र के रूप में जिक्र करता है। दभाल न केवल भारतीय बल्कि अफ्रीकी बंदरगाहों से भी भली-भांति जुड़ा हुआ था। घोड़ों को अरब, खुरासान और तर्किस्तान से आयातित किया जाता था। वाणिज्य औ

बहमनी साम्राज्य की केन्द्रीय एवं प्रांतीय प्रशासन -Takeknowledge

  बहमनी शासकों ने दिल्ली सल्तानों की प्रशासनिक व्यवस्था का अनकरण किया। शासन की बागडोर राजा के हाथों में थी और उसकी सहायता के लिए वकील, वजीर, बख्शी और काजी थे। इनके अलावा दबीर (सचिव), मुफ्ती (कानून की व्याख्या करने वाला), कोतवाल और मुहतसिब (जन-आचरण पर अंकश रखने वाले) होते थे। मनहियानों (जासूसों) को न केवल राज्य के हर भाग में नियक्त किया जाता था, बल्कि इस बात के प्रमाण है कि मोहम्मद के शासनकाल में उन्हें दिल्ली में भी नियुक्त किया गया। मुहम्मद ! के शासनकाल में बहमनी राज्य को चार तरफों या प्रांतों में बांटा गया, ये थे-दौलताबाद, बरार, बीदर और गलबर्गा। इन प्रान्तों में शासन का प्रमुख तरफदार कहलाता था। गुलबर्गा के महत्व को देखते हए केवल बहत ही विश्वासपात्र अमीरों की नियुक्ति वहाँ की जाती थी जिन्हें मीर नायब वायसराय) कहा जाता था-ये अन्य प्रांतों के राज्यपालों (तरफदारों) से भिन्न थे। कालांतर में राज्य की सीमाओं के विस्तार के साथ, महमूद मावां ने साम्राज्य को आठ प्रांतों में विभाजित किया। साम्राज्य के कुछ क्षेत्रों को सुल्तान द्वारा सीधे अपने नियंत्रण में (खासा-ए सुल्तानी) ले लिया गया। 8वी

बहमनी साम्राज्य की सैन्य संगठन -Takeknowledge

सेना का सेनापति अमीर-उल उमरा होता था। सेना में मुख्यतः सिपाही और घुड़सवार होते थे। हाथियों का प्रयोग भी प्रचलित था। शासक-गण बड़ी संख्या में अंगरक्षकों को रखते थे. जो खासाखेल कहलाते थे। ऐसा बताया जाता है कि मौहम्मद1  के पास 4000 अंगरक्षक थे। इसके अतिरिक्त, सिलहदार होते थे जो राजा के व्यक्तिगत शस्त्रागार के प्रभारी का कार्य करत थे। आवश्यकता पड़ने पर बरबरदानों को सेना की लामबंदी के लिए कहा जाता था। बहमनी सेना की प्रमुख विशेषता बारूद का प्रयोग था जो सेना के लिए लाभदायक सिद्ध हुआ। इटली के यात्री, निकोलो कोंती जिसने 15वीं शताब्दी में भारत की यात्रा की थी, लिखा है कि उनकी सेना भालों, तलवारों, विभिन्न हथियारों, ढालों, धनषों और बाणों का प्रयोग करती थी। वह आगे कहता है कि वे "प्राक्षेपिक और गोलाबारी की मशीनों और साथ ही घेराबंदी के हथियारों का प्रयोग करते थे।" 1500-17 के दौरान भारत-यात्रा करने आये दुआर्ते । बारबोसा ने भी ऐसे ही विचार प्रकट किए हैं कि वे गदाओं, फरसों, धनषों और बाणों का प्रयोग करते थे। वह आगे लिखता है : "वे (मुस्लिम) ऊंची काठी पर बने आसनों पर सवार.... काठी से बंधे हुए

अफाकियों और दक्खनियों के मध्य संघर्ष एवं सम्राट के साथ उनके संबंध - Takeknowledge

   अमीरों की भूमिका न केवल सल्तनत को बनाने के लिए था बल्कि राजा बनाने के रूप में भी थी। प्रत्येक सुल्तान की चाह अमीरों की वफादारी प्राप्त करना था। यही परंपरा बहमनी राज्य में भी जारी रही। अलाउद्दीन बहमन शाह के काल हमें तीन गुट नजर आते हैं :  •एक वह गट था जिसने दक्खन में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना में अलाउददीन बहमन शाह की सहायता की, •दूसरा तुगलक गुट  •और स्थानीय सरदार और उनके मातहत (असामी) थे. जिनके व्यक्तिगत स्वार्थ थ। अलाउद्दीन मुजाहिद के काल (1375-78) के बाद अमीरो के इस संयोजन मे एक नए घटक का आगमन हुआ, यह था-अफाकी। इस शब्द का अर्थ है "सार्वभैमिक" वे लोग जिन्हें मूलस्थान से उखाड़ दिया गया है और वे अब किसी प्रदेश संबंधित नही थे! उन्हें गरीब-उद दयार अर्थात् "अजनबी" भी कहा जाता था। ये अफाकी यहाँ ईरान, ट्रान्सऑक्सियाना और ईराक से आये थे। दक्खनियों और अफाकियो के मध्य संघर्ष  1397 में गियासुद्दीन तहमतान के काल में हए जब उसने कई अफाकियो को उच्च पदो पर नियक्त किया: उदाहरणार्थ, सलाबत खाँ को बरार का राज्यपाल, मुर नौबत और अहमद बेग कजनीवी को पेशवा बनाया गया। इन दक

बहमनी राज्य की विजय तथा सुदृढ़ीकरण -Takeknowledge

बहमनी राज्य के राजनीतिक विकास को दो चरणों में विभाजित किया जा सकता है :  प्रथम चरण (1347-1422) में गतिविधियों का केन्द्र गुलबर्गा था! जबकि द्वितीय चरण (142-1538) में राजधानी बीदर स्थानांतरित हो गई जो अपेक्षाकृत और उपजाऊ थी। इस चरण में अफाकियों और दक्खनियो के मध्य पर पहुंचा! प्रथम चरण : 1347-1422   1347-1422 के मध्य के यग में कई प्रमख लड़ाइयां जीती गई। आन्ध महाराष्ट्र में कन्दहार, कर्नाटक में कल्याणी. तेलंगाना में भोंगीर, गुलबर्गा  सागर, खेमभवी, मालखेर और सेरम, महाराष्ट्र में मनरम अक्कालकोट और महेन्द्री तथा मालवा (मध्य प्रदेश) में मांडु को इस काल में बहमनियों की अधीनता स्वीकार करनी पड़ी! बहमनी राज्य का फैलाव उत्तर में मांडु से दक्षिण में रायचूर तक तथा पश्चिम में दभोल और गोवा तक था। इस युग में तेलंगाना और विजयनगर के रायों से बरमनियों की मख्य प्रतिद्वन्द्विता था। तलगाना के राय के साथ एक मठभेड के बाद गोलकोण्डा बहमनियों को सुपुर्द कर दिया। गया। लेकिन, विजयनगर के साथ यद्ध निर्णायक सिद्ध नहीं हआ और तुंगभद्रा दोआब पर दोनों शक्तियों का साझा प्रभुत्व जारी रहा।। शीघ्र ही चौह

बहमनी शक्ति का उदय - Takeknowledge

Image
दक्खन के अधिकांश भागों की विजय और उनका दिल्ली सल्तनतम आधग्रहण मोहम्मद तगलक के काल में संपन्न हुआ। उसने दक्खनी प्रदश माप प्रशासनिक व्यवस्था कायम की। कतलग खान को प्रदेश का प्रमख राज्यपाल अथवा वायसराय" नियक्त किया गया। सम्पर्ण प्रदेशको प्रान्तों अथवा इक्लीमों में विभाजित किया गया। इनमें से अधिक महत्वपर्ण जाजनगर (उडीसा), मरहट (महाराष्ट्र), बीदर काम्पिली और दारसमट थे। बाद में मालवा भी दक्खन के राज्यपाल के अधानाचा गया। प्रत्येक डक्लीम को कई ग्रामीण जिलों (शिक) में विभाजित किया गया। राजस्व वसूली लिए प्रत्येकशिक को हजारी एकहजार) और सटी (एक सौ में विभाजित किया गया। अस्य अधिकारी शिकदार, दली, अमीर हजाराह और अमीर-ए सादाह थे। राजस्व शिकारी मुतसर्रिफ, कारकुन, चौधरी इत्यादि कहलाते थे। इस व्यवस्था में सवाधिक शक्तिशाली व्यक्ति दक्खन का "वायसराय" होता था जो वास्तव 23 प्रांतों वाले विशाल प्रदेश का स्वामी होता था। अन्य महत्वपर्ण व्यक्ति जिसके पास विस्तृत अधिकार थे, अमीर-ए सादाह होता था जिसके अधीन सौ गांव होते थे।  इस विस्तृत प्रशासनिक व्यवस्था के बावजूद सुल्तान का वास्तवि

विजय नगर साम्राज्य की सामाजिक व्यवस्था -Takeknowledge

विजयनगर साम्राज्य के दक्षिण भारतीय वृहत्तर भाग में सामाजिक संरचना भारतीय समाज की आम संरचना से भिन्न है। सामाजिक संरचना की यह विलक्षणता तीन तरह से थी •दक्षिण भारतीय ब्राह्मणों की धर्म-निरपेक्ष भूमिका,  •निचले सामाजिक समूहों में दोहरा विभाजन,  •और . समाज का क्षेत्रीय खंडीकरण। बाहमण जिन स्थानों पर रहते थे, वहाँ भभि पर उनका नियंत्रण था, एवं उनकी प्रतिष्ठा और प्राक्ति भी भमि पर आश्रित लोगों के नियंत्रण से थी। पजारी वर्ग की हैसियत से पवित्र कार्या के कारण भी उन्हें प्रतिष्ठा प्राप्त थी। असंख्य वैदिक मंदिरों के आविर्भाव से, जिन्हें गांवों देिवदान) का धर्मदान प्राप्त था, ब्राहमणों को मंदिर-अधिकारियों के रूप में इतनी शक्ति प्राप्त हुई कि उनका अन्य जातियों और धार्मिक संस्थाओं पर धर्म-विध्यात्मक नियंत्रण हो गया। इन धार्मिक केन्द्रों के व्यवस्थापकों की हैसियत से ब्राहमणों को बहत अधिक। धर्म-निरपेक्ष अधिकार प्राप्त थे। क्षेत्रीय खंडीकरण का तात्पर्य यह है कि तमिल प्रदेश में सामाजिक समुदायों का, प्राकृतिक उप-क्षेत्र और उससे संबंधित व्यावसायिक ढाँचे के आधार पर, विभाजन था। दक्षिण भार

विजय नगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था -Takeknowledge

Image
इसमें हम विजय नगर साम्राज्य  के  विभिन्न भूमि एवं आय संबंधी अधिकारों तथा मंदिरों की आर्थिक भूमिका  के बारे मे जानेगें। हम विदेशी और आंतरिक व्यापार के पहलुओं तथा नगरीय जीवन का अध्ययन भी करेंगे।     भूमि एवं आय संबंधी अधिकार   चावल मुख्य पैदावार थी। कोरोमण्डल से लेकर पलिकट तक काले और श्वेत दोनों किस्म के चावल उगाए जाते थे। इसके अलावा, दालों और चनों जैसे खाद्यान्न उगाए जाते थे। अन्य महत्वपूर्ण उत्पादों में गर्म मसाले (विशेषतः काली मिर्च), नारियल और सुपारियां थीं। भू-राजस्व राज्यों की आय का मुख्य साधन था। राजस्व निर्धारण की दर साम्राज्य के विभिन्न भागों में और एक ही स्थान पर भूमि की उर्वरता और उसकी क्षेत्रीय अवस्थिति के आधार पर भिन्न-भिन्न थी। सामान्य तौर पर यह आय का 1/6 भाग थी, परंतु कुछ मामलों में यह अधिक, 1/4 भाग तक थी। ब्राहमणों और मंदिरों पर यह क्रमशः 1/20 भाग और 1/30 भाग थी। इसका भगतान नकद और वस्तओं दोनों के रूप में किया जाता था। हमें भमि-काश्तकारी के तीन मख्य वर्गों का संदर्भ मिलता है: आमरा, भंडारावाडा और मान्या। ये गांवों की आय के विभाजन को प्रदर्शित करते हैं। भंडारावाडा रा

विजय नगर साम्राज्य की स्थानीय प्रशासन -Takeknowledge

  विजय नगर साम्राज्य की स्थानीय प्रशासन   परवर्ती चोलों के समय में प्रादेशिक सभा (नाडु) और साथ ही गांव सभाओं (सभा और उर) की शक्ति कमजोर हो गई थी। विजयनगर साम्राज्य के काल में नायक और आयगार व्यवस्था की प्रमुखता के बावजूद ये संस्थाएं पूर्ण रूप से लुप्त नहीं हुई।    नायनकार व्यवस्था   नायनकार व्यवस्था विजयनगर के राजनैतिक संगठन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। सेनानायक और योद्धा नायक या अमरनायक की पदवी धारण किया करते थे। इन योद्धाओं। को इनकी जातीय पहचान, कर्तव्यों या अधिकारों और विशेषाधिकारों के आधार पर वर्गीकत करना कठिन है। -  नायक संस्था का गहन अध्ययन दो पर्तगाली विद्वानों फरनाओ ननिज और डोमेन्गो पाएस द्वारा किया गया जिन्होंने 16वीं शताब्दी में तलव वंश के कृष्णदेव राय और अच्युत राय के राज्य-काल में भारत की यात्रा की थी। उन्होंने नायकों को महज रायों (केंद्रीय सरकार) के एजेंट के रूप में देखा। ननिज़ द्वारा वर्णित नायकों द्वारा रायों को दी जाने वाली अदायगी, के प्रमाण से सामंती दायित्वों का प्रश्न सामने आता है। विजयनगर के अभिलेख और बाद में मेकेन्जी की पांडुलिपियां नायकों का प्रादेशिक

विजय नगर साम्राज्य की धर्म और राजनीति -Takeknowledge

Image
  विजय नगर साम्राज्य की  धर्म और राजनीति धर्म और धार्मिक वर्गों की विजयनगर साम्राज्य के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक जीवन में एक महत्वपूर्ण भूमिका थी।   प्रतीकात्मक राजत्व सामान्य तौर पर यह कहा जाता है कि धर्म की कठोर पालना का सिद्धांत विजयनगर साम्राज्य का एक प्रमुख अवयव एवं विशिष्ट लक्षण था। लेकिन, अधिकतर विजयनगर के शासकों को हिन्द शासकों से भी युद्ध करना पड़ता था, जैसे उड़ीसा के गजपति। विजयनगर की सेना में। रणनीति के दृष्टिकोण से सबसे महत्वपूर्ण दस्ते मुस्लिम सेनानायकों के अधीन होते थे। देवराया II द्वारा मुस्लिम तीरंदाजों को भर्ती किया गया। इन मुस्लिम टुकड़ियों ने विजयनगर के हिन्द प्रतिद्वंद्वियों के विरुद्ध विजयनगर की जीत में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। विजयनगर शासकों ने सफल सैनिक कार्यवाहियों के फलस्वरूप दिग्विजयन की पदवी धारण की। विजयनगर का राजत्व एक प्रकार से प्रतीकात्मक था, क्योंकि विजयनगर के शासक । अपनी सत्ता के प्रमुख केंद्र से परे भ-भागों पर अपने अधिपतियों द्वारा नियंत्रण करते थे। इस प्रतीकात्मकता का निरूपण धर्म के साधन द्वारा होता था, जो लोगों द्वारा स्वामिभक्ति निश्

विजय नगर साम्राज्य की स्थापना और दृढीकरण -Takeknowledge

Image
                स्थापना और दृढीकरण दक्षिण भारत के राजनीतिक जनाक्रम के निर्धारण में भौगोलिक समाकृतियों की महत्वपर्ण भमिका रही है। स्थानीय शक्तियों के मध्य संघर्ष के मुख्य केन्द्र थे कृष्णा-गोदावरी डेल्टा, कावेरी घाटी, तुंगभद्रा दोआब और कोंकण भू-भाग जो अपनी उर्वरता एवं दर फैले गहरे सागरों तक पहंच के लिए जाना जाता था। 8वीं-13वीं शताब्दी के मध्य संघर्ष राष्ट्रकूटों और पल्लवों के मध्य था, जबकि बाद में टकराव विजयनगर और बहमनी राज्यों के बीच था। बहमनी शासकों ने विजयनगर शासकों को अपनी शक्ति के प्रमुख केन्द्र तुंगभद्रा से प्रायद्वीप के पार पूर्व और पश्चिम की ओर विस्तार करने के लिए विवश किया। शुरू में विजयनगर शासकों को । रायचर और तंगभद्रा दोआब में बहमनी शक्ति को दबाने में मश्किल उठानी पड़ी क्योंकि बहमनी शासकों की वारंगल स्थित राजाकोन्डा के वेलामाओं के साथ संधि थी। इन परिस्थितियों ने विजयनगर को उत्तर की ओर बढ़ने से रोका एवं उसे दक्षिण में तमिल-क्षेत्र तथा प्रायद्वीप के पार पूर्व और पश्चिम में विस्तार के लिए विवश किया। किन्तु बाद में यह गठबंधन टट गया जिसका लाभ विजयनगर साम्राज्य को मिला।