विजय नगर साम्राज्य की स्थानीय प्रशासन -Takeknowledge

  विजय नगर साम्राज्य की स्थानीय प्रशासन 
परवर्ती चोलों के समय में प्रादेशिक सभा (नाडु) और साथ ही गांव सभाओं (सभा और उर) की शक्ति कमजोर हो गई थी। विजयनगर साम्राज्य के काल में नायक और आयगार व्यवस्था की प्रमुखता के बावजूद ये संस्थाएं पूर्ण रूप से लुप्त नहीं हुई। 

 नायनकार व्यवस्था 
नायनकार व्यवस्था विजयनगर के राजनैतिक संगठन की एक महत्वपूर्ण विशेषता थी। सेनानायक और योद्धा नायक या अमरनायक की पदवी धारण किया करते थे। इन योद्धाओं। को इनकी जातीय पहचान, कर्तव्यों या अधिकारों और विशेषाधिकारों के आधार पर वर्गीकत करना कठिन है। - 

नायक संस्था का गहन अध्ययन दो पर्तगाली विद्वानों फरनाओ ननिज और डोमेन्गो पाएस द्वारा किया गया जिन्होंने 16वीं शताब्दी में तलव वंश के कृष्णदेव राय और अच्युत राय के राज्य-काल में भारत की यात्रा की थी। उन्होंने नायकों को महज रायों (केंद्रीय सरकार) के एजेंट के रूप में देखा। ननिज़ द्वारा वर्णित नायकों द्वारा रायों को दी जाने वाली अदायगी, के प्रमाण से सामंती दायित्वों का प्रश्न सामने आता है। विजयनगर के अभिलेख और बाद में मेकेन्जी की पांडुलिपियां नायकों का प्रादेशिक नायकों के रूप में चित्रण करते हैं, जिनकी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं कई बार शासकों के उद्देश्यों के विपरीत टकराती थीं। एन.के. शास्त्री (1946 में) ने 1565 के पर्व और उसके बाद के नायकों के मध्य एक विभाजन-रेखा खींची है। पहले वे पूर्ण रूप से शासकों पर निर्भर थे, जबकि बाद में ये नायक अर्द्ध-स्वतंत्र हो गए थे। किंत. बाद में उन्होंने अपनी राय में संशोधन करते हए 1565 के पर्व नायकों को सैनिक-मुखिया बताया जिनके अधीन सैनिक जागीरें होती थीं। एक नवीनतम कृति में (सोरसेज़ ऑफ इंडियन हिस्ट्री) उन्होंने विजयनगर साम्राज्य को एक सैनिक महासंघ बताया जिसमें कई सरदार मिलकर उनमें से सर्वाधिक शक्तिशाली के नेतृत्व में सहयोग करते थे। उन्होंने इस बात पर बल दिया कि इस्लाम के बढ़ते खतरे को देखते हुए विजयनगर शासकों को सैन्य-शक्ति और धर्म पर महत्व देना पड़ा। कृष्णास्वामी नायक व्यवस्था को सामंती मानते हैं। परंत वेंकटरमन्या का कहना है कि नायक व्यवस्था में यरोपीय सामंतवाद के प्रमख लक्षण जैसे स्वामिभक्ति, सम्मान और उप-सामंतीकरण अनपस्थित थे। इसी तरह डी.सी. सरकार इस सिद्धांत का खंडन करते हुए इसकी सामंतवाद के एक रूपांतर के रूप में इसकी एक प्रकार की जमींदार प्रथा के रूप में व्याख्या करते हैं, जिसमें राजा हेत सैनिक सेवाओं के लिए अमरनायकों को भूमि बांटी जाती थी।

इसी प्रकार, डी.सी. सरकार और टी.वी. महालिंगम विजयनगर के नायकों को योद्धाओं के रूप में प्रस्तुत करते हैं, जिन्हें केंद्रीय सरकार द्वारा सैनिक सेवा के बदले पद (कर) दिया जाता था। अमरनायक उस सैन्य अधिकारी को कहा जाता था, जिसके अधीन निश्चित संख्या में सैन्य टुकड़ियां रहती थीं। इन नायकों को भमि या क्षेत्र में राजस्व अधिकार प्राप्त थे, जो अमरम (अमरमकरा या अमरामहाली) कहलाते थे। तमिल-प्रदेश और विजयनगर साम्राज्य में भूमि का लगभग 3/4 भाग इसके अंतर्गत आता था। नायकों की जिम्मेदारियां और गतिविधियों में से कुछ इस प्रकार थीं : मंदिरों को उपहार देना, तालाबों का निर्माण, उजाड़ भूमि को फिर से उपजाऊ बनाना और मंदिरों से शुल्क वसूल करना। तथापि, तमिल अभिलेख राजा या उसके अधिकारियों को नायकों द्वारा भगतान का उल्लेख नहीं करते हैं।
 मेकेन्जी की पांडलिपियों के आधार पर कष्णास्वामी का मानना है कि विजयनगर के सेनापतियों (पहले कृष्णदेव राय के अधीन) ने कालांतर में स्वतंत्र नायक राज्यों की स्थापना की। इन खतरों से बचने के लिए विजयनगर सम्राटों ने सामुद्रिक व्यापार पर अधिक नियंत्रण का प्रयास किया, जो घोड़ों की खरीद-फरोख्त के लिए महत्वपूर्ण था। उन्होंने अच्छी नस्ल के घोड़ों के लिए उच्च दाम देकर इस व्यापार पर अपना एकाधिकार स्थापित करना चाहा। उन्होंने वफादार सैनिकों की सुरक्षित सुरक्षा सेनाएं बनायीं। इस प्रकार, जहाँ एक तरफ तेलग नायक विजयनगर साम्राज्य की शक्ति के स्रोत थे, वहीं दूसरी ओर वे इसके प्रतिद्वंद्वी भी थे।
  
 आयगार व्यवस्था 
इसका पहले ही संकेत दिया जा चुका है कि विजयनगर युग में स्वायत्त स्थानीय संस्थाओं को विशेषतः तमिल भाग में, आघात पहुंचा। विजयनगर काल से पहले कर्नाटक तथा आंध में स्थानीय संस्थाओं के पास तमिल क्षेत्र की अपेक्षा कम स्वायत्तता थी। विजयनगर काल में कर्नाटक में स्थानीय क्षेत्रीय विभाजन बदल दिए गए। फिर भी, आयगार व्यवस्था जारी रही और संपर्ण वहतर क्षेत्र में व्यापक रूप से प्रचलित थी। 15-16वीं शताब्दी के मध्य नाड और नट्टार की क्षीण होती शक्ति के फलस्वरूप तमिल प्रदेश में इसका विस्तार हुआ। आयगार ग्राम्य सेवक अथवा कर्मचारी होते थे, तथा इसके अंतर्गत परिवार के समह आते थे। ये थे-मखियागण (रेड्डी और गौडा, मनियम), लेखाकार (करनम सेनभोवा) और पहरेदार। (तलाईयारी)। इन्हें गांव का एक भाग या गांव में एक भूखंड दे दिया जाता था। कभी-कभी। उन्हें एक निश्चित लगान अदा करना पड़ता था, किंतु सामान्यतया ये भूखंड मान्या अर्थात कर-मक्त होते थे. क्योंकि उनकी कृषिय आय पर कोई नियमित कर नहीं लगाया जाता था। कुछ विशेष स्थितियों में ग्राम्य कर्मचारियों को नकद के रूप में उनकी सेवा के लिए सीधा । भगतान किया जाता था। अन्य ग्राम्य-सेवकों जैसे धोबी या पुजारी को भी आनष्ठानिक कार्यों और गांव के समदायों की सेवा के लिए भुगतान भूमि के रूप में किया जाता था। अन्य सामान्य सेवाएं देने वाले ग्राम्य सेवकों में चमड़ा-कारीगर, जिनके बनाए चमड़े के थैले सिंचाई के साधनों (कपिला या मोहते) में उपयोगी थे, कुम्हार, लुहार, बढ़ई, जलापर्ति कारक व्यक्ति (निरनिक्कर : जो सिंचाई-मार्गों की देख-रेख करता था और साहूकारों, महाजनों का पर्यवेक्षक था) थे। आयगार व्यवस्था की विशिष्टता यह थी कि भूमि द्वारा आय का विशेष आवंटन तथा निश्चित नकद भगतान पहली बार ग्राम्य सेवकों (जिनका निश्चिय कार्य था)को किया गया।

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