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अक़ क्युयूनलू और कारा क्युयुनल -Takeknowledge

उधमशील जहानशाह के नेतृत्व मे कारा क्युयुनल राजवंश वेन से लेकर ईरान और खुरासान के रेगिस्तान तक और कैस्पियन सागर से फारस की खाड़ी तक फैला हुआ था।  उन्होंने तैमूरों से अपने को स्वतंत्र कर लिया था। जहानशाह शियाओं के जनक के रूप में प्रसिद्ध था जबकि अक़ क्युयूनलू लोग सुन्नी थे। उजन हसन (1453-78) अक क्युयूनल राजवंश का सबसे प्रसिद्ध बादशाह था, जिसने जहानशाह को हराकर लगभग समस्त ईरान पर अपना अधिकार जमा लिया था। इस प्रकार उसके साम्राज्य की सीमा तैमूरों की सीमा के पास आ गयी। ऑटोमन शासक मौहम्मद द्वितीय उसे बलवान शासक मानता था, क्योंकि उसका अनातोलिया, मेसोपोटेमिया, अजरबाइजान और फारस के संसाधनों पर अधिकार था। इसके बावजूद। 1473 में अपने उत्कृष्ट तोपखाने के बल पर आटोमन शासक ने उजून हसन को हरा दिया। उजून हसन । की मौत (1478) के समय उसका तर्कमान साम्राज्य फरात के ऊँचे इलाकों से लेकर बृह्द लवणीय । रेगिस्तान तक और दक्षिण फारस में किरमान प्रांत और ट्रांसऑक्सियाना से मेसोपोटेमिया और फारस की। खाड़ी तक फैला हुआ था। उजून हसन खाँ की बहन खदिजा बेगम की शादी एक उद्यमी और प्रभावशाली शेख जुनैद (1447-60 साथ हुई ।

उजबेगों और सफवियों का पूर्ववर्ती इतिहास -Takeknowledge

    उज़बेग तूरान या ट्रान्सऑक्सियाना के उजबेग चंगेज के बड़े पुत्र जोची के वशंज थे। उन्होंने जूजी के अधीनस्थ दश्त-ए-किपचक के उजबेग खाँ (1212-40) पर अपना नाम आधारित किया था। उज़बेग चगताई तुर्की बोलते थे और तुर्क-मंगोल परंपरा का निर्वाह करते थे। वे कट्टर सुन्नी थे और हनफी कानून मानते थे। नैमान, कुशजी, दुर्मान, कुनघरात और अन्य तुर्क-मंगोल जनजातियां उजबेग राज्य को अपना समर्थन देती थीं । बार-बार आक्रमण करके इनके विरोधी कबीलों (मंगोल, कज़ाक और किरधिज) ने इनकी शक्ति काफी कम कर दी।   सफ़वी   सफ़वी मूलतः ईरानी (कुर्दिस्तान से) थे। वे शिया और फारसी इस्लामी परंपरा का निर्वाह करते थे। वे शासन करने के लिए लाये गये थे। वे अजरी तुर्की और फारसी बोलते थे। सूफी मूल के होने के कारण उन्होंने बाद में एक प्रभावी वंशावली तैयार की। सफवी शक्ति का मूल आधार तुर्कमान जनजातियों का संगठन था पर प्रशासनिक नौकरशाही में ईरानी तत्व भी बराबरी के स्तर पर मजबूत था। बाद में जॉरजियन और सिरकासियन नामक दो समूह और जुड़े। ये चारों तत्व (खासकर तुर्कमान समूह) बाहरी राजनीतिक संबंधों को मजबूती देने के स्रोत थे, क्योंकि वे ह

तूरान और ईरान की भौगोलिक सीमा -Takeknowledge

     अंदरूनी एशिया क्षेत्र जिसे तुरान भी कहते हैं. दो नदियों के बीच बसा हुआ था। अरब आक्रमणकारियों ने इस क्षेत्र को मवारून्नहर (अर्थात् दो नदियों-सीर एवं अमू-के बीच) कहा था। यह क्षेत्र सागर, सीर नदी और तर्कीस्तान से घिरा था. दक्षिण में ईरान, अमू नदी और अफगानिस्तान था तीनशान और हिंदकुश पर्वतों से लेकर काराकोरम रेगिस्तान था; पश्चिम में कैस्पियन सागर और खाई, पहाड, घाटी, रेगिस्तान तथा शुष्क और अर्द्धशुष्क भूमि । इस प्रकार इस क्षेत्र में विभि जीवन शैलियां देखने को मिलती थीं। यहां बंजारे और पशुपालक भी थे तथा स्थाई रूप से बसे हा भा। इस क्षेत्र में जमीन के अंदर जल प्रवाह था और जगह-जगह घिरे हुए समुद्र तटीय क्षेत्र दूर थ और अतलांतिक और प्रशांत सागर से अलग-थलग थे। कृषि के अलावा पशुपालन एक व्यवसाय था। यह स्थान घोडों के लिए प्रसिद्ध था। यहां से काफी मात्रा में भारत को घोड़ों का निर्यात जाता था। समरकंदी कागज और फल (ताजे भी और सूखे भी) निर्यात किए जाते थे। एलबुर्ज पर्वतों के पूर्वी घाट ईरानी पठार को तुर्कीस्तान (ईरान) से अलग करते थे। जहां तक भौगोलिक विस्तार का सवाल है, ईरान और फारस में एशिया माइ

भारत मे कुरान लिखने की सुलेखन कला -Takeknowledge

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     इस्लामी संसार में सुलेखन की कला को एक पवित्र कला माना जाता था जिसका प्रयोग कागजों एवं पत्थरों पर सजावट के लिए किया जाता था। हस्तशिल्पियों में सुलेखक को पाण्डुलिपियों को सजाने वाले एवं चित्रकार से ऊपर रखा गया। लेकिन कुरान का सुलेखन पूस्तक कला का एक महत्वपूर्ण रूप बन गया जहां कुरान की प्रतिलिपियां भव्य और व्यापक पैमाने पर बनाई गईं। कुरान की प्रथम प्रतिलिपि 1399 ई. की है। यह ग्वालियर में सुलेखित की गई थी। इसमें ईरानी तथा भारतीय साधनों से ग्रहण किए गए नाना प्रकार के अलंकारिक प्रतिमान हैं। (इस पांडुलिपि के दो पृष्ठ चित्र 18 में दिखाए गए हैं) इस हस्तलिपि के अग्र पृष्ठ का ज्यामितीय चित्र सल्तनत शैली का प्रतीत होता है जिससे स्पष्ट होता है कि चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली की चित्रशालाओं की निम्नलिखित विशेषताएं थीं:  • यह ईरानी परम्परा से संबंधित है।  • शीर्षकों और पट्टिकाओं के अभिलेखों में प्रयुक्त कुरान की लिखावट ज्यादातर कूफी शैली की है।  • अग्र पृष्ठ के ज्यामितीय चित्रों का चित्रण इस शैली की विशेषता थी। पन्द्रहवीं शताब्दी में सैय्यद और लोदी वंश में पुस्तक कला की दशा खि

सूफियों की सामाजिक भूमिका -Takeknowledge

    सुफियों ने समाज में और कभी-कभी राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यहाँ हम विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान का विश्लेषण करेंगे।     सूफी और राज्य आरंभिक चिश्ती सूफ़ियों और बीजापुर राज्य के शाहपुर के चिश्तियों के अलावा अन्य सिलसिलों से जुड़े अधिकांश सूफ़ियों ने, यहां तक कि बाद के चिश्तियों ने भी राज्य सहायता स्वीकार की और राज्य से जुड़े रहे। कई बार कई चिश्ती सूफ़ी सुल्तान की नीतियों का विरोध भी करते थे। मौहम्मद तुगलक के शासन काल में ऐसा हुआ था। कुछ सूफ़ी शासन तंत्र का हिस्सा बन गये आरंभिक चिश्तियों ने ऐसा नहीं किया पर उन्होंने विभिन्न वर्गों और धार्मिक समुदायों के बीच सौहार्द का वातावरण बनाया जिससे राज्य के सुचारू रूप से संचालन को सहायता मिली। चिश्ती गुरूओं सहित किसी भी सूफ़ी ने स्थापित राजनीतिक व्यवस्था और वर्ग संरचना पर कभी भी प्रश्नचिह्न नहीं लगाया। उन्होंने राज्य के पदाधिकारियों से केवल यही कहा कि वे किसानों से राजस्व वसूलते समय नरमी बरतें। दूसरी तरफ उन्होंने अपने साधारण अनुयायियों को राज्य सहायता लेने और दरबार के मामलों में दखल देने से नहीं रोका। इसी कमी के का

चिश्ती सिलसिले की लोकप्रियता के मुख्य कारण 'Takeknowledge

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        सल्तनत काल के सभी सूफ़ी सम्प्रदायों का उद्देश्य लगभग एक था—आध्यात्मिक गुरू के निर्देशन में सही मार्ग अपनाते हुए ईश्वर से सीधा संवाद स्थापित करना। हाँ, प्रत्येक सूफ़ी सम्प्रदाय ने अलग-अलग अनुष्ठान और रीति-रिवाज अपनाए और राज्य तथा समाज के प्रति उनके दृष्टिकोण में भी अंतर था। इस काल के सभी सम्प्रदायों में चिश्ती सम्प्रदाय को सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई और इसका प्रसार भी व्यापक क्षेत्र मे हुआ। चिश्ती सम्प्रदाय के अनुष्ठान, दृष्टिकोण और प्रथाएँ भारतीय थी और यह मूलतः एक भारतीय सिलसिला था। इसकी लोकप्रियता के कारणों का उल्लेख नीचे किया जा रहा है: i) चिश्ती सम्प्रदाय की कई प्रथाएँ भारत में स्थापित नाथपंथी योगियों जैसे गैर-परम्परावादी सम्प्रदायों से काफी मिलती-जुलती थीं। ब्रह्मचारी और सन्यासी का जीवन व्यतीत करना, गुरू के समक्ष दंडवत करना, सम्प्रदाय में शामिल होने वाले नये शिष्य का मुंडन करना और भक्ति संगीत का आयोजन आदि कुछ ऐसी ही प्रथाएँ थीं। इस दृष्टि से, चिश्तियों को भारतीय परम्परा के एक हिस्से के रूप में देखा जाने लगा।  ii) चिश्तियों ने भारत में गैर-मुसलमान जनसंख्

सुहरावर्दी सिलसिला -Takeknowledge

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  सुहरावर्दी सिलसिला सल्तनत काल का प्रधान सम्प्रदाय था। भारत में इसके संस्थापक शेख बहाउद्दान जकरिया (1182-1262) थे। वह एक खुरासानी थे और शेख शहाबद्दीन सहरावर्दी के शिष्य थे, जिन्हान बगदाद में इस सिलसिला की शुरुआत की थी। शेख शहाबद्दीन सुहरावर्दी के आदेश से शेख बहाउद्दान जकरिया भारत आये। मुल्तान और सिंध को उन्होंने अपनी गतिविधि का केन्द्र बनाया। अतः उन्होंने मुल्तान में जिस खानकाह की स्थापना की उसकी गिनती भारत में स्थापित आरंभिक खानकाहों में होती है। उस समय दिल्ली का सुल्तान इल्तुतमिश था, पर मुल्तान पर उसके दुश्मन कुबाचा का आधिपत्य था। शख बहाउद्दीन जकरिया खुले आम कुबाचा के प्रशासन की आलोचना किया करता था । इल्तुतमिश तथा मुल्तान के शासक कुबाचा के बीच हुए संघर्ष में शेख ने खुले आम इल्तुतमिश का पक्ष लिया। कुबाचा के पतन के बाद इल्तुतमिश ने बहाउद्दीन जकरिया को शेख-उल इस्लाम (इस्लाम का प्रमुख) विद्वान का खिताब प्रदान किया और अनुदान की व्यवस्था की। समकालीन चिश्ती संतों के विपरीत उन्होंने व्यावहारिक नीति अपनाई। और काफी सम्पत्ति इकट्ठी की। उन्होंने राज्य का संरक्षण स्वीकार किया और शासक