सूफियों की सामाजिक भूमिका -Takeknowledge

    सुफियों ने समाज में और कभी-कभी राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यहाँ हम विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान का विश्लेषण करेंगे।

   सूफी और राज्य
आरंभिक चिश्ती सूफ़ियों और बीजापुर राज्य के शाहपुर के चिश्तियों के अलावा अन्य सिलसिलों से जुड़े अधिकांश सूफ़ियों ने, यहां तक कि बाद के चिश्तियों ने भी राज्य सहायता स्वीकार की और राज्य से जुड़े रहे। कई बार कई चिश्ती सूफ़ी सुल्तान की नीतियों का विरोध भी करते थे। मौहम्मद तुगलक के शासन काल में ऐसा हुआ था। कुछ सूफ़ी शासन तंत्र का हिस्सा बन गये आरंभिक चिश्तियों ने ऐसा नहीं किया पर उन्होंने विभिन्न वर्गों और धार्मिक समुदायों के बीच सौहार्द का वातावरण बनाया जिससे राज्य के सुचारू रूप से संचालन को सहायता मिली।

चिश्ती गुरूओं सहित किसी भी सूफ़ी ने स्थापित राजनीतिक व्यवस्था और वर्ग संरचना पर कभी भी प्रश्नचिह्न नहीं लगाया। उन्होंने राज्य के पदाधिकारियों से केवल यही कहा कि वे किसानों से राजस्व वसूलते समय नरमी बरतें। दूसरी तरफ उन्होंने अपने साधारण अनुयायियों को राज्य सहायता लेने और दरबार के मामलों में दखल देने से नहीं रोका। इसी कमी के कारण प्रगतिशील चिश्ती सिलसिले में भी बाद में राज्य संरक्षण और दरबारी राजनीति का प्रवेश हो गया।

    सूफी और उलेमा
आपने गौर किया होगा कि उलेमा बराबर सूफ़ियों को नकारते रहे। अल-गज्ज़ाली ने उन दोनों के बीच समन्वय स्थापित करने की काफी कोशिश की, पर नाकाम रहा। सल्तनत काल में उन दोनों के बीच अविश्वास का भाव बना रहा, पर सुहरावर्दी, कादिरी आदि जैसे सूफ़ी सम्प्रदायों ने उलेमा का पक्ष लिया। उलेमा खासकर चिश्ती सूफ़ियों और उनकी प्रथाओं के विरोधी थे। उन्होंने चिश्ती की समा प्रथा की आलोचना की और चिश्तियों द्वारा धार्मिक मेल स्थापित करने के प्रयत्न पर आपत्ति की। शेख नासिरूद्दीन (चिराग-ए दिल्ली) और गेसूदराज़ जैसे चिश्ती सूफ़ियों ने चिश्ती प्रथाओं के प्रति उलेमा के आक्रोश को कम करने के लिए चिश्ती सम्प्रदाय को कुछ कट्टरपंथी आयामों से युक्त किया। हमने पढ़ा है कि चिश्ती दरबारी राजनीति में हिस्सा लेने लगे थे और दान स्वीकार करने लगे थे। उन्होंने उलेमा से मिलते-जुलते सैद्धांतिक दृष्टिकोण अपना लिए।

     सूफी और धर्म परिवर्तन
सल्तनत काल में आये सूफ़ियों को आमतौर पर भारत में इस्लाम के प्रणेता के रूप में देखा जाता है। उत्तर मध्यकाल के कई लेखों और हवालों में सूफ़ियों को सक्रिय धर्म-संस्था (मिशनरी) के रूप में वर्णित किया गया है। शेख मुइनुद्दीन चिश्ती पर लिखी एक जीवनी में बताया गया है कि गैर-मुसलमानों को इस्लाम धर्म में परिवर्तित कराने में उन्होंने सक्रिय हिस्सा लिया था। इसी प्रकार 13वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 14वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में दक्कन की ओर जाने वाले सूफ़ियों के बारे में भी यही कहा गया कि वे इस्लाम के कट्टर प्रचारक थे और उन्होंने जेहाद (गैर-मुसलमानों के खिलाफ युद्ध) छेड़ रखा था। सुहरावर्दी सफ़ियों में से कई सक्रिय धर्म प्रचारक थे। 14वीं शताब्दी में मीर सैय्यद अली हमादानी धर्म प्रचार और धर्म परिवर्तन के उद्देश्य से कश्मीर आए थे, पर उन्हें वहां सफलता नहीं मिली। पर इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए कि सभी सूफ़ी इस धर्म परिवर्तन के चक्र में नहीं फंसे हुए थे। शेख मुइनुद्दीन चिश्ती धर्म-प्रचारक नहीं था।
और न ही वह धर्म परिवर्तन में सक्रियता से हिस्सा लेत थे। उन्होंने और उनके उत्तराधिकारियों ने गैरमुसलमानों के प्रति सहिष्णुता का दृष्टिकोण अपनाया। शेख निज़ामुद्दीन औलिया ने एक अवसर पर गौर किया कि कई हिंदु इस्लाम को सच्चा धर्म मानते थे पर उसे ग्रहण नहीं करते थे। उसका यह भी मानना था कि प्रत्येक धर्म की अपनी पूजा-पद्धति, विधि और विश्वास है। आरंभिक सूफ़ियों के संबंध में इस बात के काफी कम प्रमाण मिलते हैं कि उन्होंने दक्खन में धर्म-युद्ध छेड़ रखा था।

हां, यह सही है कि गैर-मुसलमान धर्म की छोटी जातियों के लोग सूफ़ियों और उनकी दरगाहों की ओर आकृष्ट हुए और उनके भक्तों में शामिल हो गये। धीरे-धीरे वे इस्लाम के प्रभाव में आये और उन्होंने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। इस्लाम धर्म ग्रहण करने वालों के उत्तराधिकारियों ने बाद में यह दावा किया कि उनके पूर्वजों को किसी खास मध्यकालीन सूफ़ी ने इस्लाम धर्म से परिवर्तित किया था। इसका एक ही मकसद था-वे नये धर्मानुयायो सूफ़ियों, उनकी दरगाह से तथा इस्लाम से अपने लंबे संबंध को सिद्ध करना चाहते थे।

     सूफी खानकाहों में भौतिक जीवन
कई खानकाह समृद्ध थे, उन्हें राजकीय सहायता मिलती थी, राज्यों के साथ सूफ़ियों के संबंध थे और कई सूफ़ी भूमिपति भी बन गये। आदर्श तौर पर आरंभिक चिश्ती खानकाहों में रहते थे और ये दरबार और सामाजिक ऊंच-नीच के वातावरण से दूर समता के माहौल में रहा करते थे। आपने गौर किया होगा कि समग्र रूप में चिश्तियों ने स्थापित सामाजिक और राजनीतिक संरचना को स्वीकार किया ।। उनका यह मानना था कि इसका कोई विकल्प नहीं है। इसके बावजूद उनके खानकाहों में इस सामाजिक संरचना और असमानता का प्रभाव नहीं पड़ा। खानकाह में रहने वाले अनुयायी और तीर्थयात्री एक समतावादी परिवेश का अनुभव करते थे। ऐसे खानकाह अपने खर्चे के लिए सरकारी संरक्षण पर नहीं बल्कि फुतूह (निस्वार्थ दान) पर आश्रित थे।

चिश्ती खानकाहों का दरवाजा समाज के प्रत्येक सदस्य और समुदाय के लिए खुला था । कलंदर और जोगी। अक्सर खानकाहों में टिका करते थे। खानकाहों ने अनेक तरीके से आर्थिक जीवन को भी प्रभावित किया। कुछ खानकाह बंजर भूमि पर खेती करते थे, कुछ धार्मिक और गैर धार्मिक इमारतें बनवाते थे, बाग-बगीचे । लगवाते थे। खानकाहों ने शहरीकरण की प्रक्रिया में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। वार्षिक उर्स । (आध्यात्मिक गुरू की मृत्यु के दिन आयोजित समारोह) के आयोजन से व्यापार, वाणिज्य और स्थानीय हस्तशिल्प के उत्पादन को बल मिला

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