अफाकियों और दक्खनियों के मध्य संघर्ष एवं सम्राट के साथ उनके संबंध - Takeknowledge

   अमीरों की भूमिका न केवल सल्तनत को बनाने के लिए था बल्कि राजा बनाने के रूप में भी थी। प्रत्येक सुल्तान की चाह अमीरों की वफादारी प्राप्त करना था। यही परंपरा बहमनी राज्य में भी जारी रही। अलाउद्दीन बहमन शाह के काल हमें तीन गुट नजर आते हैं : 

•एक वह गट था जिसने दक्खन में एक स्वतंत्र राज्य की स्थापना में अलाउददीन बहमन शाह की सहायता की, •दूसरा तुगलक गुट 
•और स्थानीय सरदार और उनके मातहत (असामी) थे. जिनके व्यक्तिगत स्वार्थ थ।

अलाउद्दीन मुजाहिद के काल (1375-78) के बाद अमीरो के इस संयोजन मे एक नए घटक का आगमन हुआ, यह था-अफाकी। इस शब्द का अर्थ है "सार्वभैमिक" वे लोग जिन्हें मूलस्थान से उखाड़ दिया गया है और वे अब किसी प्रदेश संबंधित नही थे! उन्हें गरीब-उद दयार अर्थात् "अजनबी" भी कहा जाता था। ये अफाकी यहाँ ईरान, ट्रान्सऑक्सियाना और ईराक से आये थे। दक्खनियों और अफाकियो के मध्य संघर्ष  1397 में गियासुद्दीन तहमतान के काल में हए जब उसने कई अफाकियो को उच्च पदो पर नियक्त किया: उदाहरणार्थ, सलाबत खाँ को बरार का राज्यपाल, मुर नौबत और अहमद बेग कजनीवी को पेशवा बनाया गया। इन दक्खनियों के हाथों में थे, अफाकियों की नियक्ति ने पुराने अमीर नेतृत्व वाले तुर्की गुट में बहुत असंतोष को जन्म दिया। तगलचिन न को कम करने में सफलता प्राप्त की जब उसने सफल षडयंत्र कर गिया शम्सुद्दीन दाउद I (1397) को एक "कठपुतली" सुल्तान बनाया और स्वयं के लिए  मलिक नाएब और मीर जमला के पद हासिल किए। अहमद I (1422-36) ने पहली एक अफाकी खलफ हसन बसरी (जिसकी मदद से उसे सिंहासन प्राप्त हुआ वकाल-ए सल्तनत के उच्चतम पद पर नियुक्त कर उसे मलिक-उत तुज्जा का शहज़ादा) की उच्चतम पदवी दी। अफाकियों की यह अद्भुत प्रगति उनके द्वारा दक्खनियों की तुलना में लगातार वफादारी के प्रदर्शन के कारण संभव हुई!  हसैन बडखोही व साथियों ने ही अहमद को अपने शासनकाल के प्रारंभिक वर्षो मे विजयनगर अभियान के दौरान  बच निकलने में सहायता प्रदान की थी। इसके परिणामस्वरूप अभियान के दौरान वहाँ से बच निकलने में सहायता प्रदान की थी। इसके परिणामस्वरूप अहमद I ने अफाकी तीरन्दाजों की एक विशेष टुकडी तैयार की। उन्हें इसी प्रकार के अन्य लाभ मिलते रहे! इस नीति से दक्खनियों में बहुत असंतोष फैला। इन दो गुटो के मध्य विवाद का अहमद के गुजरात के विरुद्ध महिम में देखा जा सकता है जब दक्खनियो के  असहयोग के कारण मलिक-उत तज्जार के नेतत्व में बहमनी सेना को पराजय हुई! दोनों गुटों के बीच यह खाई अहमद II के शासनकाल में और बढ़ी। खानदेश आक्रमण के समय दक्खनियों के असहयोग के कारण केवल अफाकी दलो का खिलाफ हसन  बसरी के नेतत्व में भेजा जा सका। हुमायुं शाह (1458-1461) ने दोनो गुटो मे सामजस्यता लाने के प्रयास किये। अहमद III (1461-65 ई.) के काल में, दक्खनियो ने शासन की पतवार ख्वाजा-ए जहां तर्क, मलिक-उत तज्जार और महमूद गावां के हाथा में देख अनुभव किया कि अफाकियों के हाथों में शक्ति केन्द्रित थी। दूसरी तरफ, अफाकी 'इसलिए असंतुष्ट थे क्योंकि अहमद II के अधीन उन्हें प्राप्त शक्तियों में, उसके
उत्तराधिकारी के काल में, बहत कमी कर दी गयी। मौहम्मद III (1463-1482) के मुख्यमंत्री महमूद गावां ने भी दोनों गुटों के मध्य साम्य स्थापित करने के प्रयास किए। इसके परिणामस्वरूप, उसने मलिक हसन को तेलंगाना का सर-ए लश्कर और फतउल्लाह को बरार के सर-ए लश्कर के पद पर नियुक्त किया। किंत महमूद गावां स्वयं जरीफ-उल मुल्क दक्खनी और मिफ्ताह हब्शी के षड्यंत्रों का शिकार बना। इसके बाद गुटों का साम्य बिखर गया और बाद के कमजोर राजा एक या दूसरे गुट के हाथों में कठपुतली बनते गए।

शिहाबुद्दीन महमूद के शासनकाल (1482-1512) में संघर्ष चरमोत्कर्ष पर पहुंचा। जबकि राजा का अफाकियों के प्रति स्पष्ट झुकाव था, दक्खनियों ने हब्शी (अबीसीनियाई) गुट से दोस्ती की। हब्शी गुट ने, 1487, में राजा को मारने का एक दुस्साहसिक प्रयास किया किंतु ' यह असफल रहा। इसके परिणामस्वरूप बड़ी संख्या में दक्खनियों का कत्ले-आम प्रारंभ हुआ जो तीन दिनों तक जारी रहा। इन गुटों के झगड़ों ने केन्द्र को कमजोर कर दिया था। शिहाबददीन का शासनकाल कासिम बरीद, मलिक अहमद, निजाम-उल मुल्क, बहादुर गिलानी आदि के विद्रोहों और षड्यंत्रों से त्रस्त रहा। शिहाबुद्दीन की मृत्यु (1518) ने इन सरदारों को अपने प्रांतों में लगभग खुली छूट प्रदान की। अंत में, बीजापुर के इब्राहीम आदिल शाह ने सर्वप्रथम अपनी स्वतंत्रता की घोषणा 1537 में की। इस प्रकार बहमनी सल्तनत के क्षेत्रीय विखण्डन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई।

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