विजय नगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था -Takeknowledge

इसमें हम विजय नगर साम्राज्य  के  विभिन्न भूमि एवं आय संबंधी अधिकारों तथा मंदिरों की आर्थिक भूमिका  के बारे मे जानेगें। हम विदेशी और आंतरिक व्यापार के पहलुओं तथा नगरीय जीवन का अध्ययन भी करेंगे।

    भूमि एवं आय संबंधी अधिकार 
चावल मुख्य पैदावार थी। कोरोमण्डल से लेकर पलिकट तक काले और श्वेत दोनों किस्म के चावल उगाए जाते थे। इसके अलावा, दालों और चनों जैसे खाद्यान्न उगाए जाते थे। अन्य महत्वपूर्ण उत्पादों में गर्म मसाले (विशेषतः काली मिर्च), नारियल और सुपारियां थीं। भू-राजस्व राज्यों की आय का मुख्य साधन था। राजस्व निर्धारण की दर साम्राज्य के विभिन्न भागों में और एक ही स्थान पर भूमि की उर्वरता और उसकी क्षेत्रीय अवस्थिति के आधार पर भिन्न-भिन्न थी। सामान्य तौर पर यह आय का 1/6 भाग थी, परंतु कुछ मामलों में यह अधिक, 1/4 भाग तक थी। ब्राहमणों और मंदिरों पर यह क्रमशः 1/20 भाग और 1/30 भाग थी। इसका भगतान नकद और वस्तओं दोनों के रूप में किया जाता था। हमें भमि-काश्तकारी के तीन मख्य वर्गों का संदर्भ मिलता है: आमरा, भंडारावाडा और मान्या। ये गांवों की आय के विभाजन को प्रदर्शित करते हैं। भंडारावाडा राजा के अधीनस्थ गांव थे, यह वर्ग सबसे छोटा था। इसकी आय के एक भाग का उपयोग विजयनगर के दर्गों के हितार्थ होता था। मान्या (कर-मुक्त) गांवों की आय का उपयोग ब्राह्मणों, मंदिरों और मठों की देख-भाल हेतु होता था। सबसे बड़ा वर्ग आमरा गांवों का था, जिन्हें विजयनगर शासकों द्वारा अमरनायकों को प्रदत्त किया जाता था। आमरा गांवों की भूमि पर अमरनायकों का मालिकाना हक नहीं होता था, परंतु इससे होने वाली आय पर उनका विजय नगर साम्राज्य की अर्थव्यवस्था था। आमरा काश्तकारी (पट्टेदारी) इस अर्थ में मुख्यतया अवशिष्ट संपत्ति थी कि इसमें से ब्राह्मणों और दुर्गों के लिए कटौती करने के पश्चात इसका वितरण होता था। सभी गावों का तीन-चौथाई हिस्सा इस वर्ग में आता था। अधिकांश इतिहासकार अमरनकनी शब्द का अर्थ नागीर" अथवा भूसम्पत्ति बताते हैं, लेकिन इसका शाब्दिक अर्थ 1/16वां हिस्सा (मकनी) है। इससे संकेत मिलता है कि अमरनायक गांव की आय के एक सीमित भाग पर ही पता कर सकते थे। इस काल में मान्या अधिकारों में भी परिवर्तन हए। राज्य द्वारा भूमि की टेदारी व्यक्तिगत रूप से, (एकाभोगन) ब्राह्मणों और ब्राहमणों के समूहों, साथ ही मठों समें गैर-ब्राह्मण शैव सिद्धान्ता और वैष्णव गुरु भी सम्मिलित थे, को दी जाती थी। परंतु ज्य द्वारा दिये जाने वाले अनुदानों में तुलनात्मक रूप से देवदान अनुदान (मंदिर को दिए जाने वाले अनुदान) में बहुत वृद्धि हुई।

भुमि कर के अतिरिक्त कई व्यावसायिक कर प्रचलित थे। ये दकानदारों, खेतों में काम करने ले कर्मचारियों, चरवाहो, धोबियों, कुम्हारों, संगीतकारों और जते बनाने वालों पर लगाए थे। संपत्ति कर का भी प्रावधान था। चराई और मकानों पर भी कर आरोपित किए। गांववासियों को गांव के अधिकारियों के भरण-पोषण हेत भी भगतान करना पड़ता था। इसके अलावा, स्थल दायम, मार्गदायम और मनुला दायम तीन मुख्य परिवहन शुल्क थे।

भुमि अधिकार की एक अन्य श्रेणी के अंतर्गत सिंचाई में पँजी निवेश द्वारा आय प्राप्त की। जीती थी। इसे तमिल क्षेत्र में दसावन्दा और आन्ध्र तथा कर्नाटक में काटु-कोडगे के नाम से जाना जाता था। सिचाई संबंधित इस प्रकार की कषि गतिविधियाँ अर्द्ध-शुष्क भागों में । होती थीं जहां जलराशिकीय तथा स्थलाकृतिक लक्षण विकासात्मक कार्यों के लिए उपयुक्त होते थे। दसावन्दा और काटु-कोडगे इस तरह के विकास कार्य जैसे किसी तालाब या नहर का निर्माण करने वाले व्यक्ति द्वारा अर्जित अधिक उत्पादकता के भाग थे। आय पर यह अधिकार व्यक्तिगत और हस्तांतरण योग्य होता था। इस बढ़ी हई उत्पादकता का एक भाग उस गांव के किसानों को जाता था, जहाँ विकास संबंधी कार्य किया जाता था।

 मंदिरों की आर्थिक भूमिका 

विजयनगर के काल में मंदिर महत्वपूर्ण भूस्वामी बने। सैकड़ों गांवों का अनुदान उन देवी-देवताओं को किया गया, जिनकी पूजा विशाल मंदिरों में होती थी। मंदिर-अधिकारी देवदान गांवों की व्यवस्था अनुदान के सही उपयोग के लिए करते थे। देवदान गांवों की आय से धार्मिक कर्मचारियों का पोषण होता था। इसका उपयोग आनुष्ठानिक कृत्यों हेतु खाद्य चढावा या अन्य सामग्रियों (अधिकतर सगंधित वस्तओं और वस्त्रों) की खरीद हेत किया। जाता था। राज्य द्वारा मंदिरों को आनुष्ठानिक प्रयोजनों हेतु नकद धर्मदान भी दिए जाते थे। 


मंदिरों द्वारा सिंचाई-संबंधी कार्य भी किया जाता था। देवदान भमि प्राप्त बड़े मंदिरों में एक सिंचाई विभाग होता था. जिसका कार्य मंदिरों को प्राप्त मद्रा-अनदानों का समचित उपयोग करना था। मंदिरों को नकद अनुदान देने वालों को परिवर्द्धित उत्पादन क्षमता से प्राप्त खाद्य भेंट (प्रसादम्) का एक भाग प्राप्त होता था। 

वास्तव में मंदिर दक्षिण भारत की आर्थिक गतिविधियों के मख्य केन्द्र थे। वे केवल विशाल भूस्वामी ही नहीं थे, बल्कि बैंकिंग गतिविधियों में भी संलग्न थे। उन्होंने कई लोगों को रोजगार दिया। महालिंगम एक अभिलेख का उल्लेख करते हैं जिसमें एक मंदिर में 370 सेवकों के होने का वर्णन है। आनष्ठानिक सेवाओं के लिए मंदिर स्थानीय साज़-सामान . खरीदते थे। आर्थिक प्रयोजनों के लिए वे व्यक्तियों और ग्राम्य सभाओं को ऋण प्रदान करते थ। ये ऋण भमि के बदले में दिए जाते थे, जिसकी आय मंदिरों को प्राप्त होती थी। तिरुपति मंदिर को राज्य से प्राप्त नकद धर्मदानों का पनः सिंचाई कार्यों में उपयोग होता था। इसके फलस्वरूप प्राप्त आय का प्रयोग धार्मिक कार्यों के लिए किया जाता था। श्रीरंगम मंदिर में। नकद अनुदानों का प्रयोग त्रिचनापल्ली के व्यवसाय संघों को व्यावसायिक ऋण प्रदान करने में किया जाता था। मंदिरों के अपने व्यापार संघ होते थे, जो अपनी निधि का उपयोग विभिन्न उद्देश्यों के लिए करते थे। इस प्रकार, मंदिर लगभग एक स्वतंत्र आर्थिक व्यवस्था के रूप में। कार्य करते थे जिसमें व्यक्ति और संस्थाएं आर्थिक संबंधों द्वारा बंधे हुए थे।

 विदेशी व्यापार 
विदेशी व्यापार संबंधी जानकारी हमें कष्णदेव राय के अमक्तामाल्यदा, डोमेन्गो पाएस और ननिज़ द्वारा प्राप्त होती है। उनमें अश्व-व्यापार का रोचक वर्णन मिलता है। भारतीयों की। भूमिका विदेशी व्यापार में न्यनतम थी। बारबोसा के अनुसार, भारतीय समुद्री व्यापार पर मुस्लिम सौदागरों का पर्ण नियंत्रण था। शासकों द्वारा उनके साथ अच्छा बर्ताव किया जाता था। उसके अनुसार लाल सागर से लौटने पर सम्राट उन्हें स्थानीय लेन-देन में सहायता हेतु एक नायर अंगरक्षक, चेट्टी लेखाकार और एक दलाल प्रदान करता था। उ इतनी थी।के कायल में, मक्ता मात्स्यकी (मोती ढढने संबंधी काय) पर का भा एक मस्लिम सौदागर को दे दिया गया। अश्वि-व्यापार पर अरबो और बाद म पुतगालियों का नियंत्रण था। घोडों को अरब. सीरिया और तकी क पाश्चमा बदरगाहा पर लाया जाता था। गोवा दारा विजयनगर और साथ ही दक्खनी सस्ता घाड़ा की आपर्ति की जाती थी। सैन्य दृष्टि से दक्षिणी राज्यों के लिए घोड़ो की बहुत थी क्योंकि भारत में अच्छी नस्ल के घोडे प्रजनित नहीं होते थे। इसके अलावा, विजयनगर क उत्तरा दक्खनी मस्लिम राज्यों के साथ संघर्ष ने मध्य एशिया से आयातित घोड़ा का उत्तरा भारत द्वारा आपर्ति पर अंकश लगा दिया था। घोडों के अलावा हाथी-दांत, माती, मसाल, पत्थर, नारियल, ताड़-गड, नमक इत्यादि भी आयातित किए जाते थे। मोती फारस खाड़ा आर लका तथा मल्यवान पत्थर पेग से मंगाए जाते थे। मरका से मखमल और चीन से साटन, रेशमी, जरोदार एवं बटेदार कपड़ा आयात किया जाता था! सफेद चावल, गन्ना (ताड़-गुड़ समिन्न) और लोहे कामख्यतया निर्यात किया जाता था। विजयनगर स हास का आयात होता था। ननिज वर्णन करता है कि इसकी हीरों की खाने विश्व में सबसे बड़ा था। मख्य खाने कणा नदी के तट पर और करनल तथा अनन्तपर में थीं। इसके फलस्वरूप ,विजयनगर और मलाबार में हीरा. नीलम और माणिक जैसे बहमल्य पत्थरा का काटने और परिष्कत करने के बड़े उद्योगों का विकास हुआ।

  आंतरिक व्यापार और नगरीय जीवन 
समकालीन विदेशी वतांत प्रदर्शित करते हैं कि विजयनगर शासकों के काल में स्थानीय लंबी दूरी के व्यापार में वृद्धि हई। नगरों के मध्य यात्रियों के लिए रास्ते और उनसे संबंधित सुविधाएं श्रेष्ठ थीं। कम दूरी तक खाद्यान्नों के परिवहन हेतु गाड़ियों का प्रयोग किया जाता था। नदी तटीय नौपरिवहन विशेषतः पश्चिमी तट पर अप्रवाही जल-व्यवस्था का भी संदर्भ मिलता है। लंबी दरी के परिवहन हेत भारवाही पशओं का इस्तेमाल होता था। कछ स्थानों में लंबे मार्गों के परिवहन में सुरक्षा हेतु सशस्त्र रक्षकों का उपयोग किया जाता था। प्रभावशाली स्थानीय व्यक्तियों ने व्यापार की महत्ता समझते हुए नगर-आधारित व्यापार और परक व्यापार को नियमित और नियतकालिक मेलों में प्रोत्साहन दिया। उत्सव के समय मंदिरों की ओर जाने वाले मुख्य मार्गों पर नियमित और नियतकालिक मेलों का आयोजन होता था। इन मेलों का आयोजन समीप के कस्बों के व्यापार-संघों द्वारा किया जाता था और इनकी देखभाल व्यापार-संघ के अध्यक्ष द्वारा की जाती थी जिसे पट्टनस्वामी कहते थे। स्थानीय प्रभावशाली लोगों, जैसे गौडा या नाडु के मखिया के आदेशों पर नगरीय व्यापार को बढावा देने हेत मेलों का आयोजन होता था। 14वीं से 16वीं शताब्दियों के मध्य के साहित्यिक और अभिलेखीय प्रमाण 80 प्रमख व्यापारिक केन्द्रों के अस्तित्व को प्रकट करते हैं। कछ नगर धार्मिक होते थे तो अन्य व्यापारिक और प्रशासनिक केन्द्र होते थे। इन नों। में कई बाजार होते थे, जिनमें व्यापारियों द्वारा व्यवसाय किया जाता था। वे नगरों को किराया अदा करते थे। विशेष वस्तुओं के बाज़ार भी पृथक होते थे। कृषि संबंधी और गैर-कषि संबंधी उत्पादों के बाजार बायें और दायें हाथ के जाति संबधों के अनुरूप अलग-अलग होते थे। तीर्थयात्रियों के लिए पवित्र आहार का व्यवसाय और आनुष्ठानिक कार्यों और पदों के अधिकार की खरीद मंदिर-संबंधित नगरीय-व्यापार के महत्वपर्ण अंग थे।

आन्र्ध के व्यापारियों और शिल्पकारों के संगठनों ने किसी विशेष नगर से घनिष्ठ संबंध बनाए जैसे तेलग के तेलियों और व्यापारियों ने बेरवाडा (कृष्णा जिले में शहर से संबंध स्थापित किए। इन नगरों की आय, परिवहन शुल्क दुकानों और घरों के किराए से होती थी। मंदिर-दस्तावेज व्यापारियों और शिल्पकारों की संपन्नता और प्रतिष्ठा का वर्णन करते हैं। विजयनगर राज्य में एक ऐसी नगरीय-विशेषता थी, जो उस युग के किसी अन्य दक्षिण भारत के राज्य में नहीं थी। राजधानी-शहर अपने परिवेश में बाज़ारों, महलों, मंदिरों, मस्जिदों इत्यादि को अंगीभूत किए हुए था। तथापि यह नगरीय-विशिष्टता 16वीं शताब्दी के मध्य तक पूर्ण रूप से नष्ट हो गई।
    

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