बहमनी साम्राज्य की सामाजिक व्यवस्था और संस्कृति -Takeknowledge
बहमनी साम्राज्य की सामाजिक-संरचना का स्वरूप सार्वभौमिक था जिसमें मुस्लिम, हिंदु, इरानी, ट्रांसऑक्सियन, ईराकी और अबीसीनियन (हब्शी) सम्मिलित थे। 16वीं शताब्दी के प्रारंभ में पूर्तगालियों का आगमन हुआ। अगर हम इसके भाषाई ढांचे पर ध्यान दें तो यह विषम चरित्र अधिक स्पष्ट होता है। फारसी, मराठी, दक्खनी उर्दू (प्रारंभिक उर्द), कन्नड और तेलुगु भाषाएं राज्य के विभिन्न भागों में व्यापक रूप से बोली जाती थीं।
मोटे तौर पर समाज में दो वर्ग थे। निकितीन के अनुसार एक तरफ निर्धन और दूसरी तरफ अमीर थे जो "अतिसमृद्ध" थे। उसका कहना है कि "अमीरों को चांदी के तख्तों पर बिठा कर लाया जाता था, जिनके आगे सोने के आभूषणों से लदे 20 घोड़े होते थे और 300 घुड़सवार तथा 500 पैदल-सिपाही, 10 मशालची साथ-साथ चलते थे।" निकितीन बहमनी वज़ीर, महमूद गावां के वैभव का भी सजीव वर्णन करता है। वह लिखता है कि प्रत्येक दिन उसके साथ 500 व्यक्ति भोजन ग्रहण करते थे। उसके घर की सुरक्षा के लिए ही, प्रतिदिन 100 सशस्त्र व्यक्ति निगरानी करते थे। इसके विपरीत आम जनता निर्धन थी। यद्यपि निकितीन केवल दो वर्गों का वर्णन करता है, एक और वर्ग-व्यापारी वर्ग (तथाकथित मध्यम वर्ग)-भी उस काल में मौजूद था।
सुफी-संतों का बहमनी शासकों द्वारा बहुत सम्मान किया जाता था। प्रारंभ में वे लोग दक्खन में खलजियों और तगलकों के धार्मिक सहायकों के बतौर आए। प्रारंभिक बहमनी राज्य को अपनी सत्ता के लिए जनता द्वारा वैधता प्राप्त करने हेत सफियों के सहयोग की जरूरत पड़ी। बहमनी राज्य में आए सूफियों में से प्रमुखतया चिश्ती, कादिरी और शत्तारी सफी सम्प्रदाय थे। बीदर कादिरी सम्प्रदाय के महत्वपूर्ण केन्द्रों में एक था। शेख सिराजउद्दीन प्रथम सूफी था जिसे राजा की कृपा दृष्टि प्राप्त हुई। चिश्ती संतों को सर्वाधिक आदर प्राप्त था। दिल्ली के प्रसिद्ध चिश्ती संत सैयद मौहम्मद गेसू दराज़ 1402-3 में गलबर्गा आकर बसे। सल्तान फिरोज ने उनकी खानकाह की देखभाल और व्यय के लिए बड़ी संख्या में गांव अनुदान में दिये। लेकिन उसके शासनकाल के अंतिम भाग में दोनों के मध्य मनमुटाव पैदा हुआ क्योंकि गेस दराज ने सल्तान के भाई अहमद का, उसके उत्तराधिकार के लिए पक्ष लिया। इसके कारण अंत में गेसू दराज़ को गुलबर्गा से निष्कासित किया गया।
अफाकियों द्वारा भारी संख्या में बहमनी राज्य में आने से शियाओं को भी फजलुल्लाह के प्रभाव में विशेष स्थान प्राप्त हुआ। अहमद1 द्वारा 30,000 चांदी के टंकों को कर्बला (ईराक) के सैययदों में वितरण के लिये भेजना, उसके शिया मत के प्रति झकाव को प्रदर्शित करता है। अहमद III का सबसे प्रभावशाली वजीर भी एक शिया था।
हिन्दु परम्पराओं और संस्कति का भी बहमनी दरबार में प्रभाव था। सुल्तान फिरोज (13971422) द्वारा विजयनगर के शाही परिवार की एक लड़की के साथ विवाह करने से हिंदु-मस्लिम सांस्कृतिक सौहाद्रता को बढ़ावा मिला। एक किवदंती के अनुसार फिरोज एक बार एक हिंदु फकीर के भेष में विजयनगर भी गया था। उर्स जैसे महत्वपर्ण समारोहों में भी हिंदु प्रभाव देखा जा सकता था। उर्स समारोहों में, जंगम (गुलबर्गा जिले में मध्याल के लिंगायतों का मखिया) समारोह को विशिष्ट हिदू रीति-शंख फूंकना. पुष्प-भेंट । इत्यादि-द्वारा संपन्न करता था। रोचक बात यह थी कि जंगम मुस्लिम चोगा तथा मुस्लिम दरवेश द्वारा पहनी जाने वाली रस्मी टोपी पहनता था।
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