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Showing posts from August, 2019

नरम दल और उनके कार्य

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नरम दल(उदारवादी) अपने पहले चरण (१८८५-१९०५) में कांग्रेस का कार्यक्रम बहुत सिमित था! उसकी मांगें हलके फुल्के संवैधानिक सुधारों आर्थिक सहायता प्रशासकीय पुनर्संगठन तथा नागरिक अधिकारों की सुरच्छा तक सिमित थी! नरम दल की मुख्य मांगें इस प्रकार थी :-  1)प्रांतीय काउंसिल का गठन २)इंडियन सिविल सेवा(आई.सी.एस) की पृच्छा का इंग्लॅण्ड के साथ ही साथ भारत में भी आयोजन 3)न्यायपालिका का कार्य पालिका से पृत्थकीकरण 4)आर्म्स एक्ट को रद्द करना 5)सेना भारियों की कमीशन ऑफिसरों के पद पर नियुक्ति 6)सैनिक व्यय में कमी तथा 7)भारत के सभी भागों में भूमि के स्थाई बंदोबस्त का प्रचलन कांग्रेस ने सरकार द्वारा उठाए सभी महत्वपूर्ण क़दमों और नीतियों पर अपनी राय दी और उसकी गलत नीतियों की आलोचना की तथा उनका विरोध किया! इन मांगों को हर साल दोहराया गया किन्तु सर्कार ने इन पर शायद ही कभी ध्यान दिया हो! पहले बिस वर्ष(१८८५-१९०५) में कांग्रेस के कार्यक्रम में कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुआ! उसकी मुख्य मांगें लगभग वही बानी रही जो उसके पहले तीन या चार अधिवेशनों में पेश की गई थी! कांग्रेस का यह काल नरम दल का युग कहलाता ह

गरम दल और उसके नेता व कार्य

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भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के विभाजन से बने गरम दल :- Historyindiaworld.blogspot.com भारतीय राष्ट्रीय मंच पर बींसवीं शादी के प्रथम दशक में उग्रवाद का उदय अचानक नहीं हो गया था! वास्तव में अप्रत्यछ रूप से सन 1857 के विद्रोह से ही धरे-धीरे इस विचारधारा का विकास होने लगा था! गरम दल का सैद्धांतिक आधार  गरम दल के अनुसार सन 1857 के विद्रोह के राष्ट्रीय उद्देश्य स्वधर्म तथा स्वराज की शापना थे! उदारवादियों(गरम दल) ने जो बुद्धिवाद और पाश्चात्य आदर्शो को अपनाया था उसके कारन वे भारत में जनसाधारण से बहुत दूर चले गए थे! इसलिए अपने उच्च आदर्शों के बावजूद वे जनसाधारण पर अपना प्रभाव जमाने में असफल रहे! यह जरुरी था की कोई वर्ग जनता और राजनैतिक नेतृत्व के बिच की खाई को भरता! सभी पाश्चात्य वस्तुओं की प्रशंसा और उसकी नक़ल करने की प्रवित्ति के स्थान पर उनीसवीं शादी के नवें दशक में के ऐसा आंदोलन चला जिसमे लोगों को अपनी प्राचीन सभ्यता की ओर लौटने के लिए कहा गया! इस प्रकार की भावना दबे टूर पर तो पहले भी थी और सन 1857 में यह अचानक उभर कृ सामने आया! लेकिन पाश्चात्य शिछा प्राप्त समुदाय आमतौर पर भारतीय जीव

पाबना विद्रोह

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                            पाबना विद्रोह दूसरा मुख्य विद्रोह बंगाल में पबना(१८७३-८५) के क्रिशकों ने किया! 1859-73 तक पाबना के कृषकों ने कर में वृद्धि का कोई विरोध नहीं किया और इस अधिक बढ़ी हुई दर पर बिना किसी विरोध के कर देते गए! विद्रोह की जड़ में यह कारण था की जमींदार कृषकों स इ उनकी जमीं पर से उनका अधिकार छीन लेना चाहते थे! अधिकार युक्त किसानों को जबरदस्ती दस्तखत करा कर पत्तेदार बना दिया गया! कृषकों को नए कानूनों के ज्ञान से उन पर हो रहे अत्याचारों का बोध हो गया! कुछ स्थानों में जैसे त्रिपुरा में अनुचित उधारी की भी प्रथा थी! 1873 में पाबना के कृषकों ने 'एग्रेरियन लीग' बनाई गई जो शीघ्र ही पुरे जिले में फ़ैल गई! बहुत सरे अखबारों के द्वारा जैसे 'अमृत बाजार पत्रिका' जो जमींदार समर्थक था लीग का विरोध किया गया! जो बात विचारणीय है वो यह की कृषक ब्रिटिश शासन का विरोध नहीं कर रहे थे! वे कहते थे की उनकी इच्छा 'इंग्लैंड की रानी' का किसान बनने की है! वे अपने सताए जाने का विरोध कर रहे थे न की उधार चुकाने का! वे अपने सुधार के लिए 'रानी को किसान' बनाना चाहते थे!

मोपला विद्रोह 1921

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                           मोपला विद्रोह 1850-1900 के बिच मालाबार में मोपला विद्रोह शुरू हुआ! चूँकि जन्मी जमींदारों को पुलिस कानून और कर अधिकारीयों द्वारा समर्थन मिल रहा था अतएव उन्होंने मोपला कृषकों पर अपनी गिरफ्त बढाई! कृषकों ने जमींदारों और अंगेर्जों के खिलाफ विद्रोह कर दिया! यह एक रोचक तथ्य है की उक्त जो मुख्य रूप से आमिर और गरीब के बिच की लड़ाई थी को आऊप्नवेशिक शासकों ने सांप्रदायिक रूप दे दिया क्योंकि जमींदार हिन्दू और कृषक मुसलमान थे! जमींदारों का आधिकारिक बढ़ता अत्याचार 1880 तक चलता रहा! कृषकों का गाला घोटने के लिए उन्होंने कई विद्रोहियों को जिन्दा जला दिया ताकि उनका उत्साह समाप्त हो जाए! परन्तु इसके विपरीत बदले की भावना कृषको में तेजी से बढ़ गई! 1857 में मोपला कृषकों की ओर से मद्रास सरकार को बेनामी दरखास्त दी गई जिसके कारन जांच शुरू हुई! 1882-85 के बीच पुनः जमींदारों और कृषकों के बीच मनमुटाव बढ़ा और कृषकों ने लूट और आगजनी के साथ-साथ मंदिरों को भी नुक्सान पहुँचाया! इन कारनामों की वजह से इस विद्रोह को जो मुख्य रूप से जमींदार और कृषकों के बीच का वर्ग संघर्ष था हिन्दू विरोधी संघ

नील विद्रोह

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नील विद्रोह 1857 के विद्रोह के बाद जन-आंदोलन समाप्त नहीं हुए! हम देखते हैं की इसके बाद भी बहुत सारे आंदोलन हुए! जिनमे 1859 की नील की क्रान्ति भी प्रमुख है! 1770 में ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नील की खेती शुरू की गई! अंग्रेज काश्तकारों द्वारा जबरदस्ती तथा क़ानूनी तिकड़मों द्वारा किसानों को घाटे पर भी नील उगाने के लिए बाध्य किया जाता था! चूँकि कृषक स्वयं खाने तक के लिए अनाज नहीं उगा पाते थे अतः इससे उनमे बहुत असंतोष पैदा हुआ! 1859 तक हजारों कृषकों ने नील की खेती करने से इंकार कर दिया! उन्होंने अपने संगठन बनाए तथा बागान-मालिकों पर उनके सैनिकों का प्रतिरोध करने लगे! समकालीन अखबार जैसे 'द बंगाली' में विस्तार से इसकी रपट प्रकाशित की गई और बताया गया की विद्रोह सफल रहा! दीनबंधु मित्र ने बंगला में 'नीलदर्पण' लिखा और नील कृषकों की दुर्दशा को उजागर किया! नील विद्रोह के कारण सरकार जांच समिति गठित करने को बाध्य हो गई(१८६०) विद्रोह की वजह से बंगाल में बगीचा प्रथा को काफी नुक्सान पहुंचा और खेतिहरों को बाध्य होकर बिहार जाना पड़ा!

संथाल विद्रोह 1855 ई॰

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संथाल विद्रोह 1855-1857 में हुए वीरभूम बांकुरा सिंघभूम हजारीबाग भागलपुर और मुंगेर के आदिवासी विद्रोह प्रमुख हैं! इन विद्रोहों के भड़कने में औपनिवेहक शासन के स्वरुप की अहम भूमिका है! उत्तरी और पूर्वी भारत से कुछ ऐसे जमींदार और सूदखोरों की चर्चा मिलती है जो आदिवासियों को पूरी तरह अपने चंगुल में दबा कर रखते थे! ये सूदखोर 50% से 500% की दर पर पैसा उधार दिया करते थे! इसके लिए साहूकार दो तरीके अपनाते थे! एक तरफ 'बड़ा बाण' उनसे सामान लेने के लिए और दूसरी तरफ 'छोटा बाण' उनको सामान देने के लिए! वे संथालों की जमीं भी हड़प लेते थे! जमींदारों के बिचौलिए भी निर्दयता से आदिवासियों का शोषण करते थे! यहां तक की हमें बंधुआ मजदूरी और रेल लाइनों पर काम कर रही महिलाओं को अपनी हवस का शिकार बनाने का भी उदाहरण मिलता है! जब विद्रोह शुरू हुआ तो यह प्रमुखतः महाजन और व्यपारियों के खिलाफ था न के अंग्रेजों के! आदिवासियों ने एलान किया की उनके नए भगवान् ने उन्हें आदेश दिया था की वे हर एक भैंस वाले हल के लिए दो आना हर एक गाय वाले के लिए आधा आना की दर से सरकार को कर दे! उन्होंने सूद की दर भी तय

1857 की क्रांति की विफलता का कारण

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अंग्रेजों ने 20 सितम्बर 1857 को दिल्ली पर कब्ज़ा किया! इससे पहले विद्रोहियों को कानपुर आगरा लखनऊ और कुछ अन्य जगहों पर मात खानी पड़ी! पर इन सब पराजयों से विद्रोहियों के जोश में कमी नहीं आई! लेकिन दिल्ली के पतन होते ही उन्हें गहरा आघात लगा! इससे अब स्पष्ट हो गया की अंग्रेजों का ध्यान सबसे अधिक दिल्ली पर क्यों केंद्रित था! और इसके लिए उन्हें काफी जान और माल की हानि उठानी पड़ी! बहादुर शाहको दिल्ली में कैद कर लिया गया और उसके राजकुमारों को पकड़कर क़त्ल कर दिया गया! एक के बाद एक सभी विद्रोही नेताओं की हार होती गई! नाना साहेब कानपुर में पराजित हुए और उसके बाद 1857 के शुरू में नेपाल भाग गए! उनके बारे में उसके बाद कुछ पता नहीं चला! तात्या टोपे मध्य भारत के जंगलों में भाग गए! वहीँ से गुरिल्ला युद्ध जारी रखा! अप्रेल 1857 में उनके एक जमींदार मित्र ने धोखे से उन्हें सुप्तावस्था में गिरफ्तार करवा दिया! उन पर शीघ्र मुकदमा चलाकर 15 अप्रेल 1858 को उन्हें फांसी दे दी गई! झाँसी की रानी 17 जून 1858 को लड़ाई के मैदान में मारी गई! 1859 तक कुंवर सिंह बख्त खाँ बरेली के खान बहादुर खान मौलवी अहमदुल्ला सभी मर

1857 के विद्रोह और मुख्य नेतृत्‍वकर्ता

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27 मार्च 1857 को बैरकपुर में तैनात एक युवा सैनिक मंगल पांडे ने अकेले ही ब्रिटश अधिकारियों पर हमला करके बगावत कर दी! उसे फांसी ;पर लटका दिया गया और इस घटना पर ज्यादा धयान नहीं दिया गया! परन्तु इससे सिपाहियों में फैले असंतोष तथा क्रोध का पता चल गया! इस घटना के एक माह के अंदर 24 अप्रैल को मेरठ में तैनात देशी घुड़सवार सेना के नब्बे लोगों ने चर्बी लगे कारतूसों को इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया! उनमे से 85 को बर्खास्त कर दिया गया! तथा 9 मई को 10 साल के लिए जेल की सजा दी दे दी गई! इस पर शेष भारतीयों सिपाहियों में जोरदार प्रतिक्रिया हुई और अगले दिन 10 मई को मेरठ में तैनात पूरी भारतीय फौज ने वीडरोझ कर दिया! अपने साथियों को मुक्त कराकर तथा ब्रिटिश अधिकारियों को मर कर उन्होंने दिल्ली की और कुच करने का निर्णय लिया! इससे पता चलता है की उनके दिमाग में ब्रिटिश शासन का कोई न कोई विकल्प था! दूसरी बात जिससे यह साफ़ पता चलता है की यह एक महज सिपाही विद्रोही ही नहीं था वह यह की लोगों ने जैसे सिपाहियों के अधिकारियों पर गोली चलाने की आवाज सुनी आस-पास के सैनिक बाजारों को लूटना शुरू कर दिया और अंग्रेजों क

औपनिवेशिक काल के 18वीं 19वीं शदी में कब और कहाँ कहाँ अकाल पड़ थें?

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उपनिवेश का अर्थ है पुराने उद्योगों का विनाश तो क्या इसे कृषिगत उत्पादन में वृद्धि माने! इसका उत्तर सम्भतः नकारात्मक ही निकले! जब हम 1898 से 1947 ई तक की अनाज के प्रति व्यक्ति और प्रति एकड़ उत्पादकता को देखते है तो निश्चित रूप से इसका उत्तर नकारात्मक होता है! जहां तक प्रारंभिक पचास वर्षो की बात है बार-बार पड़ने वाले अकाल-भुखमरी अपनी कहानी स्वयं कहते हैं: 19वी शदी के मध्य से पड़ने वाले कई अकालों ने भारत की अवस्थ दयनीय बना दी! निम्नलिखित आंकड़ों में हमने विभिन्न अकालों को दर्शाया जिसे अंग्रेजी सरकार ने भी स्वीकार किया --  पहला अकाल 1853-1855ई में आयी जिसमे तीन बड़े छेत्र प्रभावित हुए  1) बम्बई प्रेसिडेंडी  2) मद्रास प्रेसिडेंसी और  3) राजपुताना  दूसरा अकाल 1860-1861 ई में आयी जिसमे 4 छेत्र प्रभावित हुए-  1)पंजाब  2)कच्छ  3)राजपुताना और  4)उत्तर प्रदेश  तीसरा अकाल 1862 में केवल एक ही राज्य में पड़ा-  1)दक्क्न  चौथी अकाल 1866-1867 ई में पांच राज्यों में पड़ी-  1) बिहार  2)उड़ीसा  3)उत्तरी मद्रास  4)हैदराबाद और  5)मैसूर  पांचवी अकाल 1868-1870

उपनिवेशवाद की दूसरी अवस्था

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उपनिवेशवाद की दूसरी अवस्था --- यह व्यापार के द्वारा शोषण का काल था और इसे 19 वी शादीमें मुक्त व्यापार का उपनिवेशवाद भी कहा गया है! भारत के अधिकांश भागों पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन स्थापित होने के तुरंत बाद ब्रिटेन में यह निर्धारित करने के लिए की यह नया उपनिवेश किसके हितों की पूर्ति करेगा त्रीव संघर्ष शुरू हो गया! सन 1950 के बाद से ब्रिटेन औद्योगिक पूंजीपतियों ने वास्त इंडिया कम्पनी तथा इसके भारत के शासन के रूपं पर आक्रत्मन प्रारम्भ कर दिया! उन्होंने मांग की भारत में औपनिवेशिक प्रशासन व निति को उनके हितों की पूर्ति की करनी चाहिए जो की ईस्ट इंडिया कंपनी के हितों से बहुत भिन्न थे! उन्हें भारतीय माल में एकाधिकार व्यापार तथा भारतीय आमदनियों पर कंपनी के नियंत्रण से कुछ अधिक प्राप्त नहीं हुआ! वे चाहते थे की भारत उनके यहां के निर्मित माल विशेष रूप से कपड़े के बढ़ते हुए उत्पादन के लिए एक बाजार के रूप में कार्य करे! उन्हें भारत से कच्चे माल और विशेष रूप से कपास व खाद्यान की भी आवश्यकता थी! इसके अतिरिक्त भारत अधिक ब्रिटिश माल तभी खरीद सकता था जब वह अपना निर्यात बढ़ाकर विदेशी मुद्रा प्राप्

उपनिवेशवाद की प्रथम अवस्था

उपनिवेशवाद एक अविच्छिन्न या एकीकृत ढांचा नहीं हैः१ उपनिवेशवाद विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है! औपनिवेशिक देश का दमन व शाशन स्थिर रहता है परन्तु एक अवस्था से दूसरी अवस्था में दमन व शोषण के रूप बदलते रहते है! ये परिवर्तन विभिन्न कारकों से सम्बंधित है उदाहरणार्थ: 1) पूंजीवाद का विश्व व्यवस्था के रूप में एकतिहासिक विकास 2) व्यक्तिगत महानगरीय देश के आर्थिक सामाजिक व राजनितिक विकास के बदले प्रतिमान! 3) विश्व एयवस्था में इसकी बदलती हुई स्थिति 4) और उपनिवेश का अपना ऐतिहासिक विकास उपनिवेशवाद को तीन अलग-अलग अवस्थाओं में बांटा जा सकता हैः१ जो शोषण या अतिरेक विनियोग के विभिन्न रूपों से समबंशित है! फलतः प्र्तेक अवस्था ने औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था समाज व राहय व्यवस्था के दमन के भिन्न प्रतिमानों को निरूपित किया और इसलिए औपनिवेशिक नीतियां राजनितिक व प्रशासकीय संस्थाए विचारधाराए व प्रभाव भिन्न थे तथा औपनिवेशिक जनता की प्रतिक्रियाएं भी भिन्न थीं! यह आवश्यक नहीं की विभिन्न उपनिउवेशों के लिए उपनिवेशवाद की अवस्थाए सामान हो एक स्तरीय हों! अलग-अलग समय में अलग-अलग उपनिवेशों में अलग-अलग अवस्थाएं

उपनिवेशवाद क्या है? और उपनिवेशवाद का क्या अर्थ है?

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उपनिवेशवाद का क्या अर्थ है? क्या यह एक देश द्वारा दूसरे देश पर केवल राजनितिक नियंत्रण है या यह एक देश द्वारा दूसरे देश के आर्थिक दमन की प्रक्रिया को भी निर्दिष्ट करता है? उपनिवेशवाद की व्याख्या विभिन्न विद्वान भिन्न-भिन्न प्रकार से करते हैं? इस पोस्ट में हम उपनिवेशवाद के विभिन्न दृष्टिकोणों तथा साथ ही अन्य सम्बंधित पहलुओं से आपका परिचय करेंगें! 1) बड़ी संख्या में समाजशाडहतरियों राजनितिक वैज्ञानिकों व अर्थशास्त्रियों द्वारा यह विचार प्रस्तुत किया जाता है की औपनिवेशिक समाज मूल रूप से एक परम्परागत समाज था या दूसरे शब्दों में उपनिवेशवाद ने पूर्वे-औपनिवेशिक समाज के मूल सामाजिक-आर्थिक तत्वों को बने रखा! उत्तर-औपनिवेशिक परम्परागत सामाजिक-आर्थिक ढाँचे से आधुनिकीकरण की तरफ बढ़ाने लगा! २)तथापि कुछ उपनिवेशवाद को एक ऐसे परिवर्ती समाज के रूप में देखते हैं जो की आर्थिक सामाजिक व रानीतिक रूप से सेक परम्परागत व पूर्व-औपनिवेशिक समाज से आधुनिक पूंजीवादी समाज में परिवर्तित हो रहा था!  2)तथापि अन्य कई लेखकों का मानना है की उपनिवेशवाद एक दोहरा समाज प्रस्तुत करता जिसमे एक छत्र आधुनिक व पूंजीवादी है ज

महमूद गजनवी द्वारा भारत पर किए गए आक्रमण?

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महमूद गजनवी 10वी से 11वी शदी ई के मध्य बहुत-सी युद्ध जातियों का उद्भव हुआ! ये योद्धा जातियां सैनिक शासक जातियां थी और अंततः इन सभी जातियों क ा एक जाती राजपूत में विलय हो गया! राजपूत शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के राजपुत्र से हुई! जिन चार राजपूत जातियों को इस समय विशेष दर्जा प्राप्त था वे प्रतिहार चालुक्य चौहान और सोलंकी थें! 1) महमूद गजनवी- राजनितिक एवं सैनिक शब्दावली में महमूद गजनवी के आक्रमण वास्तव में दिल्ली सल्तनत के पूर्वगामी थी! सनं 1000इ. में जिस समय शाहिया रहा जयपाल को महमूद गजनवी द्वारा पराजित किया गया था तभी से भारत पर होने वाले उसके आक्रमण प्रति वाश होने लगे! यह सिलसिला उसकी मृत्यु(१०३०) तक चलता रहा! मुल्तान पर अधिकार करने के बाद महमूद ने पंजाब को भी अपने अधीन आकर लिया! बाद में महमूद ने गंगा-यमुना दोआब पर आक्रमण किए! भारत में महमूद के आक्रमण करने का मुख्य उद्देश्य भारत की विशाल सम्पदा थी जिसका बहुत बड़ा अंश नकदी जेवरात और सोने के रूप में मंदिरों में जमा था! इसी कारणवश सनं 1010-1026ई तक महमूद के आक्रमणों का लछ्य थांनेश्वर मथुरा कन्नौज और अंततः सोमनाथ जैसे म

गौरी द्वारा 1192ई से 1206ई तक किए गए आक्रमण?

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तराईन का युद्ध भारत के इतिहास में निर्णायक साबित हुआ! इसने तुर्की सत्ता की स्थापन एके मार्ग को प्रशस्त कर दिया! ठीक इसी समय से राजपूत शक्ति के अपरिवर्तनीय पतन के युग का भी सूत्रपात हो गया! कुछ समय के लिए गौरी वाश के लोगों ने सभी विजिट छेत्रों के प्रशासन को तुरंत अपने हांथों में लेना सुविधाजनक नहीं समझा जहां उन्हें उचित लगा उन्होंने राजपूतों की सत्ता को जारी रहने दिया' अगर ऊनके द्वारा तुर्की सत्ता के प्रभुत्व को स्वीकार कर लिया गया! उदाहरण के तौर पर अजमेर का शासन पृथिवीराज चौहान के पुत्र को सामंत के रूप में सौंप दिया गया! यद्धपि यह जटिल संतुलन स्थानीय शासकों एवं गौर वाश के शासकों के साम्राज्य विस्तार की योजना के मध्य संघर्ष के कारण भंग होता रहता था! कुतुबुद्दीन ऐबक के नेतृत्व में तुर्कों ने अपने राज्य का सभी दिशाओं में छत्रिय विस्तार किया! 1192ई के अंत में हांसी की किलेबंदी करने के बाद वबक ने यमुना नदी के पार ऊपरी दोआब में सैनिक केंद्रों को स्थापित किया! मेरठ एवं बार्न(आधुनिक बुलंदशहर) पर 1192ई कब्ज़ा कर लिया गया! 1193ई में दिल्ली भी उनके अधिकार में आ गयी! दिल्ली की स्थिति तथा

भारत और पाकिस्‍तान का बंटवारा कैसे हुआ?

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  15 th Agust वो दिन जब हम याद करते हैं तो हम भारतीयो के आखों में खुशी के ऑंसु आ जाते हैं! क्योकि वो दिन हम भारतीयो के लिए धुष्ट अंग्रेजो से अपना देश अपनी स्वतंत्रता छीन कर आजादी लेने का दिन था! और हमारे स्वतंत्रता सेनानियो ने अपनी जान पर खेलकर ये दिन छीन लिया हैं! और हम भारतीययों को गुलामी से आजादी दिलाई!  लेकिन ये संभव कैसे हुआ -- तो द्वितीय विश्‍व युद्ध समाप्‍त होने पर ब्रिटिश प्रधान मंत्री क्‍लेमेंट रिचर्ड एटली के नेतृत्‍व में लेबर पार्टी शासन में आई। लेबर पार्टी आजादी के लिए भारतीय नागरिकों के प्रति सहानुभूति की भावना रखती थी।  मार्च 1946 में एक केबिनैट कमीशन भारत भेजा गया, जिसके बाद भारतीय राजनैतिक परिदृश्‍य का सावधानीपूर्वक अध्‍ययन किया गया, एक अंतरिम सरकार के निर्माण का प्रस्‍ताव दिया गया और एक प्रां‍तीय विधान द्वारा निर्वाचित सदस्‍यों और भारतीय राज्‍यों के मनोनीत व्‍यक्तियों को लेकर संघठन सभा का गठन किया गया। जवाहर लाल नेहरू के नेतृत्‍व ने एक अंतरिम सरकार का निर्माण किया गया। जबकि मुस्लिम लीग ने संघठन सभा के विचार विमर्श में शामिल होने से मना कर दिया और पाकिस्‍तान के लिए

सामान्य जानकारी General knowledge

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1. मध्य भारत में भागवत धर्म विकसित होने का प्रमाण किस स्तम्भलेख से मिलता है? उत्तर - वेसनगर के गरुड़ स्तम्भलेख से 2. भारतीय इतिहास के विषय में जानकाई कितने श्रोतों से प्राप्त की जा सकती है? उत्तर -  4 श्रोत हैं  1.धर्मग्रन्थ 2.ऐतिहासिकग्रन्थ 3.विदेहियों का विवरण 4.पुरातत्व-सम्बन्धी साक्ष्य 3. अशोक का शासनकालकाल कब से कब तक था? उत्तर -  273ई.पु. से 236 तक

अशोक के धम्म नीति और प्रमुख शिलालेख एवं उनमे वर्णित विषय हिंदी में /ashok ke dhamm niti or pramukh shilaalekh awam unme warnit wishay in hindi

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 अशोक मौर्य  (273ई•पु•- 2736ई•पु•) अशोक एक अत्यधिक क्रूर शासक था और उसने कई युद्ध में विजय हुआ परन्तु कलिंग युद्ध में हुए नरसंहार को देख कर अशोक का ह्रदय परिवर्तन हो गया और  उसी समय वचन लेता है की में आज के बाद कोई युद्ध नहीं लडूंगा और बौद्ध धर्म को अपनी शेष जीवन का आधार मान कर अहिंसा के रस्ते चल दिया! और इस प्रकार अशोक ने अभिलेखों के माध्यम से अपना सन्देश पूर्ण साम्राज्य पर देने लगा! धम्म के सिद्धांत इस प्रकार से प्रतिपादित किए गए थे की वे सभी समुदायों और धार्मिक सम्रदाय के व्येक्तियों को स्वीकार्य  हो! धम्म निति में अहिंसा पर भी बल दिया गया है! अहिंसा को व्यावहारिक स्वरुप युद्ध एवं विजय अभियान का परित्याग  करके दिया जाना था! अहिंसा का पालन पशुओं की हत्या पर नियंत्रण करके भी किया जाता था! अहिंसा का अर्थ पूर्ण अहिंसा नहीं था! अशोक यह समझता था की अपनी राजनैतिक शक्ति के प्रदर्शन के बिना जंगली आदिम जातियों पर नियंत्रण नहीं रखा जा सकता था! धम्म  निति में कुछ कल्याणकारी कार्य जैसे - वृच्छारोपण कुए खोदना आदि की भी चर्चा की गई है! अशोक ने धर्मानुष्ठान तथा बलि चढाने को अर्थहीन कहकर