उपनिवेशवाद की प्रथम अवस्था
उपनिवेशवाद एक अविच्छिन्न या एकीकृत ढांचा नहीं हैः१ उपनिवेशवाद विभिन्न अवस्थाओं से गुजरता है! औपनिवेशिक देश का दमन व शाशन स्थिर रहता है परन्तु एक अवस्था से दूसरी अवस्था में दमन व शोषण के रूप बदलते रहते है! ये परिवर्तन विभिन्न कारकों से सम्बंधित है उदाहरणार्थ:
1) पूंजीवाद का विश्व व्यवस्था के रूप में एकतिहासिक विकास
2) व्यक्तिगत महानगरीय देश के आर्थिक सामाजिक व राजनितिक विकास के बदले प्रतिमान!
3) विश्व एयवस्था में इसकी बदलती हुई स्थिति
4) और उपनिवेश का अपना ऐतिहासिक विकास
उपनिवेशवाद को तीन अलग-अलग अवस्थाओं में बांटा जा सकता हैः१ जो शोषण या अतिरेक विनियोग के विभिन्न रूपों से समबंशित है! फलतः प्र्तेक अवस्था ने औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था समाज व राहय व्यवस्था के दमन के भिन्न प्रतिमानों को निरूपित किया और इसलिए औपनिवेशिक नीतियां राजनितिक व प्रशासकीय संस्थाए विचारधाराए व प्रभाव भिन्न थे तथा औपनिवेशिक जनता की प्रतिक्रियाएं भी भिन्न थीं!
यह आवश्यक नहीं की विभिन्न उपनिउवेशों के लिए उपनिवेशवाद की अवस्थाए सामान हो एक स्तरीय हों! अलग-अलग समय में अलग-अलग उपनिवेशों में अलग-अलग अवस्थाएं पाई जाती हैं! अलग-अलग देशों में अलग-अलग समय में भिन्न अवस्थाएं विधमान होती है! परन्तु एक अवस्था की विषय वस्तु मोठे तौर पर सामान रहती है चाहे वह जहां भी जिस समय पाई जाए! हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए की उपनिवेशवाद की अवस्था शुद्ध रूप में नहि पायी जाती है और न ही एक अवस्था से दूसरी अवस्था के बिच ससपहत व पूर्ण विच्छेद होता है! अतिरेक विनियोग व शोषण के रूप तथा उपनिवेशवाद के अन्य लछन प्रारंभिक अवस्था से उत्तरकालीन अवस्था में भी बने रहते हैं! तथापि विभिन्न अवस्थाए विशिष्ट प्रमुख विशेषताओं द्वारा निर्दिष्ट की गई हैं!
आधुनिक भारत में उपनिवेशवाद के इतिहास से उपनिवेशवास की आधारभूत विशेषताएं तथा इसकी विभिन्न अवस्थाएं स्पष्ट की जा सकती हैं क्योकि इतिहासकार भारत को एक आदरह उपिवेश के उदाहरण के रूप में मानने के लिए एक मत हैं! करीब 200 साल के अपने लम्बे इतिहास में ब्रिटिश शासन का मूल स्वरुप एक सा नहीं रहा है! विकासशील विश्व पूंजीवाद अर्थव्यवथा में ब्रिटिश स्थिति के बदलते प्रतिमान ने भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद के प्रकृति में परिवर्तन किए जैसे शोषण के रूपों व औपनिवेशिक नीतियों उनके प्रभावों व भारतीय प्रतिक्रियाओं में परिवर्तन!
प्रथम अवस्था-
यह एकाधिकार व्यापार तथा प्रत्यछ विनियोग का काल कहलाता है(अथवा ईस्ट इंडिया कंपनी का शासन कल 1757-1813)! 18वीं शादी के उत्तरार्ध में भरत एक एकधिपत्य व्यापारिक निगम - ईस्ट इंडिया कंपनी --द्वारा अधीन कर लिया गया! इस अवस्था में कंपनी के सो मुख्य लक्ष्य थें!
1) भारत के साथ व्यापार पर एकाधिकार प्राप्त करना! इसका अर्थ की अन्य अंग्रेजी व यूरोपियन व्यापारियों व व्यापारिक कंपनियाँ भारतीय माल को खरीदने व बेचने में मुकाबला ना कर सके! और न ही भारीय व्यापारी ऐसा लार सके! इससे ईस्ट इंडिया कंपनी जितना सस्ता संभव हो सके उतना सस्ते में भारीय माल खरीद सकेगी और जितने अधिक दामों में संभव हो सके विश्व बाजार एम् बेच सकेगी! इस प्रकार भारतीय आर्थिक अतिरेक एकाधिकार व्यापार द्वारा विनियुक्त होता था! ईस्ट इंडिया कंपनी ने ब्रिटिश सरकार को मजबूर किया की वह उन्हें राजकीय अधिकार पात्र के द्वारा भारत व पूर्व के साथ व्यापार में एकाधिकार प्रदान करे तथा इस प्रकार अंग्रेजी प्रतियोगियों को इस व्यापार में हिस्सेदार नहीं बनने दिया! यूरोपियों के ऊपर एकाधिकार प्राप्त करने व स्सभारतीय शासकों को जमीं तथा समुद्र पर लम्बे तथा भीषण युद्ध लाडे! भारतीय व्यापारियों के ऊपर एकाधिकार प्राप्त करने व भारतीय शासकों को अपने व्यापार में हस्तछेप से रकने के लिए तथा बढ़ते हुए राजनीतिक प्रभुत्व और देश के विभिन्न भागों पर नियंत्रण प्राप्त करने के लिए कंपनी ने मुग़ल साम्रराज्य के विघटन का लाभ उठाया! राजनितिक विजय के बाद कम्पनी ने भारतीय बुनकरों को रोजगार दिया! उस स्थिति में वे बाजार की कीमत से काम दाम में कपडा तैयार करने के लिए बाध्य किए गए!
2) इस अवस्था में उपनिवेशवाद का दूसरा मुख्य लक्ष्य राज्य सत्ता पर नियंत्रण द्वारा सरकारी राजस्व को प्रत्यछ रूप से विनियुक्त करना था! ईस्ट इंडिया कंपनी को भारत में समुद्र पर तथा यूरोपीय प्रतिद्वंदियों व भारतीय शासको के खिलाफ युद्ध करने के लिए एवं नौ सैनिक शक्तियों किलों व सेना को अपने व्यापारिक स्थानों के चारों तरफ बनाए रखने आदि के लिए प्रचुर आर्थिक साशन नहीं थे और ना ही कंपनी के हीतों को बसाने के लिए उन्हें प्रयोग की इच्छहक थी! इसलिए अत्यधिक आवश्यक आर्थिक साधन भारत में भारतीय लोगों द्वारा जुटाए जाने थे! इसने भारत में विभिन्न छेत्रों पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा दी!
भारत में आर्थिक साधन किसी और कारण से जुटाने थे! भारतीय माल को खरीदने के लिए भारीय धन की आवश्यकता थी! यह ब्रिटिश माल को भारत में बेचकर या सोने और चांदी का भारत द्वारा निर्यात किया जा सकता था! पहले तरीके का प्रयोग नहीं किया गया क्योंकि ब्रिटिश ऐसा माल नहीं बना सके जिसे भारत भरत में भारतीय उत्पादों की प्रतिस्पर्धा में बेच सके! 19वी शादी के आरम्भ तक ब्रिटिश औधोगिक उत्पादन भारतीय हस्तशिल्प उत्पादन के साथ प्रतिस्पर्धा नहीं कर सका! ब्रिटिश सरकार जो वाणिज्यवाद के सिद्धांतों से अत्यधिक प्रभावित था! ब्रिटेन से सोने व चांदी के निर्यात पर प्रसन्न नहीं थी! सरकारी आय का विनियोग निश्चित रूप से ईस्ट इंडिया कंपनी के लाभ तथा इसके हिस्सेदारों के लाभांश को बढ़ाएगा!
दोनों लक्ष्य व्यापार पर एक्धिकार तथा सरकारी राजस्व का विनियोग पहले बंगाल व सचिन भारत के भागों और फिर शेष वर्षों में सम्पूर्ण भारत पर विजय के साथ बड़ी तीर्व गति से पुरे किए गए थे! ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय व्यापार व हस्तशिल्प उत्पादन पर एकाधिकार नियंत्रण प्राप्त करने के लिए अब अपनी राजनितिक शक्ति का प्रयोग किया! भारतीय व्यापारियों को धीरे-धीरे प्रतिस्थापित तथा बर्बाद कर दिया गया जबकि बुनकर व अन्य शिल्पकार अपना माल काम मूल्यों पर बेचने के लिए या कंपनी के लिए काम करने के लिए बाध्य किए थे! यह ध्यान देने योग्य है की किस अवस्था में ब्रिटिश उत्पादन का भारत में बड़े पैमाने पर आयात नहीं था बल्कि इसका उलटहुआ जैसे भारतीय वस्त्र के निर्यात में बढ़ोतरी हुई आदि! उदाहरणार्थ बुनकर इस अवस्था में ब्रिटिश आयात द्वारा नहीं हुए बल्कि कम्पनी के एकाधिकार के कारण तथा घाटे में कम्पनी के लिए उत्पादन करने के लिए बाध्य किए जाने से उनका शोषण हुआ!
राजनितिक विजय के साथ ईस्ट इंडिया कंपनी ने भारतीय राज्यों के राजस्व पर प्रतेच्छ नियंत्रण प्राप्त कर लिया! इसके अतिरिक्त कंपनी तथा उसके कर्मचारियों ने भारतीय व्यापारियों अभिजात शासक वर्ग शासक व जमींदारों से अवैध रूप से असीम धन खिंच लिया! असल में उपनिवेशवाद की प्रथम अवस्था में लूटने व अतिरेक पर प्रत्येच्छ कब्ज़ा करने का तत्व बहुत मजबूत था! धीरे-धीरे बड़ी मात्रा में अधिक वेतन पाने वाले अधिकारी भारत में नियुक्त किए गए तथा उनका वेतन व पेंशन अतिरेक विनियोग का एक रूप बन गए! भारत की जाने वाली ब्रिटिश नियुक्तियों के लिए ब्रिटेन में और विशेष रूप से कुलीन वर्ग और उच्च कुलीन भूपति वर्ग में तीर्व संघर्ष था!
इस काल में उपनिवेशवाद की एक मुख्य विशेषता यह थी की उपनिवेश में प्रशासन न्यायिक व्यवस्था परिवहन तथ संचार कृधि का औधोगिक उत्पादन के ढंग व्यापार व आर्थिक संगठन के रूपों में(बंगाल में स्थाई व्यवस्था को छोड़कर जो वास्तव में उपनिवेशवाद की दूसरी अवस्था से सम्बंधित थी) कोई मूल परिवर्तन नहीं किए गए थे! और ना ही शिछा व बुद्धिजीवी छत्र तथा सांस्कृतिक व सामाजिक संगठन में कोई परिवर्तन किए गए थे! केवल दो नै शिछणिक संस्थाएं प्रारम्भ की गयी थी -एक बनरस में संस्कृत सिखने के लिए दूसरी कलकत्ता में फ़ारसी व अरबी सिखने के लिए! यहां ताज की क्रिश्चन मिशनरी ब्रिटिश पूंजीपति जो की आधुनिक पश्चिमी विचारों के प्रसार में एक माध्यम का कार्य कर सकते थे भारत में ब्रिटिश अदधिपत्य के छेत्र से बाहर रखे गए! केवल
1) मिलिट्री संगठन व तकनीक जोकि समकालीन स्वतंत्र भारतीय शासक भी अपनी सशस्त्र सेनाओं से सन्निविष्ट कर रहे थे! तथा
2) प्रशासन में राजस्व एकत्र करने के ढाँचे में ऊपरी पद पर ही परिवर्तन किए गए थे की इसे कम्पनी के लिए अधिक उपयुक्त व लाभकारी बनाया जा सके!
इस अवस्था में ब्रिटिश शासन परम्परागत भारतीय साम्राज्यों से बहुत अधिक भिन्न नहीं था क्योंकि वे भूमि राजस्व एकत्रित में आस्था रखते थे!
ऐसा क्यों था? इतने कम परिवर्तन किए गए थे? क्योंकि इस अवस्था में उपनिवेशवाद के दोनों मूल लच्छों को भारत में मूल सामाजिक-आर्थिक प्रशासनिक परिवर्तन करने की आवश्यकता नहीं थी! प्रथम अवस्था थी- उपनिवेशवाद उसके विद्धमान आर्थिक सांस्कृतिक सामाजिक व राजनितिक ढाँचे पर अध्यारोपित किया जा सकता था! ब्रिटिश शासकों ने अपने देशी भारतीय पुरवधिकारियों से अधिक गहराई से गांवों में प्रवेश करने की आवश्यकता महसूस नहीं की जब तक की उनको भूराजस्व एकत्र करने पर आय परम्परागत मशीनरी द्वारा सफलतापूर्वक मिलती रहती थी! इसलिए भारत के विषमान अर्थिक व राजनितिक ढाँचे और प्रशासनिक व सामाजिक संगठन तथा सांस्कृतिक व औपचारिक गठन को अस्त-गस्त करने की कोई आवश्यकता नहीं थी!
यह परिवर्तन का आभाव प्रशासकों की विचारधारा में भी प्रतिबिम्बित था! परम्परागत भारतीय सभ्यता धर्म कानून जाती-प्रथा पारिवारिक संरचना आदि की आलोचना करने की कोई आवश्यकता अनुभव नहीं की गई क्योंकि उपनिवेषिक शोषण की उस अवस्था में वे बाधाओं के रूप में नहीं देखे गए थे! उनका सहानुभूतिपूर्वक समझने की आवश्यकता थी ताकि राजनितिक नियंत्रण व अर्थिक शोषण भारतीयों को धार्मिक समाजिक व सांस्कृतिक विचारों का विरोध किए बिना सरलता से आगी बढ़ सके!
इस काल ने बड़ी मात्रा में भारत से धन निष्कासन को प्रभावित किया! ब्रिटेन की ायशोगीक क्रान्ति के लिए धन की व्यवस्था काने में इस धन ने महत्वपूर्ण भूमिका निभाई! उस समय भारत से निष्कासित धन ब्रिटेन की राष्ट्रीय आय का 2से 3% भाग था!
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