उपनिवेशवाद की दूसरी अवस्था

उपनिवेशवाद की दूसरी अवस्था ---



यह व्यापार के द्वारा शोषण का काल था और इसे 19 वी शादीमें मुक्त व्यापार का उपनिवेशवाद भी कहा गया है! भारत के अधिकांश भागों पर ईस्ट इंडिया कम्पनी का शासन स्थापित होने के तुरंत बाद ब्रिटेन में यह निर्धारित करने के लिए की यह नया उपनिवेश किसके हितों की पूर्ति करेगा त्रीव संघर्ष शुरू हो गया! सन 1950 के बाद से ब्रिटेन औद्योगिक पूंजीपतियों ने वास्त इंडिया कम्पनी तथा इसके भारत के शासन के रूपं पर आक्रत्मन प्रारम्भ कर दिया! उन्होंने मांग की भारत में औपनिवेशिक प्रशासन व निति को उनके हितों की पूर्ति की करनी चाहिए जो की ईस्ट इंडिया कंपनी के हितों से बहुत भिन्न थे! उन्हें भारतीय माल में एकाधिकार व्यापार तथा भारतीय आमदनियों पर कंपनी के नियंत्रण से कुछ अधिक प्राप्त नहीं हुआ! वे चाहते थे की भारत उनके यहां के निर्मित माल विशेष रूप से कपड़े के बढ़ते हुए उत्पादन के लिए एक बाजार के रूप में कार्य करे! उन्हें भारत से कच्चे माल और विशेष रूप से कपास व खाद्यान की भी आवश्यकता थी! इसके अतिरिक्त भारत अधिक ब्रिटिश माल तभी खरीद सकता था जब वह अपना निर्यात बढ़ाकर विदेशी मुद्रा प्राप्त करे! ईस्ट इंडिया कम्पनी के लाभांशों को ताकत के बल पर प्राप्त करने के लिए तथा ब्रिटिश व्यापारियों के लाभों एवं ब्रिटिश अधिकारियों की कमाई और क्पेंशन ब्रिटेन को हस्तांतरित करने के लिए भी अधिक निर्यात की आवध्यकता थी! 

परन्तु भारत क्या निर्यात कर सकता था? वर्षों से अंग्रेज भारतीय वस्त्रों को ब्रिटेन में आयात होने के इच्छुक नहीं थे! और बाद में उनका निर्यात लाभकारी नहीं था! भारत से इन निर्यातों में केवल कृषि का कच्चा माल तथा अन्य अनिर्मित कच्चा माल था! दूसरे शब्दों में ब्रिटिश औद्योगिक पूंजीपतियों की सुविधा के अनुकूल होने के लिए भारत में ब्रिटिश उपनिवेशवाद को अपनी दूसरी अवस्था में प्रवेश करना चाहिए! भारत ब्रिटेन का अधीनस्थ व्यापारिक भागीदार बनना चाहिए एक ऐसे बाजार के रूप में जिसका शोषण हो सके तथा एक ऐसे अधीन उपनिवेश के रूप में जो ब्रिटेन की आवश्यकतानुसार कच्चा माल व खाद्य पदार्थ भेजे व बनाया करे! भारत की आर्थिक बचत ऐसे व्यापार के माध्यम से विनियोग होनी थी जो असमानता पर आधारित था! परिणामसरूप ब्रिटेन ने आइए माल बनाया व निर्यात किया जो की कारखानों में विकसित तकनीक व काम श्रम शक्ति का प्रयोग करके बने गया था इसमें उत्पादकता व वेतन का स्टार बहुत ऊंचा था! दूसरी तरफ भारत ने उत्पादन के पिछड़े हुए तरीकों से अत्यधिक श्रम शक्ति का प्रयोग करते हुए कृषि सम्बन्धी कच्चा माल बनाया जो की काम उत्पादकता व काम वेतन का कारण बना! श्रम का यह अंतर्राष्ट्रीय विभाजन भारत के लिए न केवल अत्यंत प्रतिकूल था बल्कि अप्राकृतक व बनावटी थी तथा औपनिवेशिक शासन द्वारा बल पूर्वक प्रारम्भ व कायम रखा गया था!

परिवर्तन की शुरुआत सन 1763 ई के रेगुलेटिंग एक्ट तथा सन 1784 ई के पिट्स इंडिया एक्ट के पास होने के साथ जो हुई जो की ब्रिटिश शासक वर्गों में प्रारंभिक रूप से तीर्व संघर्ष का परिणाम थे! सन 1789 ई के बाद फ्रेंच क्रांतिकारी युद्धों ने ईस्ट इंडिया कंपनी को कुछ रहत और सुरछा प्रदान की! परन्तु कंपनी धीरे-धीरे आधार खोने लगी थी! सन 1813 ई में जब दूसरा चार्टर एक्ट पास किया गया तब कंपनी भारत में अपनी अधिकतर राजनितिक व स आर्थिक शक्ति खो चुकी थी! अब वास्तविक शक्ति ब्रिटश सरकारर के पास थी जिसने ब्रिटिश पूंजीपतियों के सामूहिक हितों के लिए भारत पर शासन किया!

भारत अपनी विधमान आर्थिक राजनितिक प्रशासनिक तथा सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था ने नए तरीके से शोषित नहीं किया जा सकता था! इसलिए इस व्यवस्था को भिन्न-भिन्न करना तथा पूर्ण रूप से बदलना तह१ ब्रिटिश भारतीय सरकार ने 1813 के बाद ऐसा करना प्रारम्भ किया! आर्थिक छेत्र में इसका अर्थ भारत की औपनिवेशिक अर्थव्यवस्था को ब्रिटिश व विश्व पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के साथ जोड़ना था! इसका मुख्य यंत्र मुक्त व्यापार को प्रारम्भ करना था! भारत में सभी आयात कर या तो पूर्ण रूप से हटा दिए गए या बहुत काम दिए कर गए! इस प्रकार ब्रिटिश उत्पादों के भारत प्रवेश पर कोई रोक-टोक नहीं रही! भारत में चाय कोफ़ी तथा निल बागानों व्यापार परिवहन खान व अधिनिक उद्योग विकसित करने के लिए ब्रिटिश पूंजीपतियों को बिना रोक-टोक प्रवेश की अनुमति दी गयी थी! ब्रिटिश भारतीय सरकार ने इन पूंजीपतियों को सक्रीय राज्य सहायता दी! 

स्थाई तथा रैयतवारी बंदोबस्त व्यवस्थाओं के माध्यम से भारत के कृषि सम्बन्धी ढाँचे को पूंजीवादी दिशा में परिवर्तित करने के लिए कोशिश की गई थी! बड़ी मात्रा में आयात व उनके आतंरिक विक्रय के लिए अधिक मात्रा में कच्चे माल का निर्यात करने एवं देश में लम्बी दुरी के बंदरगाहों पर उनके डंगरह के लिए एक सस्ती व आसान व्यवस्था जो आवश्यकता थी! ऐसी व्यवस्था के बिना भारत बड़ी मात्रा में विदेशी व्यापार के लिए नहीं खोला जा सकता था इसलिए सरकार ने नदियों व नहरों का विकास किया नदियों में वाष्प-चालित जहाः चलाने के लिए उत्साहित किया और सड़के बधाई! इन सबसे अधिक 19वी शादी के उत्तरार्ध में इसने भारत के बड़े शहरों व बाज़ारों को बंदरगाहों स इ जोड़ने वाली रेलवे लाइन बिछाने के लिए प्रोत्साहित किया और आर्हतिक सहायता दी! 1905 तक करीब 45000की.मी. रेलवे लाइन बन चुकी थी इसी प्रकार आर्थिक लें-दें को आसान बनाए के लिए आधुनिक डाटा व टेलीग्राफ व्यवस्थ को अधिक विकसित किया गया! 

प्रशासनिक छेत्र में अब बहुत से परिवर्तन लाए गए! प्रशासन अधिक विस्तृत व व्यापक बनाया गया अब यह देश के गाँव व दूरस्थ छेत्रों तक पंहुचा जिससे ब्रिटिश माल इसके भीतरी व दूरस्थ गाँवों में पहुँच सके और वहाँ भी कृषि--उत्पादन प्राप्त किया जा सके! पूंजीवादी व्यापारिक संबंधों को बढ़ावा के लिए तथा व कानून व्यवस्था पर्सनल लो जिसमे विवाह व उत्तराधिकार से सम्बंधित कानूनों से सम्बंधित परिवर्तन अधिकांश रूप से अछूत दिए गए क्योंकि अर्थव्यवस्था के औपनिवेषिक परिवर्तन को यह किसी भी रूप से प्रभावित नहीं कर रहे थे! 

इसके अतरिक्त 1830 व 1840 में भारत में अंग्रेजों न एफआरसी के स्थान पर राजभाषा का स्थान ले लिया था! 16 मार्च 1835 के लार्ड विलियम बैंटिक के प्रस्ताव में कहा गया 'शिछा के लिए नियुक्त कोष केवल अंग्रेजी शिच्छा मे अच्छी तरह से प्रयोग किया जाएगा!' आधुनिक शिछा अब मौलिक रूप से फैली हुई प्रशाशनिक मशीनरी बनाने के लच्छ्य से प्रारम्भ की गई थी! परन्तु भारत के समाज और संस्कृति को बदलने में इससे भी आशा की गई थी! इस परिवर्तन की दो कारणों से आवश्यकता थी! इससे आशा की गई  :--
1)परिवर्तन व बिकास का वातावरण बनाए की 
2)शासकों के प्रति वफादारी की संस्कृति पैदा करने की! 

यह ध्याम देने योग्य है की किसी काल में लगभग अनेक भारतीय बुद्धिजीवियों जैसे राजा राम मोहन राय ने विभिन्न कारणों से और मुख्य रुप से राष्ट्रीय पुर्नरुत्थान व स्वशासन की कलाओं में प्रशिछण देने के लिए विचार किया! इस समय ब्रिटेन दिया! भारतीय लोगों को प्रजातंत्र व स्वशासन की कलाओं में प्रशिछण देने के लिए विचार किया! इस समय ब्रिटेन संसार की कार्यशाला था - तीव्रगति से औद्योगिक देश केवल यही था! परिणामश्वरूप ब्रिटेन में बहुतों का यह विश्वास था की भारत के साथ इस रूप में व्यापार बनाए रखा जा सकता चाहे ब्रिटेनभारत पर अपना प्रत्यछ राजनितिक व प्रशासकीय नियंत्रण हटा ले जब तक वहाँ कानून व्यवस्था मुक्त व्यापार तथा अनुबंध सुरछित बने हुए! यहां तक की उदार साम्राज्य्वादियों ने भी विश्वास किया की इन गुणों को प्राप्त करने में भारतीयों को सो या अधिक वर्ष लगेंगे और इसलिए आने वाली शताब्दियों के लिए ब्रिटिश शासन बनाए रकः जाना चाहिए! 

यदि भारत के सामाजिक-आर्थिक ढाँचे को मूलतः परिवर्तित करना था तो इस विद्धमान संस्कृति व सामाजिक संगठन को अनुपयुक्त व पतनशील घोषित करना था! 

भारतीय संस्कृति व समाज अब तीव्र आलोचना के विषय थे! तथापि इस आलोचना में कोई नस्लवाद सम्मिलित नहीं था क्योंकि साथ-साथ यह भी माना गया की भारतीय धीरे-धीरे यूरोपीय स्टार तक उठाए जा सकते हैं! 

इस अवस्था में अतिरेक धन की निकासी के प्रारंभिक रूप बने रहे!यही नहीं बल्कि महंगा प्रशासन और आर्थिक  परिवर्तन के लिए प्रयत्न भी करारोपण में मनमानी बढ़ोतरी किसानो पर बोझ का कारण बानी! सैनिक तथा नागरिक प्रशासन को बने रखने के लिए तथा रेलवे निर्माण के लिए धन की कमी के कारन और भूमि करों की अपनी सीमाओं के कारण अओप्निवशीक शासन निरंतर आर्थिक अभाव में रहा! फलतः अन्य छ्हेत्रों में आधुनिकीकरण का रूप अंशतः अनुपात में काम कर दिया गया!

इस अवस्था में ब्रिटिश पूंजीवाद के विकास में भारत ने निर्णायक भूमिका अदा की! ब्रिटिश उद्योग विश्वस रूप से वस्त्र निर्यात पर बहुत निर्भर थे! 1860-80 के दौरान भारत ने ब्रिटिश निर्यात का 10 से 12% और ब्रिटेन के वस्त्र निर्यात का करीब 20% आत्मसात कर लिया! 1850 के बाद भारत भी इंजन डिब्बों रेल तथा अन्य रेलवे सामानों का एक मुख्य आयातकर्ता था! इसके अतिरिक्त एशिया और अफ्रीका में ब्रिटिश उपनिवेशवाद फैलने में भारतीय सेना ने महत्पूर्ण भूमिका निभाई! इस अवस्था में शुरू से अंत तक भारतीय धन व पूंजी का ब्रिटेन द्वारा निष्कासन जारी रहा! 

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