औपनिवेशिक काल के 18वीं 19वीं शदी में कब और कहाँ कहाँ अकाल पड़ थें?
उपनिवेश का अर्थ है पुराने उद्योगों का विनाश तो क्या इसे कृषिगत उत्पादन में वृद्धि माने! इसका उत्तर सम्भतः नकारात्मक ही निकले! जब हम 1898 से 1947 ई तक की अनाज के प्रति व्यक्ति और प्रति एकड़ उत्पादकता को देखते है तो निश्चित रूप से इसका उत्तर नकारात्मक होता है! जहां तक प्रारंभिक पचास वर्षो की बात है बार-बार पड़ने वाले अकाल-भुखमरी अपनी कहानी स्वयं कहते हैं:
19वी शदी के मध्य से पड़ने वाले कई अकालों ने भारत की अवस्थ दयनीय बना दी! निम्नलिखित आंकड़ों में हमने विभिन्न अकालों को दर्शाया जिसे अंग्रेजी सरकार ने भी स्वीकार किया --
पहला अकाल 1853-1855ई में आयी जिसमे तीन बड़े छेत्र प्रभावित हुए
1) बम्बई प्रेसिडेंडी
2) मद्रास प्रेसिडेंसी और
3) राजपुताना
दूसरा अकाल 1860-1861 ई में आयी जिसमे 4 छेत्र प्रभावित हुए-
1)पंजाब
2)कच्छ
3)राजपुताना और
4)उत्तर प्रदेश
तीसरा अकाल 1862 में केवल एक ही राज्य में पड़ा-
1)दक्क्न
चौथी अकाल 1866-1867 ई में पांच राज्यों में पड़ी-
1) बिहार
2)उड़ीसा
3)उत्तरी मद्रास
4)हैदराबाद और
5)मैसूर
पांचवी अकाल 1868-1870 में भी पांच राज्यों में पड़ी-
1)मध्य प्रांत( आज का मध्य प्रदेश)
2)राजस्थान
3)बम्बई प्रेसिडेंसी
4)बंगाल के कुछ छेत्र
5)बिहार
छठीं अकाल 1876-78 ई में भी पांच राज्यों में पड़ी-१)उत्तर प्रदेश
2)बम्बई प्रेसिडेंसी
3)मैसूर
4)हैदराबाद
5)मद्रास प्रेसिडेंसी
सांवीं अकाल में केवल दो राज्यों में 1880-1889 में पड़ी-
1)उड़ीसा
2)बिहार
आंठवी अकाल 1896-97 में चार राज्यों में पड़ी-
1) मध्य प्रान्त
2) राजपुताना
3) बम्बई प्रेसिडेंसी
4) गुजरात
नौवीं अकाल 1905-1906 तक केवल एक राज्य में पड़ी-
1) बम्बई
दसवीं अकाल 1906-1907 में भी केवल एक राज्य में पड़ी-
1) बिहार
ग्यारहवीं अकाल 1907-1908 में दो राज्यों में पड़ी-
1) उत्तर प्रदेश
2) मध्य प्रदेश
इन आंकड़ों में कुछ देशी राज्यों का समावेश किया गया है और उन छेत्रों के नामकरण में हुए बदलावों के कारण कुछ जगह(उत्तरप्रदेश मध्यप्रदेश) वर्तमान राज्यों के नाम का उल्लेख किया गया है! एक आधिकारिक अनुमान के अनुसार इन अकालों में एक करोड़ 52 लाख व्यक्तिओं को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा और 29.7 करोड़ लोग इन विभिन्न अकालों से प्रभावित रहे!
यह बड़ी संख्या इस बात की लगातार संकट की अवस्था बानी रही! निश्चित रूप से इसका ताटकसालिक कारण सूखा और फसल की बर्बादी रहा लेकिन इसकी जड़ें वहाँ हैं जिसे खेतिहर उत्पादन की 'सामान्य दर' कहा जाता है! कृषि तकनीक में स्थिरता प्रति एकड़ पैदावार बढ़ने में निवेश की असफलता राजस्व दलालों द्वारा कृषि योग्य श्रोतों का दोहन और महाजन तथा कृषि वस्तुओं के व्यापारी भी बहुत महत्वपूर्ण पहलु थे! सिंचाई एवं अन्य विकासशील निवेशों में सरकार का अत्यल्प निवेश और 1920 के बाद से जनसंख्या में तीव्र वृद्धि भी औपनिवेशिक कृषक ' नियमितता' बनाने में जिम्मेदार रही है! इस खाद्द्यान्न आपूर्ति के मामले में सामान्य अवस्था का एक महत्वपूर्ण सूचक भारत में खडध्यांन की प्रति व्यक्ति उपलब्धता है! इस सम्बन्ध में 1901 से 1943 तक की अवधि के तीन आकलन हमारे पास उपलब्ध हैं! ब्रिटिश भारत के लिए इन वर्षों में जॉर्ज ब्लिं के अनुमान या आकलन के अनुसार प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 0.23 तन से घटाकर 0.16 तन रह गयी! शिव-सुब्रमण्यम के अनुमान के अनुसार सम्पूर्ण अविभाजित भारत में यह गिरावट 0.2 तन स इ 0.14 तक हुई! एलेन हेस्टन के अनुसार यह गिरावट 0.17 टन(१९०१) से 0.16 टन(१ 946) रही! इस प्रकार ये सरे आकलन यह दर्शाते हैं की खाद्यान्न आपूर्ति में ब्रिटिश शासन के पचास वर्षों में गिरावट आयी हालांकि ये आंकड़े एक दूसरे से अलग-अलग हैं!
इन आंकड़ों में कुछ देशी राज्यों का समावेश किया गया है और उन छेत्रों के नामकरण में हुए बदलावों के कारण कुछ जगह(उत्तरप्रदेश मध्यप्रदेश) वर्तमान राज्यों के नाम का उल्लेख किया गया है! एक आधिकारिक अनुमान के अनुसार इन अकालों में एक करोड़ 52 लाख व्यक्तिओं को अपने जीवन से हाथ धोना पड़ा और 29.7 करोड़ लोग इन विभिन्न अकालों से प्रभावित रहे!
यह बड़ी संख्या इस बात की लगातार संकट की अवस्था बानी रही! निश्चित रूप से इसका ताटकसालिक कारण सूखा और फसल की बर्बादी रहा लेकिन इसकी जड़ें वहाँ हैं जिसे खेतिहर उत्पादन की 'सामान्य दर' कहा जाता है! कृषि तकनीक में स्थिरता प्रति एकड़ पैदावार बढ़ने में निवेश की असफलता राजस्व दलालों द्वारा कृषि योग्य श्रोतों का दोहन और महाजन तथा कृषि वस्तुओं के व्यापारी भी बहुत महत्वपूर्ण पहलु थे! सिंचाई एवं अन्य विकासशील निवेशों में सरकार का अत्यल्प निवेश और 1920 के बाद से जनसंख्या में तीव्र वृद्धि भी औपनिवेशिक कृषक ' नियमितता' बनाने में जिम्मेदार रही है! इस खाद्द्यान्न आपूर्ति के मामले में सामान्य अवस्था का एक महत्वपूर्ण सूचक भारत में खडध्यांन की प्रति व्यक्ति उपलब्धता है! इस सम्बन्ध में 1901 से 1943 तक की अवधि के तीन आकलन हमारे पास उपलब्ध हैं! ब्रिटिश भारत के लिए इन वर्षों में जॉर्ज ब्लिं के अनुमान या आकलन के अनुसार प्रति व्यक्ति खाद्यान्न उपलब्धता 0.23 तन से घटाकर 0.16 तन रह गयी! शिव-सुब्रमण्यम के अनुमान के अनुसार सम्पूर्ण अविभाजित भारत में यह गिरावट 0.2 तन स इ 0.14 तक हुई! एलेन हेस्टन के अनुसार यह गिरावट 0.17 टन(१९०१) से 0.16 टन(१ 946) रही! इस प्रकार ये सरे आकलन यह दर्शाते हैं की खाद्यान्न आपूर्ति में ब्रिटिश शासन के पचास वर्षों में गिरावट आयी हालांकि ये आंकड़े एक दूसरे से अलग-अलग हैं!
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