पाबना विद्रोह

                           पाबना विद्रोह
दूसरा मुख्य विद्रोह बंगाल में पबना(१८७३-८५) के क्रिशकों ने किया! 1859-73 तक पाबना के कृषकों ने कर में वृद्धि का कोई विरोध नहीं किया और इस अधिक बढ़ी हुई दर पर बिना किसी विरोध के कर देते गए! विद्रोह की जड़ में यह कारण था की जमींदार कृषकों स इ उनकी जमीं पर से उनका अधिकार छीन लेना चाहते थे! अधिकार युक्त किसानों को जबरदस्ती दस्तखत करा कर पत्तेदार बना दिया गया!

कृषकों को नए कानूनों के ज्ञान से उन पर हो रहे अत्याचारों का बोध हो गया! कुछ स्थानों में जैसे त्रिपुरा में अनुचित उधारी की भी प्रथा थी! 1873 में पाबना के कृषकों ने 'एग्रेरियन लीग' बनाई गई जो शीघ्र ही पुरे जिले में फ़ैल गई! बहुत सरे अखबारों के द्वारा जैसे 'अमृत बाजार पत्रिका' जो जमींदार समर्थक था लीग का विरोध किया गया! जो बात विचारणीय है वो यह की कृषक ब्रिटिश शासन का विरोध नहीं कर रहे थे! वे कहते थे की उनकी इच्छा 'इंग्लैंड की रानी' का किसान बनने की है! वे अपने सताए जाने का विरोध कर रहे थे न की उधार चुकाने का! वे अपने सुधार के लिए 'रानी को किसान' बनाना चाहते थे!

कुछ तत्थ्यों से हमें पता चलता है की शुरू-शुरू में औपनिवेशिक शासन कृषकों का समर्थक रहा तथा उन पर जमींदारों के अत्याचार के मामलो में कृषकों का पछ लिया! जैसे-जैसे आंदोलन आगे बढ़ा और संगठित होने के नए तरीके सामने आने लगे कृषकों ने जमींदारों की असंवैधानिक मांगों के खिलाफ आवाज उठाई! कल्याण कुमार गुप्त ने विद्रोह के क़ानूनी पछ की चर्चा करते हुए बताया है की हिंसा की वारदात बहुत काम थी और कृषक मुख्यतः अपनी संपत्ति बचाने के लिए ही कार्य कर रहे थे!
जैसे-जैसे विद्रोह बढ़ता गया जमींदार भी बदला लेने का उपाय करने लगे! कृषकों में मुख्य रूप से मुसलमान होने के कारण (करीब 2/3 कृषक और 70% मुसलमान थे) जमींदारों और अंग्रेजों ने इस इ सांप्रदायिक दंगे का नाम दे दिया!

1873 से करीब एक दशक तक पाबना विद्रोह ने जमींदारों द्वारा शोषण को कुछ हद तक थामे रखा! धीरे-धीरे विद्रोह ढाका राजशाही बाकरगंज फरीदपुर त्रिपुरा और बोगरा में भी फ़ैल गया! 

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