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Showing posts from September, 2019

बाबर के आक्रमण के पूर्व संध्या पर भारत मे राजनैतिक स्थिति कैसे थी -Takeknowledge

तुगलक शासन के पतन के बाद पन्द्रहवी शदी का पूर्वार्द्ध राजनैतिक अस्थिरता का दौर था! सैय्यद(1414-1451) तथा लोदी(1451-1526) शासक दोनो ही विनाशक  शक्तियो का सामना करने  मे असफल रहे। कुलीन वर्ग अवसर प्राप्त होते ही विरोध एवं विद्रोह करते। उत्तर पश्चिम प्रांतों में व्याप्त राजनीतक अराजकता ने केन्द्र को कमजोर किया। अब हम भारत के विभिन्न भागों में घटित घटनाचक्र का विवरण करेंगे।  मध्य भारत में तीन राज्य थे- गुजरात, मालवा एवं मेवाड़। किंतु मालवा के सुलतान महमूद खिलजी द्वितीय की शक्ति का पतन हो रहा था। गुजरात मुजफ्फर शाह के अधीन था!  जबकि मेवाड़ सिसोदिया शासक राणा सांगा के अधीन सबसे अधिक शक्तिशाली राज्य था। मालवा के शासकों पर निरंतर लोदी मेवाड़ एवं गुजरात के शासको का दबाव था क्योंकि यह न केवल एक उपजाऊ क्षेत्र एवं हाथियों की आपूर्ति का महत्वपूर्ण स्रोत था आपितू इस क्षेत्र से होकर गुजरात के बंदरगाहों को महत्वपूर्ण मार्ग गुजरता था। अतः यह १ लोदी  शासकों के लिए एक महत्वपर्ण क्षेत्र था। इसके अतिरिक्त यह गुजरात एवं मेवाड़ के शासकों के लिए लोदी शासकों के विरुद्ध मध्यवर्ती राज्य का राज्य कार्य कर स

लोदी साम्राज्य की अर्थव्यवस्था कैसी थी -Takeknowledge

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    समकालीन लेखक सिकन्दर लोदी की इस बात के लिए प्रशंसा करते हैं कि उसने आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता बढाई और इनका दाम कम रखने में सफलता प्राप्त की। शेख रिजकुल्लाह मुश्ताकी (वाकयात-ए मश्ताकी) के अनुसार अनाज, कपड़े, घोड़े, भेड़ें, सोना और चांदी कम मूल्य पर और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे। समग्रता में पूरी अर्थव्यवस्था को समझने के लिए इसके आधारभूत तत्वों पर विस्तार से विचार-विमर्श करना होगा।     कृषीय ढांचा उस समय की राजनीतिक व्यवस्था कृषीय उत्पादन के अधिशेष में राज्य के हिस्से पर निर्भर करती थी।सुल्तान सिकन्दर लोदी ने एक  व्यवस्थित विकासोन्मख भू-राजस्व नीति बनायी। यह नीति उसने अपने राज्य का भोगालिक प्रकृति को मददेनजर रखते हुए अपनायी। चूँकि उसका राज्य चारो ओर से जमीन से ही घिरा था, खेती के विस्तार से प्राप्त अधिक उपज ही उसके वित्तीय संसाधन को बढ़ा सकती थी! बहुत सी अनजुती जमीन पड़ी हुई थी!और अगर खेतिहरों को इसे जोतने से प्राप्त होने वाले अपेक्षित मुनाफों का विश्वास दिलाया जाता तो वे इसे जोत सकते थे। कृषि के विस्तार के लिए कृषकों को प्रोत्साहित करने हेतु सुल्तान ने प्रशासनिक व्य

लोदी वंश की प्रशासन व्यवस्था कैसी थी -Takeknowledge

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    एक सुदृढ़ प्रशासनिक व्याख्या की स्थापना का श्रेय सुल्तान सिकन्दर लोदी को जाता है । मुक्तियों और वालियों (राज्याध्यक्षों) के हिसाब-किताब को जांचने के लिए उसने लेखा-परीक्षण की प्रथा आरंभ की। सबस पहले 1506 में जौनपुर के गवर्नर मबारक खां लोदी (तुजी खैल) के हिसाब-किताब की जांच हुई। थी। उसके हिसाब-किताब में गड़बड़ी पायी गयी और उसे बर्खास्त कर दिया गया। इसी प्रकार भ्रष्टाचार के आरोप में दिल्ली के प्रशासक गैर-अफगान पदाधिकारी ख्वाजा असगर को कैदखाने में डाल दिया गया। साम्राज्य की स्थिति से अपने को पूर्ण अवगत रखने के लिए सुल्तान ने गुप्तचर व्यवस्था को पुनर्संगठित किया। परिणामस्वरूप सल्तान की अप्रसन्नता के भय से सरदार आपस में डरते थे। आम जनता की भलाई के लिए राजधानी और प्रांतों में कल्याणकारी केंद्र खोले गये थे, जहां अनाथ और विकलांग लोगों की सहायता की जाती थी। ये कल्याणकारी केंद्र जरूरतमंदों को वित्तीय सहायता दिया करते थे। पूरे साम्राज्य में विद्वानों और कवियों को संरक्षण दिया जाता था और शिक्षण संस्थानों को वित्तीय सहायता प्रदान की जाती थी। उसने सरकारी कार्यालयों में फारसी के अलावा किसी अन

लोदी साम्राज्य -Takeknowledge

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    15वीं शताब्दी का अंत होते-होते बहलोल लोदी ने दिल्ली में लोदी राजवंश की स्थापना सुदृढ़ रूप से कर दी थी। उसने उत्तर भारत के बड़े हिस्से को अपने कब्जे में ले लिया था। उसकी मृत्यु के बाद उसका पुत्र सिकन्दर लोदी गद्दी पर बैठा । सिकन्दर लोदी सोलहवीं शताब्दी में सल्तान सिकन्दर लोदी के नेतत्व में उत्तर भारत में लोदी साम्राज्य अपने उत्कर्ष पर पहुंच गया। 1496 में जौनपुर के भूतपूर्व शासक हुसैन शरकी को दक्षिण बिहार से खदेड़ दिया गया और उनके राजपूत सरदार सहयोगियों को या तो समझौते के लिए मजबूर कर दिया गया या परास्त कर दिया। गया। उनकी जमीदारियों को या तो सल्तान के सीधे नियंत्रण में ले लिया गया या उनका दर्जा परतंत्र प्रदेश। का हो गया। इसी प्रकार से सुल्तान की सत्ता को चुनौती देने वाले अफगान और गैर-अफगान सरदारों को दिल्ली और उसके आस-पास के इलाके से हटा दिया गया। सोलहवीं शताब्दी के प्रथम दशक में धौलपुर पर कब्जा होने के बाद राजपूताना और मालवा प्रदेशों में अफगान शासन के विस्तार का रास्ता प्रशस्त हो गया। नरवर और चंदेरी के किलों को जीत लिया गया । नागौर के ख़ानजादा ने 1510-11 में ल

मुगल सत्ता की स्थापना -Takeknowledge

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         बाबर ने अब तक उत्तरी-पश्चिमी सीमांत क्षेत्रों पर कुछ सफलताएं हासिल की थी। इसके बाद उसने भारत में अपने सहयोगियों के साथ नियोजित ढंग से आक्रमण करने की योजना बनाई। 1526 में पानीपत में बाबर और उसके सहयोगियों तथा सुल्तान इब्राहिम के बीच युद्ध हुआ। बाबर ने उत्तर भारत में पहली बार बन्दूकों व तोपों का उपयोग किया और उसे आसानी से विजय मिल गयी। युद्ध में इब्राहिम लोदी मारा गया और आगरा से दिल्ली तक का रास्ता बाबर के लिए साफ हो गया। बाबर ने जब अपने ही बल पर लोदी शासन को ध्वस्त कर दिया तो उसके भारतीय साथी निराश हो गये। असंतुष्ट अफगान और गैर-अफगान सरदारों ने राजकुमार महमूद लोदी को अपना सुल्तान मान लिया और मुगलों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करते रहने का निश्चय किया। बाबर और हुमायूं के शासन के पन्द्रह वर्षों की अवधि को लोदी साम्राज्य के पतन और शेरशाह सूर के साम्राज्य की स्थापना के बीच के काल को मुगल शासन के राज्यातंराल के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए। बाबर (मृत्यु 1530) और हुमायूं ने भारत में लोदी सुल्तानों द्वारा स्थापित राज्य व्यवस्था को ही लागू रखा। जैसे जमींदारों के प्रति

अक़ क्युयूनलू और कारा क्युयुनल -Takeknowledge

उधमशील जहानशाह के नेतृत्व मे कारा क्युयुनल राजवंश वेन से लेकर ईरान और खुरासान के रेगिस्तान तक और कैस्पियन सागर से फारस की खाड़ी तक फैला हुआ था।  उन्होंने तैमूरों से अपने को स्वतंत्र कर लिया था। जहानशाह शियाओं के जनक के रूप में प्रसिद्ध था जबकि अक़ क्युयूनलू लोग सुन्नी थे। उजन हसन (1453-78) अक क्युयूनल राजवंश का सबसे प्रसिद्ध बादशाह था, जिसने जहानशाह को हराकर लगभग समस्त ईरान पर अपना अधिकार जमा लिया था। इस प्रकार उसके साम्राज्य की सीमा तैमूरों की सीमा के पास आ गयी। ऑटोमन शासक मौहम्मद द्वितीय उसे बलवान शासक मानता था, क्योंकि उसका अनातोलिया, मेसोपोटेमिया, अजरबाइजान और फारस के संसाधनों पर अधिकार था। इसके बावजूद। 1473 में अपने उत्कृष्ट तोपखाने के बल पर आटोमन शासक ने उजून हसन को हरा दिया। उजून हसन । की मौत (1478) के समय उसका तर्कमान साम्राज्य फरात के ऊँचे इलाकों से लेकर बृह्द लवणीय । रेगिस्तान तक और दक्षिण फारस में किरमान प्रांत और ट्रांसऑक्सियाना से मेसोपोटेमिया और फारस की। खाड़ी तक फैला हुआ था। उजून हसन खाँ की बहन खदिजा बेगम की शादी एक उद्यमी और प्रभावशाली शेख जुनैद (1447-60 साथ हुई ।

उजबेगों और सफवियों का पूर्ववर्ती इतिहास -Takeknowledge

    उज़बेग तूरान या ट्रान्सऑक्सियाना के उजबेग चंगेज के बड़े पुत्र जोची के वशंज थे। उन्होंने जूजी के अधीनस्थ दश्त-ए-किपचक के उजबेग खाँ (1212-40) पर अपना नाम आधारित किया था। उज़बेग चगताई तुर्की बोलते थे और तुर्क-मंगोल परंपरा का निर्वाह करते थे। वे कट्टर सुन्नी थे और हनफी कानून मानते थे। नैमान, कुशजी, दुर्मान, कुनघरात और अन्य तुर्क-मंगोल जनजातियां उजबेग राज्य को अपना समर्थन देती थीं । बार-बार आक्रमण करके इनके विरोधी कबीलों (मंगोल, कज़ाक और किरधिज) ने इनकी शक्ति काफी कम कर दी।   सफ़वी   सफ़वी मूलतः ईरानी (कुर्दिस्तान से) थे। वे शिया और फारसी इस्लामी परंपरा का निर्वाह करते थे। वे शासन करने के लिए लाये गये थे। वे अजरी तुर्की और फारसी बोलते थे। सूफी मूल के होने के कारण उन्होंने बाद में एक प्रभावी वंशावली तैयार की। सफवी शक्ति का मूल आधार तुर्कमान जनजातियों का संगठन था पर प्रशासनिक नौकरशाही में ईरानी तत्व भी बराबरी के स्तर पर मजबूत था। बाद में जॉरजियन और सिरकासियन नामक दो समूह और जुड़े। ये चारों तत्व (खासकर तुर्कमान समूह) बाहरी राजनीतिक संबंधों को मजबूती देने के स्रोत थे, क्योंकि वे ह

तूरान और ईरान की भौगोलिक सीमा -Takeknowledge

     अंदरूनी एशिया क्षेत्र जिसे तुरान भी कहते हैं. दो नदियों के बीच बसा हुआ था। अरब आक्रमणकारियों ने इस क्षेत्र को मवारून्नहर (अर्थात् दो नदियों-सीर एवं अमू-के बीच) कहा था। यह क्षेत्र सागर, सीर नदी और तर्कीस्तान से घिरा था. दक्षिण में ईरान, अमू नदी और अफगानिस्तान था तीनशान और हिंदकुश पर्वतों से लेकर काराकोरम रेगिस्तान था; पश्चिम में कैस्पियन सागर और खाई, पहाड, घाटी, रेगिस्तान तथा शुष्क और अर्द्धशुष्क भूमि । इस प्रकार इस क्षेत्र में विभि जीवन शैलियां देखने को मिलती थीं। यहां बंजारे और पशुपालक भी थे तथा स्थाई रूप से बसे हा भा। इस क्षेत्र में जमीन के अंदर जल प्रवाह था और जगह-जगह घिरे हुए समुद्र तटीय क्षेत्र दूर थ और अतलांतिक और प्रशांत सागर से अलग-थलग थे। कृषि के अलावा पशुपालन एक व्यवसाय था। यह स्थान घोडों के लिए प्रसिद्ध था। यहां से काफी मात्रा में भारत को घोड़ों का निर्यात जाता था। समरकंदी कागज और फल (ताजे भी और सूखे भी) निर्यात किए जाते थे। एलबुर्ज पर्वतों के पूर्वी घाट ईरानी पठार को तुर्कीस्तान (ईरान) से अलग करते थे। जहां तक भौगोलिक विस्तार का सवाल है, ईरान और फारस में एशिया माइ

भारत मे कुरान लिखने की सुलेखन कला -Takeknowledge

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     इस्लामी संसार में सुलेखन की कला को एक पवित्र कला माना जाता था जिसका प्रयोग कागजों एवं पत्थरों पर सजावट के लिए किया जाता था। हस्तशिल्पियों में सुलेखक को पाण्डुलिपियों को सजाने वाले एवं चित्रकार से ऊपर रखा गया। लेकिन कुरान का सुलेखन पूस्तक कला का एक महत्वपूर्ण रूप बन गया जहां कुरान की प्रतिलिपियां भव्य और व्यापक पैमाने पर बनाई गईं। कुरान की प्रथम प्रतिलिपि 1399 ई. की है। यह ग्वालियर में सुलेखित की गई थी। इसमें ईरानी तथा भारतीय साधनों से ग्रहण किए गए नाना प्रकार के अलंकारिक प्रतिमान हैं। (इस पांडुलिपि के दो पृष्ठ चित्र 18 में दिखाए गए हैं) इस हस्तलिपि के अग्र पृष्ठ का ज्यामितीय चित्र सल्तनत शैली का प्रतीत होता है जिससे स्पष्ट होता है कि चौदहवीं शताब्दी में दिल्ली की चित्रशालाओं की निम्नलिखित विशेषताएं थीं:  • यह ईरानी परम्परा से संबंधित है।  • शीर्षकों और पट्टिकाओं के अभिलेखों में प्रयुक्त कुरान की लिखावट ज्यादातर कूफी शैली की है।  • अग्र पृष्ठ के ज्यामितीय चित्रों का चित्रण इस शैली की विशेषता थी। पन्द्रहवीं शताब्दी में सैय्यद और लोदी वंश में पुस्तक कला की दशा खि

सूफियों की सामाजिक भूमिका -Takeknowledge

    सुफियों ने समाज में और कभी-कभी राजनीति में भी महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यहाँ हम विभिन्न क्षेत्रों में उनके योगदान का विश्लेषण करेंगे।     सूफी और राज्य आरंभिक चिश्ती सूफ़ियों और बीजापुर राज्य के शाहपुर के चिश्तियों के अलावा अन्य सिलसिलों से जुड़े अधिकांश सूफ़ियों ने, यहां तक कि बाद के चिश्तियों ने भी राज्य सहायता स्वीकार की और राज्य से जुड़े रहे। कई बार कई चिश्ती सूफ़ी सुल्तान की नीतियों का विरोध भी करते थे। मौहम्मद तुगलक के शासन काल में ऐसा हुआ था। कुछ सूफ़ी शासन तंत्र का हिस्सा बन गये आरंभिक चिश्तियों ने ऐसा नहीं किया पर उन्होंने विभिन्न वर्गों और धार्मिक समुदायों के बीच सौहार्द का वातावरण बनाया जिससे राज्य के सुचारू रूप से संचालन को सहायता मिली। चिश्ती गुरूओं सहित किसी भी सूफ़ी ने स्थापित राजनीतिक व्यवस्था और वर्ग संरचना पर कभी भी प्रश्नचिह्न नहीं लगाया। उन्होंने राज्य के पदाधिकारियों से केवल यही कहा कि वे किसानों से राजस्व वसूलते समय नरमी बरतें। दूसरी तरफ उन्होंने अपने साधारण अनुयायियों को राज्य सहायता लेने और दरबार के मामलों में दखल देने से नहीं रोका। इसी कमी के का

चिश्ती सिलसिले की लोकप्रियता के मुख्य कारण 'Takeknowledge

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        सल्तनत काल के सभी सूफ़ी सम्प्रदायों का उद्देश्य लगभग एक था—आध्यात्मिक गुरू के निर्देशन में सही मार्ग अपनाते हुए ईश्वर से सीधा संवाद स्थापित करना। हाँ, प्रत्येक सूफ़ी सम्प्रदाय ने अलग-अलग अनुष्ठान और रीति-रिवाज अपनाए और राज्य तथा समाज के प्रति उनके दृष्टिकोण में भी अंतर था। इस काल के सभी सम्प्रदायों में चिश्ती सम्प्रदाय को सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई और इसका प्रसार भी व्यापक क्षेत्र मे हुआ। चिश्ती सम्प्रदाय के अनुष्ठान, दृष्टिकोण और प्रथाएँ भारतीय थी और यह मूलतः एक भारतीय सिलसिला था। इसकी लोकप्रियता के कारणों का उल्लेख नीचे किया जा रहा है: i) चिश्ती सम्प्रदाय की कई प्रथाएँ भारत में स्थापित नाथपंथी योगियों जैसे गैर-परम्परावादी सम्प्रदायों से काफी मिलती-जुलती थीं। ब्रह्मचारी और सन्यासी का जीवन व्यतीत करना, गुरू के समक्ष दंडवत करना, सम्प्रदाय में शामिल होने वाले नये शिष्य का मुंडन करना और भक्ति संगीत का आयोजन आदि कुछ ऐसी ही प्रथाएँ थीं। इस दृष्टि से, चिश्तियों को भारतीय परम्परा के एक हिस्से के रूप में देखा जाने लगा।  ii) चिश्तियों ने भारत में गैर-मुसलमान जनसंख्

सुहरावर्दी सिलसिला -Takeknowledge

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  सुहरावर्दी सिलसिला सल्तनत काल का प्रधान सम्प्रदाय था। भारत में इसके संस्थापक शेख बहाउद्दान जकरिया (1182-1262) थे। वह एक खुरासानी थे और शेख शहाबद्दीन सहरावर्दी के शिष्य थे, जिन्हान बगदाद में इस सिलसिला की शुरुआत की थी। शेख शहाबद्दीन सुहरावर्दी के आदेश से शेख बहाउद्दान जकरिया भारत आये। मुल्तान और सिंध को उन्होंने अपनी गतिविधि का केन्द्र बनाया। अतः उन्होंने मुल्तान में जिस खानकाह की स्थापना की उसकी गिनती भारत में स्थापित आरंभिक खानकाहों में होती है। उस समय दिल्ली का सुल्तान इल्तुतमिश था, पर मुल्तान पर उसके दुश्मन कुबाचा का आधिपत्य था। शख बहाउद्दीन जकरिया खुले आम कुबाचा के प्रशासन की आलोचना किया करता था । इल्तुतमिश तथा मुल्तान के शासक कुबाचा के बीच हुए संघर्ष में शेख ने खुले आम इल्तुतमिश का पक्ष लिया। कुबाचा के पतन के बाद इल्तुतमिश ने बहाउद्दीन जकरिया को शेख-उल इस्लाम (इस्लाम का प्रमुख) विद्वान का खिताब प्रदान किया और अनुदान की व्यवस्था की। समकालीन चिश्ती संतों के विपरीत उन्होंने व्यावहारिक नीति अपनाई। और काफी सम्पत्ति इकट्ठी की। उन्होंने राज्य का संरक्षण स्वीकार किया और शासक

चिश्ती सिलसिला -Takeknowledge

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   सल्तनत काल में चिश्ती सम्प्रदाय का विकास दो चरणों में सम्पन्न हुआ। 1356 में शेख नसीरुद्दीन (चिराग-ए दिल्ली) की मृत्यु के बाद प्रथम चरण समाप्त हुआ। 14वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इसकी अवनति हुई। दूसरे चरण की शुरुआत 15वीं-16वीं शताब्दी में पूरे देश में इसके पुनरुत्थान और प्रसार से हुई!    पहला दौर भारत में स्थित सूफ़ी सम्प्रदायों में चिश्ती सम्प्रदाय सबसे लोकप्रिय था। इसका प्रारंभ हिरात में हुआ था। सीजिस्तान में जन्मे (लगभग 1141) ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती ने भारत में इस सम्प्रदाय की स्थापना की। (मृ. 1236) | वे गौरी के आक्रमण के समय भारत आये। 1206 ई. में अंतिम रूप से वे अजमेर में बस गये। और उन्हें मुसलमानों और गैर-मुसलमानों सभी का आदर प्राप्त हुआ। उनके कार्यकाल का कोई प्रमाणिक दस्तावेज उपलब्ध नहीं है। बाद में, कई दंतकथाओं में उन्हें इस्लाम धर्म के उत्साही प्रचारक के रूप में दर्शाया गया पर असलियत यह है कि उन्होंने धर्म परिवर्तन में कभी सक्रिय हिस्सा नहीं लिया और गैर-मुस्लिमों के प्रति उनका दृष्टिकोण उदारवादी था। आने वाली शताब्दियों में अजमेर स्थित उनका मज़ार प्रमुख तीर्

सूफी सम्प्रदायों या सिलसिलों की स्थापना (12वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और तेरहवीं शताब्दी)

'i) भारतीय सामाजिक और धार्मिक जीवन को सूफ़ी मत ने प्रभावित किया। पर भारत में इसके प्रभावी होने के कई दशक पूर्व मुस्लिम देशों में सूफ़ी आंदोलन एक संगठित रूप ले चुका था और कई मार्ग (तरीका) या सूफ़ी सम्प्रदाय कायम हो चुके थे। बारहवीं शताब्दी से ये सम्प्रदाय आकार ग्रहण करने लगे थे। अधिकांश केन्द्रों का विकास एक गुरू विशेष के नेतृत्व में हुआ। आध्यात्मिक गुरू-शिष्य परम्परा की शुरुआत भी हुई। इनका अलग तरीका था, इनकी प्रथाएं और अनुष्ठान अलग-अलग थे। इस प्रकार विभिन्न सूफ़ी सम्प्रदाय (सिलसिला) कायम हुए। इसमें एक के बाद दूसरा गुरू आध्यात्मिक उत्तराधिकारी (खलीफा) अथवा सिलसिले का प्रधान बनता था और सम्प्रदाय की आध्यात्मिक शिक्षा का पालन करते हुए अपने को उससे जोड़कर रखता था।  ii) सिलसिले के आध्यात्मिक प्रधान और उसके शिष्यों के संबंध ने अब एक आनुष्ठानिक स्वरूप ग्रहण कर लिया। अब शिष्य को सिलसिले में शामिल होने के लिए कई प्रकार के अनुष्ठानों से गुजरना पड़ता था और निष्ठा की शपथ लेनी पड़ती थी। खानकाह में शिष्यों के दैनिक जीवन को नियंत्रित करने के लिए प्रत्येक सिलसिले के अपने अलग-अलग संस्थागत नि

संगठित सूफ़ी आंदोलन का विकास (10वीं-12वीं शताब्दी) कैसे हुआ -Takeknowledge

   10वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध और 11वीं शताब्दी के दौरान जब मध्य एशिया और ईरान में पहले गजनवियों और बाद में सेलजुकों के अधीन तुर्की शासन कायम हुआ तब सुफी मत एक संगठित आंदोलन के रूप में विकसित हुआ । इस काल के दौरान इस्लामी दुनिया में दो समानांतर संस्थाओं का विकास हुआ।  (क) मदरसा व्यवस्था (धार्मिक शिक्षा का उच्च संस्थान) यह कट्टरपंथी इस्लामी शिक्षा की मान्य संस्था थी, और (ख) सूफ़ी गतिविधियों के संगठित और स्थायी केन्द्र के रूप में खानकाह व्यवस्था का नया स्वरूप सामने आया। खानकाह अब सूफियों की व्यक्तिगत गतिविधि का केन्द्र न रहकर सूफ़ी शिक्षा के संस्थागत केन्द्र के रूप में उभर कर सामने आई। पर गुरू और शिष्य का संबंध अभी भी व्यक्तिगत था और इसने अब तक रहस्यमय और आनुष्ठानिक स्वरूप अख्तियार नहीं किया था। अभी सूफ़ी संप्रदाय सही ढ़ग से आकार नहीं ग्रहण कर सका था। पर खानकाहों का स्वरूप बदल चुका था। अब ये सूफ़ियो के आश्रय स्थल मात्र न थे बल्कि सूफ़ी मत और मान्यताओं के सुस्थापित केन्द्र थे। इसमें एक आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्यों के साथ रहा करता था। उलेमा सूफ़ी मत को हमेशा संदेह की नज़

मुस्लिम देशों में सूफी आंदोलन का विकास कब और कैसे हुआ -Takeknowledge

    भारत में 13वीं शताब्दी के आरंभ में सूफ़ी सिलसिलों ने अपनी गतिविधियां शरू कीं। पर इसके काफी पहले इस्लामी प्रभाव के विभिन्न क्षेत्रों में सूफ़ी मत एक सशक्त आंदोलन के रूप में फैल चूका था। भारतीय परिवेश में सूफ़ी मत का एक खास स्वरूप उभरकर आया। पर अपने विकास के आरंभिक चरण में भारतीय सूफ़ी मत इस्लामी दुनिया में विकसित सूफ़ी मान्यताओं और प्रथाओं से प्रभावित हआ। इस्लामी देशों में । 7वीं से 13वीं शताब्दी के बीच सूफ़ी मान्यताओं और प्रथाओं का विकास हुआ था। इस काल में इस्लामी देशों में विकसित सूफ़ी मत को तीन प्रमुख चरणों में विभक्त किया जा सकता है।   आरंभिक चरण (10वीं शताब्दी तक) आरंभिक दौर में सूफ़ियों ने कुरान की आयतों को रहस्यात्मक अर्थ देने की कोशिश की। कुरान में उल्लिखित सद्गुणों, जैसे पश्चाताप (तोबा), परहेज़, सन्यास, गरीबी, ईश्वर में विश्वास (तवक्कूल) आदि की उन्होंने गूढ़ व्याख्या की। सूफ़ी आंदोलन के आरंभिक केन्द्रों में मक्का, मंदीना, बसरा और कूफा प्रमुख हैं। आठवीं शताब्दी के सूफ़ियों को "मौनी'' कहा गया, क्योंकि वे मौन रहकर अपनी साधना में लीन रहते थे और जनता के बीच

सूफी मत की विशेषताएँ -Takeknowledge

    भारत और उसके बाहर कई सूफी मत या सिलसिले विकसित हुए। प्रत्येक मत की अपनी-अपनी खास विशेषताएँ थीं, पर सभी सूफी मतों में कुछ समान विशेषताएँ भी थीं। हम यहां इसी प्रकार की विशेषताओं को बताएगें - i) सूफी मत का उदय इस्लामी देशों में हुआ। इसमें अलौकिक यथार्थ (हक़ीक़त) से सीधा सम्पर्क स्थापित करने के लिए सूफ़ी मार्ग (तरीक़ा) पर चलने का महत्व बताया गया।  ii) सूफ़ी मत के अनुसार व्यक्ति को ईश्वर का अनुभव करने के लिए कई “पड़ावों" या "चरणों" (मकामात) और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों का सामना करके (हल) गुजरना पड़ता है।  iii) सूफ़ी मार्ग को कोई भी व्यक्ति केवल आध्यात्मिक गुरु (शेख, पीर या मुर्शिद) के कडे निरीक्षण में ही पार कर सकता है। शेख, पीर या मुर्शिद का दर्जा वही पा सकते हैं, जिन्होंने सफलतापूर्वक इस मार्ग को तय कर लिया हो और ईश्वर(अल्लाह) से सीधा संवाद स्थापित कर लिया हो। iv) शिष्य (मुरीद) कई “पड़ावों" और "चरणों' से गुजरता है। वह ईश्वर में ध्यान लगाने और ध्यान केन्द्रित करने (जिक्र) के लिए आत्म-संताप, ईश्वर का नाम बार-बार जपना जैसे आध्यात्मिक अभ्यासो

महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन -Takeknowledge

      अन्य वैष्णव भक्ति आंदोलनों के समान महाराष्ट्र के वैष्णव आंदोलन पर भी भागवत पुराण का जबरदस्त असर था। इसके अतिरिक्त उन पर शैव नाथपंथियों का भी प्रभाव पड़ा। 11वीं-12वीं शताब्दी के दौरान महाराष्ट्र समाज की “छोटी" जातियों पर इनका गहरा प्रभाव था। ये नाथपंथी काव्य-रचना के लिए मराठी का उपयोग करते थे। ज्ञानेश्वर (1275-1296) महाराष्ट्र के भक्त-संतों में अग्रणी हैं। उन्होंने भागवत गीता पर वृहत भाष्य लिखा है। इसे ज्ञानेश्वरी के नाम से जाना जाता है। यह पुस्तक मराठी साहित्य की आरंभिक कृतियों में से एक है और महाराष्ट्र की भक्ति विचारधारा का आधार है। उन्होंने कई श्लोकों की भी रचना जिन्हें अभंग के नाम से जाना जाता है। उन्होंने सीख दी कि भक्ति के मार्ग से ही भगवान के पास पहुंचा जा सकता है और इसमें जातिगत भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं है। नामदेव (1270-1350) पेशे से दर्जी थे। यह माना जाता है कि वे महाराष्ट्र भक्ति आंदोलन और उत्तर भारत के एकेश्वरवाद आंदोलन के बीच की कड़ी थे। वे पंधरपुर में रहते थे, पर उन्होंने उत्तर भारत का भ्रमण किया था और पंजाब भी गए थे। उनके भक्ति गीत भी आदि ग्रंथ में सं

बंगाल में वैष्णव भक्ति आंदोलन -Takeknowledge

      बंगाल की वैष्णव भक्ति कई मामलों में उत्तर भारत और प्राचीन दक्षिण भारत की भक्ति से अलग थी। इसे दो विभिन्न परंपराओं ने प्रभावित किया। एक तरफ बंगाल की भक्ति भागवत पुराण की वैष्णव भक्ति परंपरा और कृष्ण लीला के महिमा-बखान से प्रभावित थी और दूसरी तरफ सहजिया बौद्ध और नाथपंथियों की परंपरा से। जयदेव (12वीं शताब्दी) से लेकर बाद तक के अनेक भक्त कवियों में वैष्णव भक्ति का यह प्रभाव झलकता है। जयदेव ने गीत गोविंद की रचना संस्कृत में की थी। उन्होंने मैथिली भाषा में भी गीत रचे थे। इसे बाद में बंगाल वैष्णव भक्ति परंपरा में समेट लिया गया। उन्होंने कृष्ण और राधा के प्रेम को एक शृंगारिक अलौकिक स्वरूप प्रदान किया। इस समय बिहार और बंगाल में सहजिया बौद्ध और नाथपंथी जैसे गैर वैष्णव संप्रदाय भी अस्तित्व में थे। इन्होंने भी बंगाल में भक्ति आंदोलन को प्रभावित किया। ये पंथ धर्म के गूढ़ और भावात्मक तत्वों को आसान और स्वाभाविक बनाकर पेश किया करते थे। चंडीदास (14वीं शताब्दी) और विद्यापति (14-15 शताब्दी) जैसे वैष्णव भक्ति कवि इन गैर वैष्णव पंथों से प्रभावित हुए। भागवत परंपरा का भी उन पर गहरा असर था। प्रथम बंग

उत्तर भारत में वैष्णव भक्ति आंदोलन -Takeknowledge

    विवेच्य काल के दौरान उत्तर भारत में रामानन्द वैष्णव भक्ति के सर्वप्रमुख विद्वान संत थे। उनका काल 14वीं शताब्दी के उत्तरार्ध और 15वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध के बीच का है। अपना आरंभिक जीवन उन्होंने दक्षिण में बिताया पर बाद में बनारस में बस गये। उन्हें दक्षिण भारतीय भक्ति परंपरा और उत्तर भारतीय वैष्णव भक्ति के बीच की माना जाता है। पर उनकी विचारधारा आरंभिक दक्षिण भारतीय आचार्यों से तीन अर्थों में भिन्न थी i 1)वे विष्णू को नहीं राम को भक्ति का आराध्य मानते थे। उनके अनुसार राम सर्वोच्च ईश्वर थे. जिनकी अराधना सीता के साथ करनी चाहिए। इस दृष्टि से उत्तर भारत की वैष्णव भक्ति परंपरा में उन्हें राम संप्रदाय के संस्थापक के रूप में देखा जाता है।  २) राम संप्रदाय के प्रचार के लिए उन्होंने संस्कृत का नहीं, बल्कि आम लोगों की भाषा का उपयोग किया। ३) वैष्णव भक्ति परंपरा में रामानंद का सर्वप्रमुख योगदान यह है कि उन्होंने सभी लोगों के लिए (जाति के बंधन को तोड़कर) भक्ति को सुलभ कराया। धार्मिक और सामाजिक मामलों में उन्होंने जातिगत बंधनों को काफी उदार बना दिया। ब्राह्मण होने के बावजूद उन्होंन