दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन -Takeknowledge

 दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि
सातवीं और दसवीं शताब्दी के बीच दक्षिण भारत के शैव नयनार संतों और वैष्णव अलवर संतों ने जाति
और लिंग का भेद किए बिना समाज के हरेक तबके में भक्ति के सिद्धांत का प्रचार किया। इनमें से कुछ संत महिलाएं थीं और कुछ "छोटी जातियों' का भी प्रतिनिधित्व करते थे। इन संत कवियों ने भावनात्मक स्वर में भक्ति का प्रचार किया और धार्मिक समतावाद को बढ़ावा दिया। उन्होंने अनुष्ठानों का बहिष्कार । किया और घूम-घूमकर नाच गाकर भक्ति का प्रचार किया। अलवर और नयनार संत भक्ति गीतों की रचना संस्कृत में नहीं बल्कि तमिल में किया करते थे। इन कारणों से यह आंदोलन बड़ा लोकप्रिय हो गया। पहली बार भक्ति को जनाधार प्राप्त हुआ। दक्षिण भारत के भक्ति संत बौद्धों और जैनों के आलोचक थे। बौद्धों और जैनो को उस समय के दक्षिण भारतीय राजाओं का संरक्षण प्राप्त था और दरबारों में उन्हें एक विशेष हैसियत प्राप्त थी। बौद्ध और जैन धर्म में अब तक कुछ संकीर्ण और रूढ़िवादी तत्व प्रवेश कर चुके थे। इस समय बौद्ध और जैन धर्म के अनेक अनुयायी भक्ति की ओर आकर्षित हुए। इसके साथ-साथ भक्त संत कवियों ने कट्टर ब्राह्मणों के अस्तित्व को चनौती दी और भक्ति को सबके लिए सुलभ बनाया, चाहे किसी जाति का व्यक्ति हो, चाहे स्त्री हो या पुरुष सभी भक्ति को अपना सकते थे। दक्षिण भारत के भक्ति आंदोलन की अपनी कुछ सीमाएं भी थीं। इसने कभी भी सामाजिक स्तर पर ब्राह्मण धर्म की वर्ण व्यवस्था और जाति व्यवस्था का प्रयत्नपूर्वक विरोध नहीं किया। जाति व्यवस्था अभी भी धर्म से जुड़ी थी और "छोटी जातियों' को अभी भी सामाजिक असमानताओं का बोझ ढोना पड़ रहा था। ब्राह्मणवादी अनुष्ठान. मसलन मूर्ति पूजा, वैदिक मंत्रों का उच्चारण और तीर्थस्थलों की यात्रा, अभी भी कायम थे, जबकि भक्ति को पूजा का सर्वश्रेष्ठ तरीका बताया जा रहा था। इन्होंने बौद्धों और जैनों पर मुख्य रूप से आक्रमण किया, ब्राह्मण इनकी आलोचना से मुक्त रहे। शायद यही कारण है कि दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन के प्रसार में ब्राह्मणों के प्रभुत्व वाले मंदिरों की प्रमुख भूमिका रही। दक्षिण भारत के संत-कवियों ने जाति व्यवस्था के वैचारिक और सामाजिक आधार पर प्रश्न चिह्न नहीं लगाया, परिणामस्वरूप दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन के दौरान जाति व्यवस्था कमजोर होने के बजाय मजबूत हुई। अंततः यह आंदोलन दसवीं शताब्दी में अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंचा और शनैः शनैः परम्परागत ब्राह्मण धर्म में विलीन हो गया। इन सीमाओं के बावजूद अपने उत्कर्ष काल में दक्षिण भारतीय भक्ति आंदोलन ने धार्मिक समानता के सिद्धांत का प्रचार किया, परिणामस्वरूप ब्राह्मणों को “छोटी जातियों" को पूजा का अधिकार देना पड़ा। ये “छोटी जातियाँ" पूजा के माध्यम के रूप में भक्ति को अपना सकती थीं और यहां तक कि वेद का अध्ययन करने का अधिकार भी इन्हें प्राप्त हो गया।

       भक्ति और दक्षिण भारतीय आचार्य 
जब दक्षिण भारत में भक्ति आंदोलन की लोकप्रियता क्षीण हो रही थी, तब कई विद्वान ब्राह्मणों (आचार्यो) ने दार्शनिक स्तर पर भक्ति का समर्थन किया। इसमें पहले आचार्य रामानुज (ग्यारहवीं शताब्दी) थे। उन्होंने भक्ति को दार्शनिक आधार प्रदान किया। उन्होंने कट्टर ब्राह्मणवाद और लोकप्रिय भक्ति आंदोलन के बीच सावधानी से संतुलन कायम किया। हालांकि “छोटी" जातियों द्वारा वेद पढ़ने के सिद्धांत का उन्होंने समर्थन नहीं किया, पर इस बात को स्वीकार किया कि भक्ति को पूजा की पद्धति के रूप में सबको, यहां तक कि शद्रों और अस्पृश्यों को भी, अपनाने का अधिकार होना चाहिए। भक्ति का प्रचार करते समय उन्होंने जाति का बंधन स्वीकार नहीं किया और यहां तक कि अस्पृश्यता को समाप्त करने की कोशिश की। एक तेलुगु ब्राह्मण निम्बार्क रामानुज का समकालीन माना जाता है। उन्होंने अपना अधिकांश समय उत्तर भारत में मथुरा । के निकट वृंदावन में बिताया। वे राधा और कृष्ण के प्रति पूर्ण समर्पण में विश्वास रखते थे। दक्षिण के एक अन्य वैष्णव भक्ति दार्शनिक थे माधव, इनका काल तेरहवीं शताब्दी माना जाता है। रामानज के पथ का। अनुसरण करते हुए उन्होंने भी शूद्रों द्वारा वेदों को न पढ़ने की परम्परा को तोड़ने की कोशिश नहीं की। उनके अनुसार भक्ति ने शूद्रों को पूजा का एक विकल्प प्रदान कर दिया। उनका दर्शन भागवत् पुराण पर आधारित था। ऐसा माना जाता है कि उन्होंने उत्तर भारत का भ्रमण भी किया था। वैष्णव आचार्यों की श्रृंखला में अंतिम दो आचार्य रामानन्द (14वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और 15वीं शताब्दी का पूर्वाद्ध) और वल्लभ (15वीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध और 16वीं शताब्दी का पूर्वार्द्ध) उल्लेखनीय है। इन्होंने अपना अधिकांश जीवन सल्तनत काल के दौरान उत्तर भारत में बिताया और वैष्णव भक्ति को एक नया रूप प्रत किया। इन पर उत्तर भारत वाले अंश में विस्तार से विवेचना की जाएगी।


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