प्रथम विश्व युद्ध के कारण

                
            
             प्रथम विश्व युद्ध के कारण
प्रथम विश्व युद्ध के कारण इतने पेचीदे हैं की युद्ध की व्याख्या  करने का अर्थ है यूरोप का 1870 के बाद की राजनैतिक कूटनीति का इतिहास लिहना! दरअसल इसके कारण ढूंढने की प्रक्रिया में 1789 या लुइ 1014 के समय तक भी जाना पड़ेगा! इस युद्ध के कारणों के गहराई में जाने के लिए यूरोप के विभिन्न देशों के अंतर्गत काफी लम्बे समय तक क्रियाशील रहने वाली विभिन्न शक्तियों एवं प्रवृत्तियों की संयुक्त को देखना या समझना होगा! और युद्ध होने के कई कारण हैं जो निम्न हैं-

1) गुप्त संधि प्रणाली-  इस युद्ध का बुनायादी कारण गुप्त सबधी प्रणाली था! दरअसल यह प्रणाली     विस्मार्क की देंन थी जिसने 1870 के फ्रेन्कों-प्रशियन युद्ध के बाद जर्मनी के शत्रु देहों के विरुद्ध इस प्रकार की संधि का तंत्र तैयार करने का प्रयास किया इस कदम ने धीरे-धीरे यूरोप को हथियार बंद विरोधी खेमों में बाँट दिया जो की एक दूसरे से टकराते रहे! जैसा की अनुमान लगाया जा सकता है की संधि प्रणाली कुछ अवसरों पर एक खेमे के सभी सदस्यों के बिच शान्ति स्थापित करने में सहायक रही! तथापि इस प्रणाली के कारण युद्ध आरम्भ हो जाने के स्थिति में यूरोप की सभी शक्तियों का युद्ध में शामिल होना अवश्यभावी हो गया!

1871 से 1890 तक विस्मार्क यूरोपीय राजनिति का सूत्रधार रहा! नए जर्मन साम्राज्य के चांसलर के रूप में वह शान्ति चाहता था! उसने घोसना की की जर्मनी एक 'संतुष्ट' राष्ट्र हैं! वह जानता था की उसकी बर्बादी का ही कारण बनेगा! अतः विस्मार्क स्थिति तथा गुप्त गठबंधन प्रणाली के फलस्वरूप उभरे शक्ति संतुलन को बनाए रखने का समर्थक बन गया! वह जानता था की फ्रांस विशेषकर 1870 के अपमान के बाद जर्मनी का ऐसा कट्टर शत्रु बन चूका था जिससे समझौता करना संभव नहीं था! तथा बिस्मार्क ने अपनी साड़ी कूटनीतिक छमता एवं रानैतिक अंतर्दृष्टि जर्मनी की रछा के लिए संधि तैयार करने में लगा दी! फ़्रांस जर्मनी का शत्रु था विस्मार्क की सफलता फ़्रांस के कूटनीति अलगाव में थी! इसी निति का नुसरण करते हुए जर्मनी ने 1879 में आस्ट्रिया के साथ इस दोतरफा वचनबद्धता के साथ संधि की की यदि रूस दोनों में से किसी भी एक शक्ति पर आक्रमण करता है तो दूसरे उसकी सुरछा में सहयोग देगा! तीन वर्ष बाद 1882 में विस्मार्क ने ट्युनिसिया के मुद्दे पर चली आ रही फ़्रांस-इटली शत्रुता को बढ़ावा दिया तथा इटली को आस्ट्रिया के साथ चली आ रही पुश्तैनी शत्रुता समाप्त करने के लिए प्रेरित किया! सन 1882 में जर्मनी इटली एवं आस्ट्रिया के मध्य एक तीन पछिय गुप्त संधि एक ओर फ़्रांस तथा दूसरी और रूस के विरुद्ध रछात्मक संधि के रूप में की गई! 

फ्रेंको-प्रशियन यद्ध के बाद से फ़्रांस शक्तिहीन हो चूका था! वह मजबूत संधि उसके लिए काफी बड़ी समस्या प्रस्तुत कर रही थी! जब तक विस्मार्क शक्ति का केंद्र रहा उसने शक्ति संतुलन की प्रणाली बनाए रखि जिसे उसने 1887 में रूस के साथ पुनर्र्छा संधि के साथ पुअरा किया! फ़्रांस का शेष यूरोप से अलगाव बढ़ता ही जा रहा था! किन्तु 1890 के बाद विस्मार्क जर्मनी का चांसलर न रहा तो उसके उत्तराधिकारियों ने उसकी कौशल पूर्ण कूटनीति का रास्ता छोड़ दिया! बर्लिन कोंग्रस में पूर्वीय प्रश्न के समाधान जी लेकर रूस एवं जर्मनी के संबंधों में कुछ कटुता आई! फ़्रांस ने इस नाइ परिस्थिति का लाभ उठाया एवं सावधानीपूर्वक कार्य करते हुए 1891 में रूस के साथ संधि बनाने में सफलता हासिल की! इस प्रकार द्वीपछिय संधि तैयार करते हुई जिसने न केवल फ़्रांस के अलगाव को समाप्त किया बल्कि तीन पछिय संधि के समझ प्रतिवादी शक्ति के रूप में उभरी! जर्मनी में विस्मार्क की कूटनीति के समापन के साथ ब्रिटेन के कूटनीतिज्ञों में निति को लेकर पुनर्विचार आरम्भ हुआ! जर्मन सम्राट की दृष्टि में यह 'तथ्य' ठीक नहीं था की जर्मनी के संतुष्ट राष्ट्र एवं शक्ति है! इस विचार के साथ उसने विश्व साम्राज्य स्थापित करने की निति की घोषणा की! उसने यह भी घोसना की की जर्मनी का भविष्य समुद्रों पर आधारित है! जर्मनी की यह निति ब्रिटेन के लिए चेतावनीपूर्ण थी जिसने उसे 'श्रेष्ठ अलगाव' से बहार आने पर मजबूर किया और उसे द्विपछीय गठजोड़ के निकट लाया! ब्रिटेन में फ़्रांस के साथ सारे मतभेद समाप्त करते हुए मित्रवत गठजोड़ पर समझौता किया! उसके बाद इसी प्रकार का समझौता 1907 में रूस के साथ किया! इस प्रकार फ़्रांस रूस एवं इंग्लैण्ड ने त्रिपछिय मित्र गठजोड़ के नाम से एक अलग राजनैतिक संधि तैयार की! त्रिपछिय मित्रजड़ के त्रिपछिय संधि के साथ टकराने के साथ ही यूरोप की स्थिति "हथियार बंद शान्ति" सामान हो गयी! यूरोप की महाद्वीपीय शक्तियां एक-दूसरे के साथ युद्ध तो नहीं कर रही थी लेकिन अपने पड़ोसियों के प्रति ईर्ष्यालु रुख अपना रहे थे जिसके परिणामस्वरूप यूरोप के पुरे वातावरण में दर एवं शंका के बदल मंडरा रहे थे! सभी शक्तियाँ किसी बड़े टकराव की शंका से ग्रस्त तेजी से सैन्यीकरण करती जा रही थी जो की यूरोप के दो विरोधी खेमों में बंट जाने का परिणाम था! यूरोप के दो विरोधी हथियार बंद खेमों में बंट जाने को साम्राजयवाद के उद्भव एवं विकास के सन्दर्भ में देखा जाना चाहिए! यह वैसी परिस्थिंति थी जिसमे यूरोपीय देश व्यपार एवं सीमाओं के विस्तार में तेजी से आगे बढ़ने के लिए तत्पर होकर नए-नए उपनिवेश तैयार कर रहे थे! और इसी प्रक्रिया में एक दूसरे से स्पर्धा कर रहे थे! जाहिर है की अंतर्राष्ट्रीय राजनिति में अपनी भौतिक शक्तिसिद्ध करने की दृष्टि से अपने को सैन्यीकरण एवं राजनैतिक निपुणता में श्रेष्ठ बनाना आवश्यक था! 


2) सैन्यवाद-  सैन्यीकरण दरअसल गुप्त समझौतों की प्रणाली से सीधे जुड़ा हुआ था एवं युद्ध का दूसरा महत्वपूर्ण कारण था! बड़ी संख्या में नैपोलियन के अधीन बढ़ता गया! जर्मनी के एकीकरण के दौरान विस्मार्क ने इस निति का प्रभावशाली ढंग से विस्तार एवं विकास किया! 1870 के फ्रेंको-पर्शियन युद्ध के बाद सभी महाशक्तियों ने अधिक से अधिक मात्रा में सैनिक एवं समुद्री हथियार बढ़ाने आरम्भ कर दिए! हथियारों की यह दौड़ सुरच्छा के नामपर तीर्व की जा रही थी! इसके कारण राष्ट्रों के बिच भय एवं शंका का वातावरण बन गया! यदि किसी एक देश ने अपनी सैन्य शक्ति बढ़ाई अथवा किसी विशेष स्थान पर रेलवे लाइन बिछाने का कार्य किया तो उसके पडोसी देश तुरंत डरकर वही कार्य स्वयं करने लगते! यह सिलसिला निरंतर चलता रहा एवं प्रतिदिन हथियारों का जमाव बढ़ता गया! यह कार्य 1912-13 के बाल्कान युद्धों के बाद भी तेज हो गया! एंग्लो-जर्मन समुद्री शत्रुता भी युद्ध का एक कारन बना! 

सैन्यीकरण के फलस्वरूप थल एवं समुद्री सेना कार्य हेतु मानवीय संसाधनों के रूप में कार्यकर्ताओं की एक बड़ी संख्या भी आवश्यक थी जो की मनोवैज्ञानिक रूप से शीघ्र ही युद्ध की 'अनिवार्यता' में ढाले जाते थे! इन लोगों के लिए युद्ध शीघ्र पदोन्नति एवं महत्व के दरवाजे खोलने वाला था! ऐसा नहीं है की वे अपने निजी स्वास्थों के लिए ही युद्ध चाहते थे फिर भी युद्ध की साड़ी तैयारी को व्यवहार में लाने के अवसर की चाह ने अपना मनोवैगीनिक प्रभाव अवश्य ही छोड़ा होगा! 

3) राष्ट्रवाद- युद्ध का अन्य महत्वपूर्ण कारण पुरे यूरोप में चलने वाली राष्ट्रवाद की लहार थी! यह राष्ट्रवाद दरअसल फ्रांसीसी क्रान्ति की दें थी! इटली एवं जर्मनी ने अपने-अपने देशों में राष्ट्रवाद के अभूतपूर्व उद्भव को एक मजबूत राजनैतिक शक्ति के रूप में इस्तेमाल किया! इटली एवं जर्मनी का एकीकरण इसीलिए संभव हो सका क्योंकि कैवर एवं विस्मार्क राष्ट्रवादी चेतना उभारने में सफल रहे थे! साथ ही इसी प्रक्रिया में लोगों के अंदर जातीय गर्व की भावना का भी विकास होने लगा! और वे अपने देशों को शेष देशों से ऊपर एवं बेहतर समझने लगे जिसके कारण उनका शेष देशों विशेषकर पडोसी देशों के साथ अहंकारपूर्ण व्यवहार दिखाना स्वाभाविक ही था! राष्ट्रवादी भावना की अति ने राष्ट्रों के बिच पहले से बनी हुई खाई को और गहरा कर दिया! उदाहरण की लिए जर्मनी एवं ब्रिटेन जैसे राष्ट्रों के बिच बढ़ी शत्रुता के पीछे इस अति थल एवं जल सैन्यीकरण की होड़ और तेज हो गई! इसी आक्रामक राष्ट्रवादी भावना के कारन एशिया अफ्रीका एवं बालकान में अपने-अपने स्वार्थों को लेकर यूरोपीय शक्तियां आपस में एक दूसरे से टकरा रही थी! फ्रांसीसी जनता की इसी आक्रामक राहतरावादी भावना के कारन ही उनके अंदर अल्सस एवं लॉरेन की छमता को लेकर बदले की भावना बानी रही जिसन कारण फ्रांस को जर्मनी का सबसे बड़ा शत्रु बना दिया! 1886 के बाद फ्रांस एवं जर्मनी के सम्बन्ध निरंतर तनावपूर्ण बने रहे! नैपोलियन 3 के साथ वह पीड़ित राष्ट्रीय जनमत था जो पर्शिया की शक्ति के प्रति इर्ष्या की भावना में और भी कटुता ला रहा था! अंधी राष्ट्रवादिता के उभार के परिणामस्वरूप 1870 में फ्रैंको-पर्शियन युद्ध छिड़े एवं अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में लोकप्रिय पागलपन का एक नया दौर शुरू हुआ! इसी दौरान अधूरी इटली का भी नैरा उठा जो की आस्ट्रिया से इतालवी भाषी वेरिस्ते एवं त्रेन्तीनों जिले हड़पने की इटली की राष्ट्रवादी आकांछा की अहिव्यक्ति थी! इसके लिए इटली ने जर्मनी से सहयोग माँगा! 

जार साम्राज्य के पश्चिम में विद्रोही राष्ट्र विधमान थे! 1870 के बाद पोल एवं यूक्रेनियाई लिथुँनियाई एवं फिन जातियां जार साम्राज्य से मुक्त होने के जबरदस्त प्रयास कर रही थी! इन राष्ट्रों के प्रति रूस की नीति विशेषकर अलेक्जेंडर 3 के अधीन 1881-1894 के दौरान इनके रूसीकरण का जोरदार प्रयास रहा! जिसके नतीजे में इन राष्ट्रीय समूहों के सबसे अधिक देशभक्त तत्व रुसी सामाजिक कृतिकारियों की क्लोजर आकर्षित हुए जिन्होंने तुरंत ही पुरे छेत्र में सम्बन्ध स्थापित कर लिए! इन स्थानीय आन्दोलनों में कट्टरवादी भावनाएं निहित थी जो की इस दौरान अपने उत्थान पर थीं!

अंततोगत्वा असंतुष्ट बाल्कान जनता की कसंतुष्ट राष्ट्रीय आकांछाओं ने बाल्कान प्रायद्वीप को बारूद का ढेर बना दिया जिसने पुरे यूरोप को तुरंत ही अपनी आग की घेरे में ले लिया! वास्तव में युद्ध की ओर धकेलने वाली तमाम घटनाओं के पीछे राष्टवाद की ही प्रेरक भावना थी! 


साम्राज्य की अपनी आवश्यकताएं- साम्राजयवाद का अर्थ एकछत्र पूंजीवादी दौर में विश्वस्तर पर पूंजीवादी संचय! साम्राज्युआड़ ने उत्पादन में निरंतर वृद्धि को बढ़ावा दिया जिसके कारण सम्बध राष्ट्र नए बाजारों एवं कच्चे मॉल के स्रोतों की खोज में जुट गए! परिणामतः इस होड़ में लगी जनसँख्या में काफी वृद्धि हुई जिसका एक हिस्सा विश्व उन हिस्सों में जाने के लिए तत्पर था जिन पर अभी किसी का अधिकार नहीं था! औधोगिक क्रान्ति के कारण बचत पूंजी में भी वृद्धि हुई जो की देश से बाहर निवेश की जा सकती थी! इस स्थिति ने आर्थिक शोषण एवं राजनैतिक स्पर्धा को तेज कर दिया! इन तमाम घटनाओं के ककरण महान शक्तियों ने चीन में स्वतंत्र प्रभाव छेत्र के रूप में प्राप्त करने के लिए तुर्की एवं अन्य स्थानों में रेलमार्ग बनाने के लिए आपस में अफ्रीका का विभाजन आरम्भ कर दिया!19वीं शादी के अंत तथा 20वीं के आरम्भ में बाजारों कच्चे माल तथा उपनिवेशों के लिए संघर्ष और भी तेज हो गया क्योंकि जर्मनी और इटली भी 19वीं शादी के अंतिन दो-तीन दशकों में इस होड़ में शामिल हो गए! 1914 तक यूरोप की सभी महानशक्तियों ने अफ्रीका का कोई न कोई हिस्सा प्राप्त कर लिया था! रेलमार्ग बनाने में जोकि आर्थिक साम्राजयवाद का सबसे अधिक महत्वपूर्ण पछ हैं क्योंकि इसमें आर्थिक लाभ के साथ-साथ राजनैतिक पाछह भी शामिल होता है इंग्लैंड के रेलमार्ग कि से करो तक फैल गए रूस ने साइबेरिया तक तथा जर्मनी ने बग़दाद रेलमार्ग तैयार कर लिए! प्रथम रेलमार्ग जर्मनी फ्रांसीसी एवं बेल्जियम हितो से टकराया दूसरे ने रूस-जापान युद्ध में भूमिका निभाई तथा तीसरे के कारण जर्मनी तथा तिनपछिय मित्र संधि के बिच निरंतर संघर्ष चलता रहा!

सामान्यतः किसी देश के साम्राज्य्वादी रुख अपनाने के पीछे आर्थिक हिट और उसके साथ जुड़े हुए राजनैतिक उद्देश्य छिपे होते थे! उपनिवेश प्राप्त करने की देशों की निति के पीछे कुछ प्रभावशाली क्रियाशील राजनैतिक नेताओं का हाथ होता था जो इस देश में सोचते अन्यथा उपनिवेष प्राप्त करने की अनिवार्यत नहीं होती थी! ब्रिटेन ने 1860 के दशक में अथवा 1870 के दशक में और इसके बाद भी उपनिवेश प्राप्त करने की ओर अधिक ध्यान नहीं दिया यद्पि की जनसंख्या निर्यात एवं पूंजी बचत की आर्थिक आवश्यकताए लम्बे समय से बानी हुई थी! इटली एवं रूस में से किसी के पास भी निर्यात के लिए अतिरिक्त उत्पादन अथवा पूंजी नहीं थी फिर भी वे उपनिवेश प्राप्त करने की होड़ में लग गए! जर्मनी जो की औधोगिक रूप से फ्रांस से कहीं आगे था! बिस्मार्क की उपनिवेश विरोधी निति के कारण उपनिवेश प्राप्त करने की दाऊद में धीमा रहा! बिस्मार्क जर्मनी को केवल यूरोप की ही सर्वश्रेष्ठ शक्ति के रूप में देखना चाहता था! दरअसल साम्राज्यवादी प्रवृत्तियों को बढ़ावा देने के पीछे कुछ ही लोगों की सोच थी जिनमे विशेषकर बुद्धिजीवी अर्थशाष्त्रीय देशभक्त पत्रकार एवं राजनीतिज्ञ शामिल थे जो इस नीति का प्रचार कर रहे थे! 

साम्राज्य के राजनैतिक उद्देश्य के अतिरिक्त अन्य पछ भी शामिल थे जो उपनिवेश प्राप्त करने के लिए निरंतर प्रेरित कर रहे थे। इनमें से एक पक्ष तो अन्वेषणकर्ताओं एवं साहसिक गतिविधियों में लगे लोगों की वैज्ञानिक खोजों में रुचि अथवा साहस एवं जोखिम भरे कार्यों के प्रति रूझान अथवा धन एवं शक्ति और प्रभाव की लालसा रखता था। उपनिवेशवाद को बढ़ावा देने में ईसाई मिशनरियों की भूमिका भी काफी महत्वपूर्ण रही। इनमें सबसे अधिक प्रसिद्ध डेविड लिविंगस्टोन था जोकि लंदन मिशनरी सोसाइटी द्वारा अफ्रीका भेजा गया था। लगभग सभी यूरोपीय शक्तियों ने पूरे अफ्रीका एवं एशिया में इन मिशनरियों की गतिविधियों में हिस्सा लिया। अन्य मुख्य ईसाई मिशनरियों जिन्होंने बड़े पैमाने पर अफ्रीका में अपनी भूमिका निभाई वे चार्ल्स गॉर्डन, सन जॉन कर्क एवं लार्ड लगार्ड थे।


 समाचार पत्र, प्रेस एवं जनमत- महायद्ध का अन्य मुख्य कारण पूरे यूरोप में समाचार पत्रों द्वारा जनमत को प्रदषित करना। था। समाचार पत्र अक्सर विदेशों की स्थिति को तोड़-मरोड़ कर अपने देश के अंदर राष्ट्रवादी भावनाएँ उभारते थे। कई मौकों पर जबकि कठिन अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं पर शांतिपर्ण समाधान संभव हो सकते थे, इन समाचार पत्रों के इस प्रकार के रवैये के कारण टकराव की संभावना रखने वाले देशों के अंदर स्थिति खतरनाक बन गयी। मख्य समाचार पत्र अक्सर । राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रयी राजनीति में परिणाम प्रस्तुत करने के उद्देश्य से अनावश्यक रूप से आगे बढ जाते थे। 1870 में बिस्मार्क के ई.एम.एस. तार को प्रकाशित करने के कारण पेरिस में अति राष्ट्रवादी जनमत को बढ़ावा मिला। और उसने फ्रैंको-प्रशियन युद्ध की संभावनाओं को प्रबल बना दिया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यूरोपीय राजनीति में तनाव पैदा करने में प्रेस ने कितनी बड़ी भूमिका निभाई। 


 तात्कालिक कारण- आस्ट्रियन हैब्सबर्ग साम्राज्य सन् 1900 के बाद से उभरते हए राष्ट्रवाद की चेतावनी से जझ रहा था। बहुराष्ट्रीय साम्राज्य पर निरंतर नियंत्रण बनाए रखना दुष्कर था। ऐसी परिस्थिति में जबकि विएना में राजनैतिक एवं सैनिक नेतृत्व काउंट बर्च टोल्ड एवं कोनार्ड के हाथों में था, यह काम और भी मुश्किल हो गया था। आस्ट्रिया को सर्बिया के संदर्भ में एक और पाइडमाँट (Piedmont) अथवा एक और प्रशिया नजर आया और उन्हें जर्मनी एवं इटली के एकीकरण की प्रक्रिया में बिस्मार्क एवं कैवर के हाथों 1859 एवं 1866 में देश की अपमानजनक हार का स्मरण आया। 1914 तक सर्बिया के नेतृत्व में राष्ट्रीय एकीकरण के लिए स्लाव जनता का इसी प्रकार का आंदोलन उभरा। यद्यपि कि यह देश काफी छोटा था एवं इसकी जनसंख्या केवल पचास लाख के आसपास थी कितु इसके जनमानस में ऐसी शक्ति एवं ऊर्जा थी जो भावी युगोस्लाविया की नींव रख सकती थी।


सर्बिया केवल हैब्सबर्ग के लिए ही चिता का कारण नहीं था किंत जर्मनी के एकीकरण में। बाधा था एवं बालकानों के मध्य मित्रसंधि के प्रभाव का केंद्र बिद् भी था। सर्बिया । जर्मन-आस्ट्रियाई-तुर्की संधि में धरी का काम कर सकता था। इस प्रकार साराजीवो द्वारा उत्पन्न किया गया संकट केवल आस्ट्रिया एवं सर्बिया के बीच का झगड़ा न रह गया बल्कि। दोनों महान संधियों की शक्ति परीक्षा का कारण बन गया। वह घटना जिसके कारण यद्ध आरंभ हआ एक धर्मांध व्यक्ति द्वारा जिसके संबंध सर्बियाई सरकार से स्थापित नहीं किए जा सके हैब्सबर्ग के सिद्धांत के उत्तराधिकारी की हत्या थी। 28 जन 1914 के आर्कडयक फ्रेंज फर्डिनांड और उसकी पत्नी ने साराजीवों की राजधानी बोसनियन का दौरा किया और आस्ट्रियाई सेरो, गार्विलो प्रिंसिप के द्वारा उसकी हत्या कर दी गयी। विएना ने हत्या को सर्बिया द्वारा यद्ध भड़काने का प्रयास घोषित किया और, ऐसी माँगे प्रस्तत की जो नकारी ही जानी थी, फलत: 28 जुलाई को विएना की ओर से युद्ध की घोषणा कर दी गयी। संधि की भावना बनी ही हुई थी और दो हथियार बंद शक्तियाँ अंततोगत्वा टकरा कर ही रही। ब्रिटेन के विदेश सचिव ने इस परिस्थिति पर टिप्पणी करते हुए कहा था, "पूरे यूरोप में अंधेरा छा रहा है और हम अपने जीवन में फिर रोशनी न देख सकेंगे।"

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