महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन -Takeknowledge

      अन्य वैष्णव भक्ति आंदोलनों के समान महाराष्ट्र के वैष्णव आंदोलन पर भी भागवत पुराण का जबरदस्त असर था। इसके अतिरिक्त उन पर शैव नाथपंथियों का भी प्रभाव पड़ा। 11वीं-12वीं शताब्दी के दौरान महाराष्ट्र समाज की “छोटी" जातियों पर इनका गहरा प्रभाव था। ये नाथपंथी काव्य-रचना के लिए मराठी का उपयोग करते थे। ज्ञानेश्वर (1275-1296) महाराष्ट्र के भक्त-संतों में अग्रणी हैं। उन्होंने भागवत गीता पर वृहत भाष्य लिखा है। इसे ज्ञानेश्वरी के नाम से जाना जाता है। यह पुस्तक मराठी साहित्य की आरंभिक कृतियों में से एक है और महाराष्ट्र की भक्ति विचारधारा का आधार है। उन्होंने कई श्लोकों की भी रचना जिन्हें अभंग के नाम से जाना जाता है। उन्होंने सीख दी कि भक्ति के मार्ग से ही भगवान के पास पहुंचा जा सकता है और इसमें जातिगत भेदभाव के लिए कोई स्थान नहीं है।

नामदेव (1270-1350) पेशे से दर्जी थे। यह माना जाता है कि वे महाराष्ट्र भक्ति आंदोलन और उत्तर भारत के एकेश्वरवाद आंदोलन के बीच की कड़ी थे। वे पंधरपुर में रहते थे, पर उन्होंने उत्तर भारत का भ्रमण किया था और पंजाब भी गए थे। उनके भक्ति गीत भी आदि ग्रंथ में संकलित हैं। महाराष्ट्र में नामदेव को बरकरी परंपरा (वैष्णव भक्ति परंपरा) में स्थान दिया जाता है, पर उत्तर भारत के एकेश्वरवादी परंपरा में उन्हें निर्गुण संत के रूप में याद किया जाता है।
महाराष्ट्र के अन्य प्रमुख संतों में एकनाथ (1533-99) और तुकाराम (1598-1650) उल्लेखनीय हैं।

     अन्य प्रदेशों में भक्ति आंदोलन
14वीं शताब्दी के दौरान कश्मीर में शैव भक्ति फली-फूली । यहां के शैव भक्ति संतों में लाल देद नामक एक महिला का नाम सबसे ऊपर आता है। गुजरात में भक्ति का प्रचार वल्लभाचार्य का वल्लभ संप्रदाय करता था। इसके अतिरिक्त नरसिंह मेहता (1414-1481 या 1500-1580) भी प्रमुख संत थे। वे जयदेव और कबीर से परिचित थे और कई संत कवि उनके शिष्य थे। गुजरात के व्यापारियों और जमींदारों के बीच वल्लभं संप्रदाय काफी लोकप्रिय हुआ। 12वीं-13वीं शताब्दी के दौरान कर्नाटक में कन्नड़ भाषी वीर शैवों के बीच शैव भक्ति संप्रदाय विकसित हुआ। उन्होंने भक्ति की परंपरागत अवधारणा को बदल दिया। उनका दृष्टिकोण प्रगतिशील था। उन्होंने इसके माध्यम से समाज की आलोचना करने का बीड़ा भी उठाया।

असम की ब्रह्मपुत्र घाटी और कूच-बिहार में शंकरदेव (1449-1568) ने भक्ति का प्रचार-प्रसार किया। उनका जन्म एक गैर ब्राह्मण भूयान सरदार के परिवार में हुआ था। प्रौढ़ावस्था में वे संन्यासी बन गये और उन्होंने उत्तर तथा दक्षिण भारत के अनेक तीर्थस्थलों का दौरा किया। उन्होंने विष्णु या उनके अवतार कृष्ण . के प्रति पूर्ण समर्पण का उपदेश दिया। उन्हें अहोम राज्य के ब्राह्मण पुजारियों के कोप का शिकार बनना पड़ा और उन्होंने पड़ोसी राज्य कूच बिहार में शरण ली। यहां के राजा ने उन्हें भक्ति के प्रचार-प्रसार की पूरी आजादी दी। इनकी भक्ति एकेश्वरवादी विचारों से प्रभावित थी। इसे एक-शरण-धर्म के नाम से जाना। जाता था, यानी ऐसा धर्म जिसमें एक आराध्य में श्रद्धा या निष्ठा रखी जाती हो। उन्होंने जाति व्यवस्था की आलोचना की और जनता को उनकी भाषा (ब्रज बोली का असमी रूप) में उपदेश दिया। उन्होंने भक्ति के प्रचार-प्रसार के लिए नृत्य-नाटक-संगीत का समावेश किया। उन्होंने सत्र नाम से एक संस्था की भी स्थापना की। सत्र का मतलब है वह मीटिंग जिसमें सभी वर्गों के लोग धार्मिक और सामाजिक मुद्दों पर बातचीत । करने के लिए इकट्ठे होते थे। बाद में ये सत्र मठ में रूपांतरित हो गए। उनके संप्रदाय को महापुरषीय धर्म के नाम से जाना जाता था

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