उत्तर भारत के एकेश्वरवादी आंदोलन और उसकी विशेषताएं -Takeknowledge

  पन्द्रहवीं शताब्दी के दौरान शरू होने वाले एकेश्वरवादी आंदोलनों में निस्संदेह कबीर (1440-13207 आर सर्वप्रमुख शख्सियत थे। वे जलाहों के एक परिवार से संबद्ध थे. जिसने इस्लाम धर्म अपना लिया था। कबार ने अपनी जिंदगी का अधिकांश हिस्सा बनारस (काशी) में बिताया। कबीर के बाद के एकेश्वरवादा संतो में से अनेक ने उन्हें गुरू माना और सभी उनका नाम आदर से लेते थे। उनके "शबद" सिक्ख ग्रंथ आदि ग्रंथ में काफी बड़ी संख्या में संग्रहीत हैं। इससे एकेश्वरवादियों के बीच उनके महत्व का पता चलता है। रौदास-या रविदास कबीर के बाद की पीढी का प्रतिनिधित्व करते हैं। वे जाति से चर्मशोधक (चमड़े का कार्य करने वाले थे। उन्होंने भी बनारस में अपना जीवन बिताया और वे कबीर के मत से प्रभावित थे। धन्ना का काल 15वीं शताब्दी है। राजस्थान के एक जाट किसान परिवार में उनका जन्म हुआ था। इस काल के अन्य संतों में सेन (नाई) और पीपा महत्वपूर्ण है।

गुरुनानक (1469-1539) ने भी कबीर और अन्य एकेश्वरवादियों के समान ही अपने मत का प्रचार किया, पर कई कारणों से उनकी शिक्षा से बाद में एक जनाधारित धर्म, सिक्ख धर्म, का उदय हुआ। कबीर और अन्य संतों के साथ उनकी शिक्षा में आधारभत समानता है और साथ ही वैचारिक स्तर पर भी आधारभूत समानता के कारण नानक एकेश्वरवादी आदोलन से खुद-ब-खुद जुड़ जाते हैं। उनका जन्म पजाब के एक खत्री परिवार में हुआ था। उनके जन्म स्थान को अब ननकाना साहिब के नाम से जाना जाता है। प्रौढ़ वय प्राप्त कर लेने के बाद अपने मत का प्रचार करने के लिए उन्होंने खब यात्राएं की। अंत में उन्होंने पजाक-में एक जगह पर अपना डेरा बसा लिया. इसे डेरा बाबा नानक के नाम से जाना जाता है। यहां उनके शिष्यों में तेजी से वृद्धि हुई। उनके "शबदों" को 1604 ई. में सिक्ख गुरु अर्जन देव ने आदि ग्रंथ में संकलित करवाया।

           समान स्वरूपगत विशेषताएँ
एकेश्वरवादी आंदोलन से जुड़े सभी संतों की शिक्षा में कुछ समानताएं हैं, जिसके कारण इस आंदोलन में एक आधारभूत साम्य दिखाई पड़ता है।

i) अधिकांश एकेश्वरवादी “छोटी' जातियों के थे और वे इस विषय में सजग थे कि इनके विचारों में समानता है। इनमें से ज्यादातर एक दूसरे के मतों और प्रभाव की जानकारी रखते थे। वे अपने पदों और दोहों में एक दूसरे का उल्लेख करते थे और अपने पूर्ववर्ती संत-कवियों का उल्लेख भी करते थे। इससे उनके बीच सौहार्दपूर्ण संबंध का पता चलता है। कबीर ने रैदास को “संतों का संत' कहकर संबोधित किया है। रैदास ने भी सम्मानपूर्वक कबीर, नामदेव, त्रिलोचन, धन्ना, सेन और पीपा का उल्लेख किया है। धन्ना, नामदेव, कबीर, रैदास और सेन की ख्याति और लोकप्रियता का उल्लेख करते हुए गर्व महसूस करते हैं और वे यह स्वीकार करते हैं कि वे इन्हीं संतों से प्रभावित होकर भक्ति की ओर आकर्षित हुए हैं। इस बात पर भी कोई विवादं नहीं है कि नानक पर कबीर का स्पष्ट प्रभाव था। इसलिए अगर बाद के लोगों ने कबीर, रैदास, धन्ना, पीपा आदि को रामानंद का शिष्य माना है, तो कोई आश्चर्य की बात नहीं है। पांचवें सिक्ख गुरु अर्जुन देव ने आदि ग्रंथ में कबीर, रैदास आदि के पदों को संकलित किया। इससे एकेश्वरवादियों की वैचारिक एकता का पता चलता है। 
ii) सभी एकेश्वरवादी प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में वैष्णव धारणा, भक्ति, नाथपंथी आंदोलन और सूफ़ी मत से प्रभावित थे। एकेश्वरवादी आंदोलन में इन तीनों धाराओं की त्रिवेणी मिलती है। पर उन्होंने अधिकतर इन विचारधाराओं को मूल रूप में स्वीकार नहीं किया, बल्कि पुरानी विचारधाराओं की नयी व्याख्याएं की और उन्हें नया अर्थ दिया ।

iii) एकेश्वरवादी यह मानते थे कि भगवान से साक्षात्कार का एक ही मार्ग हैं और वह है व्यक्तिगत अनुभव । वैष्णव भक्ति संत भी यही सानते थे, पर दोनों के दृष्टिकोण में मूलभूत अंतर है। एकेश्वरवादी मानते थे कि ईश्वर एक है। अतएव नानक के ईश्वर का अवतार नहीं हुआ था, वह आकारहीन, निरंकार, शाश्वत (एकल) और अवर्णनीय (अलख) था। अतएव एकेश्वरवादी भक्ति निर्गुण भक्ति थी न कि सगुण । वैष्णव धर्मावलम्बियों की भक्ति सगुण भक्ति थी, जो ईश्वर के कई अवतारों में विश्वास करते थे। एकेश्वरवादियों ने भक्ति का तत्व वैष्णव भक्ति से ग्रहण किया. पर इसे निर्गुण रंग में रंग दिया। कई बार कबीर भगवान राम को उनके नाम से पुकारते हैं। इसी कारण उन्हें राम-भक्त भी कहा जाता है। पर कबीर ने बड़ी स्पष्टता से कह दिया था कि उनके राम दशरथ के महल में पैदा होने वाले दशरथ नंदन नहीं हैं, वे राम भी नहीं हैं, जिन्होंने रावण का वध किया था, बल्कि निराकार और निर्गुण ईश्वर है। एक ईश्वर और निर्गुण भक्ति में विश्वास करने के अलावा, एकेश्वरवादियों ने ईश्वर का नाम जपने, आध्यात्मिक गुरू, भक्ति गीतों के सामूहिक गायन (कीर्तन)। और संतों के संग (सतसंग) के महत्व पर भी बल दिया है।

iv) एकेश्वरवादियों ने जो पथ अपनाया, वह हिन्दू और इस्लाम दोनों धर्मों से परे था। उन्होंने अपने को इन दोनों प्रभावशाली धर्मों से न केवल अलग रखा बल्कि इनकी जमकर आलोचना की। इन्होंने जाति व्यवस्था और मूर्ति पूजा पर तीखा प्रहार किया। उन्होंने ब्राह्मणों और उनके धर्म-ग्रंथों की सत्ता को अस्वीकार कर दिया। कबीर ने अपनी कटु और अक्खड़ शैली में कट्टर ब्राह्मणवाद पर आक्रमण . किया और इसके लिए व्यंग्य का सहारा लिया।

v) एकेश्वरवादियों ने काव्य-रचना के लिए स्थानीय भाषाओं का उपयोग किया। इनमें से कुछ ने उत्तर भारत के विभिन्न प्रदेशों में बोली जाने वाली विभिन्न बोलियों के मिश्रण से अपने काव्य की रचना की। एकेश्वरवादियों ने निर्गण भक्ति का प्रचार करने के लिए अपनी स्थानीय भाषा का प्रयोग नहीं। किया, बल्कि मिली जुली सधुक्कड़ी भाषा का उपयोग किया जिसे सब लोग आसानी से समझ सकें। आम लोगों की भाषा का उपयोग इस दृष्टि से उल्लेखनीय है कि इस काल के संत-कवि विभिन्न प्रांतों का प्रतिनिधित्व करते थे और उनकी स्थानीय भाषाएं अलग-अलग थीं। यह इस आंदोलन की एक प्रमुख विशेषता है। अपने मत के प्रचार के लिए एकेश्वरवादियों ने विभिन्न लोकप्रिय प्रतीकों और संकेतों का उपयोग किया। उन्होंने छोटे-छोटे पदों में अपनी उक्तियां व्यक्त की हैं, जिन्हें आराम से याद किया जा सकता है। अतएव, उदाहरण के लिए कबीर की कविता में अक्खड़पन, औधड़पन, और आम लोगों की भाषा का उपयोग हुआ है। कबीर की कविता मूलतः जनता की कविता है। 

vi) अधिकांश एकेश्वरवादी संत संन्यासी नहीं थे। वे सांसारिक और गृहस्थ जीवन बिताया करते थे। वे लोगों के बीच रहकर उपदेश दिया करते थे। उन्हें पेशेवर संन्यासियों से चिढ़ थी और वे कटु शब्दों में उनकी आलोचना भी करते थे। उन्होंने अपनी कविताओं में बार-बार पेशेवर जाति समुदायों का उल्लेख किया है। इससे स्पष्ट है कि उन्होंने अपना परम्परागत पेशा छोड़ा नहीं था। उनकी तुलना मध्यकालीन यूरोपीय ईसाई संतों से भी नहीं की जा सकती, जिन्हें चर्च ने “पवित्र'' घोषित कर दिया था। ये (कबीर आदि संत) एक दूसरे को “संत' या "भगत' कहकर संबोधित किया करते थे और जनता भी उनके लिए इन्हीं संबोधनों का प्रयोग करती थी। आदि ग्रंथ में कबीर, रैदास, धन्ना, पीपा, नामदेव आदि का उल्लेख "भगत' के रूप में किया गया है।

vii) अपने मत का प्रचार करने के लिए ये संत खूब घूमा करते थे। महाराष्ट्र के चौदहवीं शताब्दी के संत नामदेव, घूमते-घूमते पंजाब तक पहुंच गये। वहां उनके विचारों को इतनी लोकप्रियता मिली कि बाद में उसे आदि ग्रंथ में संकलित कर लिया गया। कबीर, रैदास और अन्य संतों के बारे में भी लोगों का - मानना है कि उन्होंने खूब यात्राएं की। 

viii) कबीर और अन्य एकेश्वरवादी संतों के मत देश के विभिन्न इलाकों में फैले और "नीची" जातियों के बीच लोकप्रिय हुए | इनकी लोकप्रियता क्षेत्रीय सीमाओं का अतिक्रमण कर गयी। कबीर को सिक्ख पंथ और राजस्थान की दादू पंथी परंपरा में इतना सम्मानजनक स्थान प्राप्त होना इस तथ्य को । प्रमाणित करता है। दो सौ साल बाद और वह भी दूरस्थ प्रदेशों में इन संतों की लोकप्रियता बरकरार रही। 17वीं शताब्दी के महाराष्ट्र के संत तुकाराम ने अपने को कबीर, रैदास, सेन, गोरा आदि का । अन्यायी और शिष्य बताया। 17वीं शताब्दी में लिखी एक फारसी पुस्तक दबिस्तान-ए मजाहिब में धर्मों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया है। इसमें उत्तर भारत के लोगों के बीच कबीर की। लोकप्रियता का जिक्र हुआ है। 

ix) जमता के बीच इन एकेश्वरवादी संतों के मत काफी लोकप्रिय हुए। बाद में प्रमुख संत जैसे कबीर. रैदास और नानक के अनुयायियों ने अपने को एक सम्प्रदाय या पंथ के रूप में संगठित किया और फलस्वरूप कबीर पंथ, रैदासी, नानक पंथ आदि अस्तित्व में आये । इन सभी पंथों में, केवल सिक्ख पंथ जैन-धर्म का स्वरूप प्राप्त कर सका। दूसरे पंथ भी आज किसी न किसी रूप में अस्तित्व में हैं। पर उनके अनुयायियों की संख्या काफी कम है और आधार भी संकीर्ण है।


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