सूफी मत की विशेषताएँ -Takeknowledge

    भारत और उसके बाहर कई सूफी मत या सिलसिले विकसित हुए। प्रत्येक मत की अपनी-अपनी खास विशेषताएँ थीं, पर सभी सूफी मतों में कुछ समान विशेषताएँ भी थीं। हम यहां इसी प्रकार की विशेषताओं को बताएगें -

i) सूफी मत का उदय इस्लामी देशों में हुआ। इसमें अलौकिक यथार्थ (हक़ीक़त) से सीधा सम्पर्क स्थापित करने के लिए सूफ़ी मार्ग (तरीक़ा) पर चलने का महत्व बताया गया। 

ii) सूफ़ी मत के अनुसार व्यक्ति को ईश्वर का अनुभव करने के लिए कई “पड़ावों" या "चरणों" (मकामात) और मनोवैज्ञानिक परिस्थितियों का सामना करके (हल) गुजरना पड़ता है।

 iii) सूफ़ी मार्ग को कोई भी व्यक्ति केवल आध्यात्मिक गुरु (शेख, पीर या मुर्शिद) के कडे निरीक्षण में ही पार कर सकता है। शेख, पीर या मुर्शिद का दर्जा वही पा सकते हैं, जिन्होंने सफलतापूर्वक इस मार्ग को तय कर लिया हो और ईश्वर(अल्लाह) से सीधा संवाद स्थापित कर लिया हो।

iv) शिष्य (मुरीद) कई “पड़ावों" और "चरणों' से गुजरता है। वह ईश्वर में ध्यान लगाने और ध्यान केन्द्रित करने (जिक्र) के लिए आत्म-संताप, ईश्वर का नाम बार-बार जपना जैसे आध्यात्मिक अभ्यासों से गुजरता है। 

v) सूफ़ी आवेग उत्पन्न करने वाले संगीत आयोजनों (समा) का सहारा लेते थे। इस "समा" का उपयोग परमानन्द की अनुभूति प्राप्त करने के लिए किया जाता था। कुछ सूफी मत कुछ खास किस्म के संगीत आयोजनों या "समा" को मंजूरी नहीं देते थे। उलेमा इस प्रथा के बिल्कुल खिलाफ थे। 

vi) सूफ़ी मत अनेक सिलसिलों में विभक्त था । सभी सिलसिले अपने संस्थापक के नामों पर आधारित थे, जैसे सुहरावर्दी, कादिरी, चिश्ती आदि । एक सूफ़ी गुरु और उसके शिष्यों को मिलाकर एक सिलसिले का निर्माण होता था। 

vii) सूफ़ी मत की गतिविधियों का केन्द्र एक आश्रम (खानकाह) होता था। यहां पीर अपने शिष्यों को आध्यात्मिक शिक्षा दिया करता था। पीर की ख्याति और प्रतिष्ठा पर खानकाह की लोकप्रियता आधारित होती थी। जो पीर जितना ज्यादा प्रतिष्ठित होता था, उसके खानकाह में शिष्यों की संख्या भी उतनी ही अधिक होती थी। इन खानकाहों को दान और वृत्ति मिला करती थी।

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