मुगल सत्ता की स्थापना -Takeknowledge
बाबर ने अब तक उत्तरी-पश्चिमी सीमांत क्षेत्रों पर कुछ सफलताएं हासिल की थी। इसके बाद उसने भारत में अपने सहयोगियों के साथ नियोजित ढंग से आक्रमण करने की योजना बनाई।
1526 में पानीपत में बाबर और उसके सहयोगियों तथा सुल्तान इब्राहिम के बीच युद्ध हुआ। बाबर ने उत्तर भारत में पहली बार बन्दूकों व तोपों का उपयोग किया और उसे आसानी से विजय मिल गयी। युद्ध में इब्राहिम लोदी मारा गया और आगरा से दिल्ली तक का रास्ता बाबर के लिए साफ हो गया।
बाबर ने जब अपने ही बल पर लोदी शासन को ध्वस्त कर दिया तो उसके भारतीय साथी निराश हो गये। असंतुष्ट अफगान और गैर-अफगान सरदारों ने राजकुमार महमूद लोदी को अपना सुल्तान मान लिया और मुगलों के खिलाफ सशस्त्र संघर्ष करते रहने का निश्चय किया। बाबर और हुमायूं के शासन के पन्द्रह वर्षों की अवधि को लोदी साम्राज्य के पतन और शेरशाह सूर के साम्राज्य की स्थापना के बीच के काल को मुगल शासन के राज्यातंराल के रूप में स्वीकार किया जाना चाहिए।
बाबर (मृत्यु 1530) और हुमायूं ने भारत में लोदी सुल्तानों द्वारा स्थापित राज्य व्यवस्था को ही लागू रखा। जैसे जमींदारों के प्रति अपनायी जाने वाली नीति के मामले में दिल्ली सुल्तानों द्वारा स्थापित परंपरागत । नियमों को ही उन्होंने जारी रखा । बाबर ने लिखा है कि हिंदुस्तान के सभी कोनों में राय और राजा मिल जाएंगे, वे मुस्लिम शासकों के आज्ञाकारी भी होते हैं और अवज्ञाकारी भी । वस्तुतः परंपरागत रूप से राजाओं के नाममात्र की अधीनता स्वीकार कर लेने से ही वह संतुष्ट हो गया। बाबरनामा में स्पष्ट रूप से यह वर्णित है कि बाबर ने सरदारों को इलाकों का भार सौंपा, राजस्व वसूल करने का अधिकार दिया और पंरपरागत रूप से शासक के नाम पर शासन करने की प्रथा को जारी रखा। खालिसा के अधीन परवानों में। शिकदारों की नियुक्ति हुई । संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि बाबर और हुमायूं ने उत्तर भारत की राजनीतिक व्यवस्था में कोई खास परिवर्तन नहीं किया।
सुल्तान महमूद लोदी के नाममात्र के नेतृत्व में अफगान और गैर-अफगान सरदार बाबर और हुमायूं के खिलाफ कुछ खास नहीं कर सके। इसका महत्वपूर्ण कारण, उनके आपसी झगड़े और षड़यंत्र थे। 1531 में हुमायूं के हाथों परास्त होने के बाद पुराने अफगान सामंतों के अस्तित्व पर प्रश्नचिह्न लग गया। इसके बाद शेर खाँ सूर ने मुगलों के खिलाफ अफगानों का नेतृत्व किया। इस समय तक वह चुनार के किले और दक्षिण बिहार के इलाके पर अपना अधिकार जमा चुका था। पुराने अफगान सरदार गुजरात भाग गये। वहां उन्होंने सुल्तान बहादुरशाह की शरण ली, जो दिल्ली पर अधिकार जमाने के सपने देख रहा था। गुजरात का सुल्तान बहादुर शाह सबसे शक्तिशाली भारतीय राजा था। उसकी आर्थिक स्थिति सुदृढ़ और सैन्य शक्ति बहुत प्रबल थी। गुजरात के कुछ समुद्र तटीय शहर अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के गढ़ बन गये थे। इन शहरों में विदेशों से व्यापारी आया करते थे। व्यापार के फलने-फूलने से राजकोष भी भरा-पूरा था। उसके पास एक मजबूत सेना भी थी।
1531 ई० से सुल्तान बहादुरशाह ने विस्तारवादी नीति का आरंभ किया। उसने मालवा पर आक्रमण किया और उसे अपने राज्य में मिला लिया। 1533 ई० में उसने चित्तौड़ पर घेरा डालकर उस पर कब्जा। कर लिया। इसी समय गुजरात तोपखाने के सेनाध्यक्ष रूमी खाँ ने चुपके से हमायूं से संधि कर ली और उसे सहायता देने का वचन दिया। रूमी खाँ की धोखा-धड़ी के कारण गुजरात की सेना पूरी तरह अस्त-व्यस्त हो गयी। अंततः बहादुरशाह ने दीव के टापू पर शरण ली और मालवा तथा गुजरात पर हुमायूं का शासन हो गया। पर इस विजय का आनन्द देर तक न टिक सका। गुजरात में अपनी विजय के बाद हुमायूं ने यह खबर सुनी कि शेर खां सूर ने बगावत कर दी है और अपने को शेरशाह सूर घोषित कर दिया है। उसने बंगाल के सुल्तान से बड़ा भूभाग छीन लिया और मुगलों के पूर्वी राज्य-क्षेत्रों पर हमला किया। हुमायूं ने अन्य सरदारों के साथ अपने भाई अस्करी को गुजरात में छोड़ दिया और आगरे की ओर पलटा । हुमायूं वे गुजरात से निकलते ही मुगलों के खिलाफ बगावत हो गयी। बहादुरशाह दीव से लौट आया और गुजरात और मालवा से उसने मुगलों को मार भगाया।
इसी समय हुमायूं ने जल्दबाजी में युद्ध की तैयारी की और शेरशाह के गढ़ चुनार की ओर प्रस्थान किया। इस समय शेरशाह रोहतास का किला उसके राजा से छीन चुका था । हुमायूं ने चुनार के किले पर आधिपत्य जमा लिया और बिना किसी अफगानी प्रतिरोध के बंगाल में प्रवेश किया। उसने गौड़ (बंगाल) में कुछ समय निष्क्रियता. में बिताए । शेरशाह ने इस परिस्थिति का पूरा फायदा उठाया। उसने आगरा और गौड़ की संचार व्यवस्था को बंद कर दिया और बनारस तक के मुगल प्रांतों पर हमले किए। इस बिगड़ती हुई परिस्थिति को देखते हुए हुमायूं आगरा की ओर बढ़ा। 1539 ई० में चौसा में उसकी मुठभेड़ अफगान सेना से हुई और उसे पराजय का सामना करना पड़ा। उसने पुनः एक सेना संगठित की और 1540 में कन्नौज के युद्ध में शेरशाह का सामना किया। हुमायूँ पुनः पराजित हुआ और काबुल भाग गया।
दूसरा अफगान साम्राज्य
अंततः हमायूं को भगाने के बाद शेरशाह पूर्व में सिंधु से लेकर बंगाल की खाड़ी तक तथा उत्तर में हिमालय से लेकर दक्षिण में मालवा तक के उत्तर भारत का सम्राट बन गया । मुल्तान और ऊपरी सिंध के बलोच । सरदार और पश्चिमी राजपूताना में मालदेव और रायसीन के भैया पूरनमल पराजित हो गये। शेरशाह सूर के अधीन एक बार फिर एक केन्द्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था की शुरुआत हुई। शेरशाह के आगमन के बाद, उत्तर भारत में एक नये इतिहास का सूत्रपात हुआ। विचारों और संस्थाओं में भी कई बदलाव आये।।
1545 ई० में बारूद के सुरंग में आग लग जाने से उसकी मृत्यु हो गयी। उसके पुत्र और उत्तराधिकारी इस्लाम शाह (1545-1553) ने न केवल उसकी व्यवस्था को बरकरार रखा बल्कि जहां जरूरी था वहां उसने सुधार की कोशिश भी की। निश्चित रूप से यह एक प्रकार की व्यक्तिगत सरकार थी, जहां व्यक्तिगत शौर्य पर ही शक्ति और समृद्धि निर्भर करती थी!
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