बंगाल में वैष्णव भक्ति आंदोलन -Takeknowledge

      बंगाल की वैष्णव भक्ति कई मामलों में उत्तर भारत और प्राचीन दक्षिण भारत की भक्ति से अलग थी। इसे दो विभिन्न परंपराओं ने प्रभावित किया। एक तरफ बंगाल की भक्ति भागवत पुराण की वैष्णव भक्ति परंपरा और कृष्ण लीला के महिमा-बखान से प्रभावित थी और दूसरी तरफ सहजिया बौद्ध और नाथपंथियों की परंपरा से। जयदेव (12वीं शताब्दी) से लेकर बाद तक के अनेक भक्त कवियों में वैष्णव भक्ति का यह प्रभाव झलकता है। जयदेव ने गीत गोविंद की रचना संस्कृत में की थी। उन्होंने मैथिली भाषा में भी गीत रचे थे। इसे बाद में बंगाल वैष्णव भक्ति परंपरा में समेट लिया गया। उन्होंने कृष्ण और राधा के प्रेम को एक शृंगारिक अलौकिक स्वरूप प्रदान किया। इस समय बिहार और बंगाल में सहजिया बौद्ध और नाथपंथी जैसे गैर वैष्णव संप्रदाय भी अस्तित्व में थे। इन्होंने भी बंगाल में भक्ति आंदोलन को प्रभावित किया। ये पंथ धर्म के गूढ़ और भावात्मक तत्वों को आसान और स्वाभाविक बनाकर पेश किया करते थे। चंडीदास (14वीं शताब्दी) और विद्यापति (14-15 शताब्दी) जैसे वैष्णव भक्ति कवि इन गैर वैष्णव पंथों से प्रभावित हुए। भागवत परंपरा का भी उन पर गहरा असर था। प्रथम बंगला कवि चंडीदास और मैथिल कवि विद्यापति ने कृष्ण-राधा संबंध को महिमा मंडित किया। इनके गीत बंगाल के वैष्णव भक्ति आंदोलन के अंग के रूप में विकसित हुए। चैतन्य खुद सहजिया सिद्धांत से प्रभावित नहीं थे। यह संभव है कि चंडीदास और विद्यापति के माध्यम से बंगाल के भक्ति आंदोलन पर इन रहस्यवादी पंथों का प्रभाव पड़ा हो । पर निश्चित रूप से इस भक्ति आंदोलन पर मूल प्रभाव भागवत् पुराण का ही था।

बंगाल के वैष्णव संतों में चैतन्य (1486-1533) सर्वप्रमुख हैं। उन्होंने पूर्वी भारत के अन्य हिस्सों में इसका। प्रचार किया। एक धार्मिक पुरुष के रूप में उनकी प्रतिष्ठा इतनी ज्यादा थी कि लोग उनके जीवित रहते ही उन्हें कृष्ण का अवतार मानने लगे थे। चैतन्य के आगमन के बाद बंगाल के वैष्णव भक्ति आंदोलन का स्वरूप बदल गया। अब इसमें केवल भक्ति के गीत ही नहीं रचे जाते थे, बल्कि यह एक सुधार आंदोलन के रूप में विकसित हुआ, जिसका एक व्यापक सामाजिक आधार था।

चैतन्य ने कृष्ण भक्ति को लोकप्रिय बनाने के लिए जाति, धर्म और लिंग के बंधनों को तोड़ दिया। सभी जातियों और समुदायों के लोग उनके अनुयायी थे। हरिदास उनका एक प्रमुख शिष्य था। वह मुसलमान था। उसने संकीर्तन और सामूहिक नृत्य की प्रथा को लोकप्रिय बनाया।

चैतन्य ने परंपरागत ब्रह्मवादी मूल्यों को बिल्कुल. त्याग नहीं दिया। उन्होंने ब्राह्मणों और उनके ग्रंथों को चुनौती नहीं दी। उन्होंने 'नीची' जति के शिष्यों के प्रति ब्राह्मण शिष्यों की जातिगत भावनाओं को अनुमोदित किया। उन्होंने संस्कृत के ज्ञाता छः ब्राह्मण गोस्वामियों को मथुरा के निकट वृंदावन भेजा। वहां उन्होंने एक ऐसे धर्म संस्थान की स्थापना की, जिसमें परंपरागत पूजा और अनुष्ठान का प्रावधान था और भगवान तक पहुंचने में जातिगत बाधाएँ भी थीं। इन गोस्वामियों ने धीरे-धीरे अपने को चैतन्य की मान्यता और बंगाल में पनप रहे लोकप्रिय आंदोलन से अलग कर लिया।

बंगाली समाज पर चैतन्य के आंदोलन का अच्छा खासा प्रभाव पड़ा। उन्होंने संकीर्तन में जातिगत असमानता पर अंकुश लगाया और इस प्रकार बंगालियों के जीवन में एक प्रकार की समानता की भावना आई। बंगाल के साथ-साथ यह आंदोलन उड़ीसा में पुरी में भी लोकप्रिय था। इन स्थानों पर उनके शिष्य केवल ब्राह्मण विद्वान नहीं थे, बल्कि उनके शिष्यों में आम आदमियों की संख्या ज्यादा थी। वे बंगाली में लिखते थे. भक्ति का प्रचार करते थे और वे चैतन्य को जीवित कृष्ण या राधा-कृष्ण के रूप में देखते थे।

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