लोदी वंश की प्रशासन व्यवस्था कैसी थी -Takeknowledge
शेरशाह सम्भवतः अलाउद्दीन खिलजी (1296-1316) के शासन के इतिहास से प्रेरित था। उसने खिलजी, सुल्तान के अधिकांश नियमों और कानूनों को अपना लिया, हालांकि खिलजी के समान उसने उन्हें लागू करने के लिए उतनी कठोरता नहीं अपनायी । दोआब क्षेत्र में सरकार (खिलजियों के शिक का पर्याय) प्रशासनिक व राजस्व की इकाई था, जबकि प्रतिरक्षा व प्रशासन की सहूलियत के लिए बंगाल, मालवा, राजपूताना, सिंध और मुलतान जैसे दूर के क्षेत्रों में प्रशासनिक इकाई के रूप में विलायत की व्यवस्था को कायम रखा गया। एक विलायत में कई सरकारें होती थीं। सरकार के अंतर्गत कई परगने होते थे, प्रत्येक परगने में कई गांव होते थे । गांव मूलतः राजस्व की इकाई था। सरकार या विलायत में नियुक्त सरदार को असीमित अधिकार नहीं दिए जाते थे। नये नियमों और कानूनों को लागू करने के लिए उसे हमेशा शाही फरमान के जरिए निर्देश भेजे जाते थे। जासूस पदाधिकारियों के व्यवहार की सूचना सुल्तान को देते रहते थे। सही ढंग से काम न करने वाले पदाधिकारियों को दंड दिया जाता था। बंगाल के राज्याध्यक्ष खिज्र तुर्क को इस कारण से बर्खास्त कर जेल में डाल दिया गया क्योंकि उसने शेरशाह की अनुमति के बिना बंगाल के भूतपूर्व सुल्तान की बेटी से शादी कर ली थी और स्वतंत्रता जाहिर करने की कोशिश की थी।
इसी प्रकार शेरशाह को जिन क्षेत्रों में विरोध की आशंका थी, उन क्षेत्रों में उसने अफगानों को बसाकर अफगान क्षेत्र स्थापित किए। यह उसकी राजत्व नीति की प्रकृति को प्रतिबिंबित करता है। उदाहरण के लिए शेरशाह के शासनकाल में ग्वालियर अफगानों की एक प्रमुख बस्ती थी। संक्षेप में, सभी दृष्टियों से शेरशाह एक निरकुंश शासक था।
शेरशाह ने अपने सरदारों की नियुक्ति में यह खास ध्यान रखा कि एक ही प्रजाति या समुदाय के लोगों का जाए। उसने विभिन्न संप्रदायों से सरदारों की भर्ती की ताकि उसके शासन को किसी गंभीर चुनौती का सामना न करना पड़े। कोई भी समूह इतना शक्तिशाली नहीं था कि वह शासक पर किसी प्रकार का दबाव डाल सके । हम पाते हैं कि खव्वास खां, हाजी खां और हबीब खां सुल्तानी सरदारों को महत्वपूर्ण प्रांत और बड़े "इक्ते" सौंपे गये थे। इससे पता चलता है कि शेरशाह शुद्ध अफगान कुलीन वर्ग की स्थापना को महत्व नहीं दिया। शेरशाह की मृत्यु के बाद उसका राजकुमार जलाल खां इस्लाम शाह के नाम से गद्दी पर बैठा। उसने कई वरिष्ठ और अनुभवी सरदारो को निष्कासित कर दिया । जिन्होंने उसके बड़े भाई आदिल खां का समर्थन किया था। उन्हें निकालने के बाद इस्लाम शाह अपने राजनीतिक विचारों को व्यवहारिक रूप देने के लिए स्वतंत्र था। उसने अपनी राजधानी आगरा के बजाय ग्वालियर को बनाई और चुनार से अपने पिता का खजाना भी ले आया। इस प्रकार दिल्ली की तरह ग्वालियर भी भारतीय-मुस्लिम संस्कति का केन्द्र बना । यह उल्लेखनीय है कि साम्राज्य राजनीतिक व्यवस्था को केन्द्रीकृत करने में इस्लाम शाह शेरशाह से एक कदम और आगे बढ़ गया। उसने सभी से इक्ते वापस ले लिये और पूरे साम्राज्य को खालिसा के अंतर्गत व्यवस्थित किया गया। उसने अपने अधिकारियों को "इक्तों" की जगह नगद वेतन देना शुरू किया। कुलीनवर्ग और को उसने नये स्तरों में पुनर्गठित किया। सैनिकों के सही रखरखाव के निरीक्षण और उनकी देखभाल लिए तथा सरदारों के लिए जरूरी अस्त्रशस्त्रों की पूर्ति के लिए उन्हीं में से पदाधिकारियों की नियुक्ति की गई। कुलानो को युद्ध में काम में लाए जाने वाले हाथी रखने की इजाजत नहीं दी गई थी जो कि राजा का विशेषाधिकार था । इस्लाम शाह अपने सरदारों से बड़ी कड़ाई से पेश आता था, पर वह जनता के प्रति उदार था। उसने जनता के जीवन और संपत्ति को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की। अगर किसी व्यक्ति की हत्या हो जाती या या उसका संपत्ति को कोई हानि पहंचती थी. तो इसके लिए उस इलाके के पदाधिकारी को जिम्मदार ठहराया जाता था। अतः पदाधिकारी दोषी व्यक्तियों को गिरफ्तार करने में बहुत मुस्तैदी दिखाते थे। अपने पिता के समान इस्लाम शाह ने अपने साम्राज्य में निष्पक्ष न्याय व्यवस्था की स्थापना भी की।
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