चंपारन सत्याग्रह - Takeknowledge

                 
                      चंपारन सत्याग्रह

भारतीय राजनीति में प्रादुर्भाव- 
भारतीय राजनीति में गांधी जी का सक्रिय प्रादुर्भाव 1917-18 के काल में हुआ जो कि तीन स्थानीय समस्याओं से संबंधित था। ये समस्याएँ थीं: चंपारन और खेड़ा में किसानों का संघर्ष और अहमदाबाद में मजदूरों का संघर्ष। यहाँ पर गांधी ने सत्याग्रह की तकनीक का इस्तेमाल किया और अंततः इन्हीं स्थानीय संघर्षों के माध्यम से वे संपर्ण भारत के नेता के रूप में उभर कर आये।

 चंपारन
उत्तरी बिहार के तिरहत मंडल में चंपारन एक ऐसा स्थान था जहाँ पर कि एक लंबे समय से कृषकों में असंतोष फैला हआ था। यरोपीय बागान मालिकों ने इस क्षेत्र में 19वीं शताब्दी के प्रारंभ से नील के बागान और फैक्टरियाँ स्थापित की थीं। 1916-17 में चंपारन का अधिकांश क्षेत्र केवल तीन भ-स्वामियों के आधीन था। ये भ-स्वामी-बेतिया, राम नगर और मधुबन जागीरों के मालिक थे। इनमें बेतिया की जागीर सबसे बड़ी थी और उसमें लगभग 1500 गाँव आते थे। भ-स्वामी स्वयं जागीर की देखभाल न कर उसे ठेके पर दे देते थे और ठेकेदारों में सबसे प्रभुत्वशाली वर्ग यूरोपीय बागान मालिकों का था। यहाँ पर असंतोष का मुख्य कारण यह था कि किसानों को भूमि पर स्थाई अधिकार प्राप्त नहीं था। उन्हें बागान मालिकों से जमीन के पट्टे लेने होते थे और ऐसे पट्टे उन्हें इस शर्त पर दिये जाते थे कि वे एक निश्चित भ-भाग पर केवल नील की ही खेती करेंगे। इसके बदले में बागान मालिक किसानों को कुछ अग्रिम धन राशि भी देते थे।

जिस व्यवस्था के अन्दर नील की खेती की जाती थी वह "तिन-कथिया" कहलाती थी। इसमें किसान को अपनी भूमि के 3/20 हिस्से पर केवल नील की ही खेती करनी होती थी और . अधिकांशतः उसकी भूमि के सबसे अधिक उपजाऊ हिस्से पर उसे नील की खेती करने के लिए बाध्य किया जाता था। तिन-कथिया व्यवस्था में यद्यपि 1908 में कुछ सुधार लाने की कोशिश की गयी थी, परंतु इससे किसानों की गिरती हुई हालत में कोई परिवर्तन नहीं हआ था। बागान मालिक किसानों को अपनी उपज एक निश्चित धनराशि पर केवल उन्हें ही उपजाने के लिए बाध्य करते थे और यह धनराशि बहुत कम होती थी। इस समय जर्मनी के वैज्ञानिकों ने कत्रिम नीले रंग का उत्पादन कर लिया था, जिसके परिणामस्वरूप विश्व के बाजारों में भारतीय नील की माँग गिर गयी थी। चंपारन के अधिकांश बागान मालिकों ने यह महसस किया था कि नील के व्यापार से अब उन्हें अधिक मुनाफा नहीं होगा। परंत मनाफे को बनाये रखने के लिए उन्होंने अपने घाटे को किसानों पर लादना शरू कर दिया। इसके लिए जो रास्ते उन्होंने अपनाए उसमें किसानों से यह कहा गया कि मुआवजा दे दें तो किसानों को नील की खेती से मक्ति मिल सकता था। इसके अतिरिक्त  उन्होंने लगान में अत्यधिक वद्धि कर दी और कई प्रकार के अवैध कर किसानों पर लगाये। 

जब 1916 में लखनऊ में हो रहे कांग्रेस अधिवेशन में चंपारन के किसानों की समस्याओं का जिक्र किया गया तो गांधी जी ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। परंत अंततः चपारन के एक किसान राजकुमार शक्ल ने गांधी जी को चंपारन आने के लिए बाध्य किया। जब गाधी जी मोतीहारी (चंपारन का जिला-कार्यालय पहुंचे तो उनकी उपस्थिति को जन शांति के लिए एक खतरा समझा गया। उन्हें चंपारन छोडने का आदेश दिया गया, परंतु गांधी जी ने वहाँ का जनता के प्रति अपने दायित्व को समझते हए इस आदेश को मानने से इनकार कर दिया। तत्काल ही उन्हें गिरफ्तार कर उन पर जिला न्यायालय में मकदमा चलाया गया। परत् । बिहार सरकार ने कमिश्नर और जिला न्यायालय को यह आदेश दिया कि इस मुकदमे को। वापस ले लिया जाए और गांधी जी को जानकारी हासिल कराने में सहायता दी जाए। इसके साथ-साथ गांधी जी को भी यह चेतावनी दी गयी कि वे कोई बखेड़ा खड़ा न करें। परंतु उन्हें किसानों के कष्टों के बारे में जानकारी हासिल करने की पूर्ण स्वीकृति दे दी गयी।

 सरकार ने "चंपारन एगरेरियन कमेटी का गठन किया। गांधी जी भी इस कमेटी के एक सदस्य थे। इस कमेटी ने यह सिफारिश की कि तिन-कथिया व्यवस्था समाप्त कर दी जाये और इसके साथ ही कई अन्य प्रकार के कर भी समाप्त कर दिये जाएँ जो कि किसानों को देने पड़ते थे। बढ़ाये गये लगान की दरों में कमी की गयी और जो वसली अवैध रूप से किसानों से की गयी थी उसका 25 प्रतिशत किसानों को लौटाया जाना था। कमेटी की इन सिफारिशों को 1919 के 'चंपारन एगरेरियन एक्ट' के रूप में पारित किया गया। यद्यपि यह आंदोलन किसानों की समस्याओं से संबंधित था परंत गांधी जी के अधिकांश सहयोगी शिक्षित मध्यम वर्ग से थे, जैसे कि राजेन्द्र प्रसाद, गोरख प्रसाद, आचर्य कृपलानी आदि। स्थानीय महाजनों और गाँवों के मुख्तियारों ने भी गांधी जी को सहयोग दिया था लेकिन सर्वाधिक सहयोग किसानों और उनके स्थानीय नेताओं ने दिया था। गांधी जी ने स्वयं वहाँ पर बहुत ही साधारण जीवन व्यतीत किया। वे पैदल या बैलगाड़ी पर यात्रा करते थे और किसानों से उन्हीं की भाषा में बातचीत करते थे।

भारतीय स्वतंत्रता

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