गदर आंदोलन-Takeknowledge
गदर आंदोलन
1914 में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ गया और बहुत से भारतीय राष्ट्रवादियों को लगा कि ब्रिटेन की कठिनाइयों से लाभ उठाने का यह एक अत्यन्त दलर्भ अवसर था। उन्हें लगता था कि लड़ाई में व्यस्त ब्रिटेन उनकी राष्ट्रीय चुनौती का समुचित उत्तर नहीं दे पायेगा। यह चुनौती दो। विभिन्न प्रकार के राष्ट्रवादियों द्वारा दी गई : उत्तरी अमेरिका में रहने वाले गदर क्रांतिकारियों द्वारा और भारत में तिलक और एनी बिसेंट की होम रूल लीग द्वारा। हम पहले गदर आंदोलन की चर्चा करेंगे।
आंदोलन की पृष्ठभूमि
गदर क्रांतिकारियों में अधिकतर वे पंजाबी प्रवासी थे जो 1904के बाद उत्तरी अमरीका के पश्चिमी तट पर जाकर बस गये थे। इनमें अधिकतर कर्ज के बोझ तले दबे, पंजाब के ज़मीन के लिए इच्छुक किसान थे इनमें विशेषकर जालंधर और होशियारपुर इलाके के किसान थे। इनमें से बहुत से ब्रिटिश भारतीय फौज में नौकरी कर चुके थे। इससे उनमें प्रवास के लिए आवश्यक विश्वास पैदा हो गया था और उनके पास उसके लिए पर्याप्त साधन भी थे। स्थानीय लोगों के विद्वेषपर्ण रवैये जिसमें गोरे मजदरों की यनियनें भी शामिल थीं, प्रतिबंधक प्रवासी नियमों जिनमें भारत सचिव की मिलीभगत शामिल थी, इन सब ने भारतीय समदाय को अहसास दिला दिया कि यदि उन्हें अपने विरुद्ध नस्लवादी भेदभाव का मुकाबला करना है। तो उन्हें स्वयं को संगठित करना होगा। उदाहरण के लिए, एक भारतीय विद्यार्थी तारक नाथ दास जो उत्तरी अमरीका में भारतीय समदाय के आरंभिक नेताओं में से था और जिसने फ्री हिन्दस्तान नामक अखबार भी शरू किया था. यह अच्छी तरह जान गया था कि ब्रिटिश सरकार भारतीय मजदूरों को फीजी में तो काम करने को प्रोत्साहित कर रही थी क्योंकि वहाँ के ज़मींदारों को मजदूरों की आवश्यकता थी लेकिन वह उत्तरी अमरीका में भारतीयों के प्रवास को हतोत्साहित कर रही थी क्योंकि उसे डर था कि वे वहाँ आज़ादी के वर्तमान विचारों से प्रभावित हो जायेंगे।
आरंभिक गतिविधियाँ प्रवासी- भारतीय समदाय में राजनैतिक गतिविधि की हलचल 1907 में ही शुरू होगी रामनाथ परी नामक एक राजनैतिक प्रवासी ने सकलर-ए-आज़ादी नामक पर्चाका उसने स्वदेशी आंदोलन की सहायता का वचन दिया था। तारक नाथ दास ने फ्री हिल निकालना शुरू किया और जी.डी. कुमार ने स्वदेश सेवक नामक पत्र गुरुमुखी में नि जिसमें उसने सामाजिक सुधारों की हिमायत की और हिन्दुस्तानी सिपाहियों को बगा का सुझाव दिया। 1910 तक दास और कमार ने सियैटल (अमरीका में युनाइटेड इंडिया हाउस की स्थापना कर ली जहाँ वे हर हफ्ते हिन्दुस्तानी मजदूरों के गुटों को भाषण दिया करते थे। उन्होंने खालसा दीवान सोसायटी के साथ भी घनिष्ट संबंध स्थापित किये जिसके फलस्वरूप 1913 में लंदन में कोलोनियल सैक्रेट्री और भारत में वायसराय तथा अन्य अफस से मिलने के लिए एक शिष्टमंडल भेजने का फैसला किया गया। एक महीना इंतज़ार करने के बाद भी वे कोलोनियल सैक्रेट्री से मिलने में सफल नहीं हो सके लेकिन पंजाब में वे लेफ़्टीने गवर्नर और वायसराय से मिलने में सफल हो गये। पंजाब में उनकी यात्रा के दौरान पंजाब के विभिन्न शहरों में बहत-सी जन-सभायें आयोजित की गई। जनता तथा अखबारों से बहत । सहायता मिली। इसी बीच 1913 के शरू में हाँगकाँग में मलाया प्रदेशों में काम करने वाले एक सिक्ख पजारी भगवान सिंह कनाडा में बैंकवर शहर गये और खुलेआम ब्रिटिश शासन के खिलाफ हिसक। बगावत करने का प्रचार किया। उनके प्रचार का इतना प्रभाव पड़ा कि उन्हें तीन महीने बाद । कनाडा से निकल जाने को कहा गया लेकिन उनके विचारों ने श्रोताओं में नयी चेतना जगा दी। थी।
संगठन की ओर- ब्रिटिश भारतीय सरकार के रवैये से हताश होकर, उत्तरी अमरीका के भारतीय समुदाय को लगा कि विदेशों में उनकी घटिया स्थिति का कारण उनका एक गुलाम देश का नागरिक होना है। लगातार राजनैतिक संघर्षों, राष्ट्रीय चेतना और भाईचारे की भावना के फलस्वरूप उत्तरी अमरीका के इस समुदाय को एक केंद्रीय संगठन एवं नेता की आवश्यकता महसूस हुई। यह नेता उन्हें लाला हरदयाल के रूप में मिला। जो 1911 में राजनैतिक प्रवासी के रूप में अमरीका आये थे और स्टैनफोर्ड विश्वविद्यालय में तथा अमरीकी बुद्धिजीवियों, उग्रवादियों तथा मजदूरों को अराजकतावादी तथा श्रमिकसंघवादी आंदोलनों के बारे में भाषण दिया करते
थे लेकिन जिन्होंने भारतीय प्रवासियों के जीवन में अधिक रुचि नहीं दिखाई थी। दिसम्बर '1912 में दिल्ली में वाइसराय पर बम द्वारा हमले की खबर से उनके व्यवहार में परिवर्तन
आया क्योंकि उन्हें लगा कि क्रांतिकारी भावना अभी जीवित थी। उन्होंने भारतीय प्रवासी समदाय का नेतत्व संभाल लिया तथा मई 1913 में पोर्टलैंड में हिन्दी एसोसियेशन की स्थापना से एक केंद्रीय संगठन की आवश्यकता भी पूरी हो गई। बाद में इस संगठन का नाम बदल कर हिन्दुस्तान गदर पार्टी रख दिया गया। इसकी पहली मीटिग में बाबा सोहन सिह भाकना इसके अध्यक्ष चुने गये और लाला हरदयाल जरनल सेक्रेटरी तथा पंडित काशी राम मरोली इसके कोषाध्यक्ष बने। इस मीटिंग में अन्य लोगों के अलावा भाई परमानन्द तथा हरनाम सिंह 'टंडीलाट" ने भी भाग लिया था। 10,000 डालर की रकम भी वहीं जमा कर ली गई और फैसला किया गया कि सैन फ्रांसिस्कों में यगान्तर आश्रम नाम से एक मख्यालय की स्थापना की जायेगी और गदर नामक एक साप्ताहिक अखबार निकाला जायेगा जो मुफ्त बाँटा जायेगा।
योजना एवं कार्यवाही - राजनैतिक कार्यवाही की योजना लाला हरदयाल द्वारा सुझाई गई थी और इसे हिन्दी ऐसोसियेशन ने स्वीकार किया था, यह योजना इस समझ पर आधारित थी कि ब्रिटिश "शासन को केवल हथियारबंद विद्रोह द्वारा ही उखाड़ फेंका जा सकता था और ऐसा करने के लिए आवश्यक था कि बड़ी संख्या में भारतीय प्रवासी भारत जायें और यह संदेश जनता तथा हेन्दुस्तानी फौज के सिपाहियों तक पहुँचायें। लाला हरदयाल यह भी मानते थे कि अमरीका में मिली आज़ादी को अंग्रेजों के खिलाफ लड़ने में इस्तेमाल किया जाना चाहिए, अमरीकियों के विरुद्ध नहीं क्योंकि विदेश में रहने वाले हिन्दुस्तानियों को तब तक बराबरी का दर्जा नहीं मिल सकता था जब तक कि वे अपने ही देश में स्वतंत्र नहीं हो जाते। इस समझ को स्वीकार करते हए राष्ट्रवादियों ने एक जबर्दस्त अभियान छेड़ दिया और जिन फैक्ट्रियों और फार्मों पर। हिन्दस्तानी प्रवासी काम करते थे उनका दौरा करने लगे।
अखबार की शुरुआत और उसका प्रभाव पहली नवम्बर 1913 को गदर अखबार की शुरुआत की गई; पहला अंक उर्दू में छपा लेकिन एक महीने बाद उसका गुरुमुखी अंक भी आ गया। गदर अखबार की रूपरेखा राष्ट्रवाद के संदेश को सीधे-सादे लेकिन प्रभावशाली शब्दों में व्यक्त करने के हिसाब से तैयार की गई थी। उसके नाम का ही अर्थ था विद्रोह ताकि उसकी मंशा के बारे में किसी प्रकार का संदेह न है। उसके ऊपर अंग्रेजी राज का दुश्मन' छपा हआ था। इसके अलावा, हरं अंक के मखपष्ठ पर "अंग्रेजी राज का कच्चा चिट्ठा" छपता था जिसमें अंग्रेजी शासन के । 14नकारात्मक प्रभावों का विवरण रहता था। चिट्ठा वास्तव में अंग्रेजी शासन की समस्त आलोचना का सारांश था जिसमें भारतीय संपत्ति की लट, जमीन के ऊँचे लगान, प्रति व्यक्ति निम्न आय, लाखों भारतीयों की जान लेने वाले अकाल का बार-बार पड़ना, फौज पर लम्बे-चौड़े खर्च, स्वास्थ्य पर नगण्य खर्च तथा हिन्द-मसलमानों को लड़वा कर "विभाजन और शासन की नीति आदि का ज़िक्र रहता था। चिट्ठे की आखिरी दो बातें इस सबके समाधान की ओर यह कह कर संकेत करती थीं कि करोडों भारतीयों के मकाबले में हिन्दस्तान में मौजूद अंग्रेज़ों की संख्या बहुत ही कम थी और 1857 के पहले विद्रोह के बाद छप्पन वर्ष बीत गये थे और एक अन्य विद्रोह के लिए समय आ गया था!
गदर जिसका प्रसार उत्तरी अमरीका के भारतीय प्रवासियों में खूब था, जल्दी ही फिलिपाइन्स. हाँग-काँग, चीन, मालाया प्रदेशों, सिंगापुर, त्रिनिदाद तथा होंडूरस के प्रवासियों तक भी पहुँचने लगा और इन केंद्रों में मौजूद हिन्दुस्तानी सेनाओं में भी। इसे भारत भी भेजा जाता था। इसने प्रवासी समुदायों में जबर्दस्त चेतना पैदा की तथा इसे पढ़ने और इसमें उठाये गये मुद्दों पर बहस के लिए कई वर्ग बनाये गये और चन्दे के ढेर लग गये। सबसे अधिक लोकप्रिय थीं इसमें छपने वाली कवितायें जिन्हें जल्दी ही गदर की गंज नाम से संकलित किया गया। इन्हें भारतीयों के सम्मेलन में पढ़ा और गाया जाता था। इन कविताओं में क्रांतिकारी भावना तथा धर्मनिरपेक्षता का भाव भरा था जैसा कि नीचे की पंक्तियों से स्पष्ट है:
न पंडित की जरूरत है
न मल्ला की न फरियाद,
न प्रार्थना गीत गाना है।
इनसे डोलती है नैया हमारी
उठाओ तलवार लड़ने जाना है।
गदर" ने पंजाबियों से अपील की कि वे 1857 के अपने अंग्रेजों की हिमायत की भूमिका का उधार अब उन्हें उखाड़ फेंकने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करके चका दें। वे अंग्रेजों द्वारा बनाई गई वफ़ादार सिपाहियों की अपनी छवि का भी खंडन करें और सिर्फ विद्रोही बनें जिनका एकमात्र उद्देश्य स्वतंत्रा प्राप्त करना था। गदर का संदेश इतनी तेजी से घर कर गया कि स्वयं हरदयाल उन लोगों की तीव्र प्रतिक्रिया से चकित रह गये जो कुछ करने के लिए बेचैन थे।
होमरूल लीग
Lala hardyal was not at all a revolutionary, it was because of his lazyness for printing the preparatory plan for freedom movement.
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