मुस्लिम देशों में सूफी आंदोलन का विकास कब और कैसे हुआ -Takeknowledge

   भारत में 13वीं शताब्दी के आरंभ में सूफ़ी सिलसिलों ने अपनी गतिविधियां शरू कीं। पर इसके काफी पहले इस्लामी प्रभाव के विभिन्न क्षेत्रों में सूफ़ी मत एक सशक्त आंदोलन के रूप में फैल चूका था। भारतीय परिवेश में सूफ़ी मत का एक खास स्वरूप उभरकर आया। पर अपने विकास के आरंभिक चरण में भारतीय सूफ़ी मत इस्लामी दुनिया में विकसित सूफ़ी मान्यताओं और प्रथाओं से प्रभावित हआ। इस्लामी देशों में । 7वीं से 13वीं शताब्दी के बीच सूफ़ी मान्यताओं और प्रथाओं का विकास हुआ था। इस काल में इस्लामी देशों में विकसित सूफ़ी मत को तीन प्रमुख चरणों में विभक्त किया जा सकता है।

 आरंभिक चरण (10वीं शताब्दी तक)
आरंभिक दौर में सूफ़ियों ने कुरान की आयतों को रहस्यात्मक अर्थ देने की कोशिश की। कुरान में उल्लिखित सद्गुणों, जैसे पश्चाताप (तोबा), परहेज़, सन्यास, गरीबी, ईश्वर में विश्वास (तवक्कूल) आदि की उन्होंने गूढ़ व्याख्या की। सूफ़ी आंदोलन के आरंभिक केन्द्रों में मक्का, मंदीना, बसरा और कूफा प्रमुख हैं। आठवीं शताब्दी के सूफ़ियों को "मौनी'' कहा गया, क्योंकि वे मौन रहकर अपनी साधना में लीन रहते थे और जनता के बीच जाकर सूफी मत का प्रचार नहीं करते थे। वे शिक्षा की अपेक्षा मार्गदर्शन में अधिक विश्वास रखते थे। महिला सूफी राबिया (मृत्यू 801 ई.) के काल में बसरा में सफ़ी मत अपने चरमोत्कर्ष पर था।

ईरान, खुरासान्, ट्रांसऑक्सियाना, मिस्र, सीरिया और बगदाद में भी इस काल में सूफ़ा मत का विकास हुआ। ईरानी क्षेत्रों में सूफ़ी मत पर ईरानी विचारों का प्रभाव पड़ा और इसमें व्यक्तिवादी प्रवृत्तियों तथा गैर परम्परावादी सिद्धांतों और मान्यताओं का समावेश हुआ। ईरान के आरंभिक सूफ़ियों में खुरासान के बयाज़िद बिस्तामी (मृ. 874) का नाम प्रमुख है। अपने सूफ़ी मत में उन्होंने न्यास और "सब कुछ ईश्वर में है"  जैसे गूढ़ सिद्धांतों का समावेश कर इस मत को एक नया रूप दिया। उसने सूफी मत में अहम् के दमन (फना) की अवधारणा का समावेश किया। बाद में सूफ़ियों ने भी इस सिद्धांत को अपनाया।

अपने आरंभिक दौर में सूफ़ी बगदाद में भी सक्रिय थे। बगदाद अब्बासी खलीफा, अल जूनेद, की राजधानी थी। अल जुनैद (मृ. 910) को कट्टरपंथी इस्लामी वर्ग का समर्थन प्राप्त था। उसके सूफीमत को नियंत्रित और मयादित माना जाता था, अतः इस मत को मानने वाले लोग मयादित मान गये। अपने समकालीन और बाद के सूफ़ियों पर जुनैद और बिस्तामी दोनों का अच्छा खासा प्रभाव था। इन दोनों द्वारा स्थापित मत एक दूसरे से काफी भिन्न थे। इन्हें जुनैदी और बिस्तामी या ईराकी और खुरासानी के नाम से जाना जाता है।

बगदाद के आरंभिक सूफ़ियों में मंसर अल हल्लाज (मृ.923) का नाम उल्लेखनीय है। पहले वह अल जूनेद का शिष्य था, पर बाद में उसने बयाज़िद बिस्तामी का मार्ग अपनाया। उनके रहस्यवादी कथन "मैं ईश्वर हूँ' ने सूफ़ी आंदोलन को एक नया आयाम दिया। इसने ईरान और भारत में सूफ़ी विचारों के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उलेमा ने 'ईश्वर निंदक' कहकर उसकी आलोचना की और कहा कि ईश्वर से एकाकार होने का उसका दावा एक छल है। उसकी आलोचना की गयी, बंदी बनाया गया और अंततः फांसी पर चढ़ा दिया गया। उसके सिद्धांतों के आधार पर ही "इंसान-ए कामिल" (पूर्ण व्यक्ति) की अवधारणा विकसित हुई।

आरंभ में विभिन्न सूफ़ी मत बहुत संगठित नहीं थे और वे एक जगह से दूसरी जगह घूमते रहते थे। ये लोग छोटे-छोटे समूहों में किसी समर्थ गुरू की तलाश में भटकते रहते थे। अरब क्षेत्र में ये धुमक्कड़ गफी रिवातं या सीमांत आश्रय स्थलों से जुड़े होते थे। ईरानी क्षेत्र में ये आश्रमों (खानकाहों) से जुड़े होते थे। महिला सूफ़ियों के आश्रय स्थल अलग होते थे।



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