लोदी साम्राज्य की अर्थव्यवस्था कैसी थी -Takeknowledge

   

समकालीन लेखक सिकन्दर लोदी की इस बात के लिए प्रशंसा करते हैं कि उसने आवश्यक वस्तुओं की उपलब्धता बढाई और इनका दाम कम रखने में सफलता प्राप्त की। शेख रिजकुल्लाह मुश्ताकी (वाकयात-ए मश्ताकी) के अनुसार अनाज, कपड़े, घोड़े, भेड़ें, सोना और चांदी कम मूल्य पर और पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध थे। समग्रता में पूरी अर्थव्यवस्था को समझने के लिए इसके आधारभूत तत्वों पर विस्तार से विचार-विमर्श करना होगा।

   कृषीय ढांचा
उस समय की राजनीतिक व्यवस्था कृषीय उत्पादन के अधिशेष में राज्य के हिस्से पर निर्भर करती थी।सुल्तान सिकन्दर लोदी ने एक  व्यवस्थित विकासोन्मख भू-राजस्व नीति बनायी। यह नीति उसने अपने राज्य का भोगालिक प्रकृति को मददेनजर रखते हुए अपनायी। चूँकि उसका राज्य चारो ओर से जमीन से ही घिरा था, खेती के विस्तार से प्राप्त अधिक उपज ही उसके वित्तीय संसाधन को बढ़ा सकती थी! बहुत सी अनजुती जमीन पड़ी हुई थी!और अगर खेतिहरों को इसे जोतने से प्राप्त होने वाले अपेक्षित मुनाफों का विश्वास दिलाया जाता तो वे इसे जोत सकते थे। कृषि के विस्तार के लिए कृषकों को प्रोत्साहित करने हेतु सुल्तान ने प्रशासनिक व्यवस्था में कई परिवर्तन किए। भुमिपतियों और सरकारी पदाधिकारियों द्वारा किसानों से कराये जाने वाले बेगार पर प्रतिबंध लगा दिया गया। किसानों को तरह-तरह की रियायतें देकर जमीन जीतने के लिए प्रोत्साहित किया गया। रिजकुल्लाह मुश्ताकी कहते है कि एक इंच जमीन भी अनजुता नहीं छोड़ी गयी। राज्य कर के रूप में कृषि उत्पाद का एक तिहाई हिस्सा लिया करता था और इसे प्रमाण पदाधिकारी पटवारी (वंशानुगत ग्रामीण पदाधिकारी), खोत और मुकद्दम (गांव का मुखिया) के यम स वसूला जाता था। जकात कर (बिक्री और चुंगी या पारगमन कर) समाप्त कर दिए गए।

सुल्तान ने अपने साम्राज्य में किसानों को छूट दे रखी थी कि मूल्यांकन की प्रचलित तीन प्रविधियों में से किसी एक को अपना सकते हैं। राजस्व मूल्यांकन के तीन तरीके थे : फसल का बंटवारा (बटाई), माप (जब्त व्यवस्था), और कनकूत (मूल्यांकन)। सुल्तान सिकन्दर एक मानकीकृत माप व्यवस्था का पक्षधार था। ऐसा कहा जाता है कि उसने अमीन और पटवारी की सुविधा के लिए बत्तीस अँगुल का गज-ए-सिंकदरी निर्धारित किया। इसका उपयोग फसल कटने के समय किया जाता था। पटवारियों की यह जिम्मेदारी थी कि वे प्रति बीघा के हिसाब से उपज का हिसाब रखें और खेती की गयी भूमि का भी माप रखें।

शेरशाह और इस्लाम शाह ने भी कृषि व्यवस्था में महत्वपूर्ण परिवर्तन किए। उन्होंने लोदी काल के राजस्व प्रशासन को फिर से सुव्यवस्थित किया । परगना और सरकार स्तर पर नये राजस्व पदाधिकारियों को नियुक्त करने के अलावा, शेरशाह ने भूमि अधिन्यासियों (वजहदार और मुक्ता) की शक्तियाँ और विशेषाधिकार कम कर दिए। राज्य को देय राजस्व को रोककर रखने वाले और अक्सर लूटपाट में हिस्सा लेने वाले विद्रोही जमींदारों को झुकने के लिए मजबूर किया गया । जमींदार की सीमा में हुए किसी भी अपराध के लिए उन्हें जिम्मेदार ठहराया जाता था।

अब प्रांत (सरकार और विलायत) के गवर्नर (मुक्तियों के लिए) फसल कटने के समय राजस्व मुल्यांकन की कोई भी विधि मनमाने ढंग से नहीं अपना सकते थे । बटाई और मूल्यांकन की विधि समाप्त कर दी गयी और सब जगह जब्त (माप) को लागू किया गया। जरीबाना और मुहास्सिलाना (भूमि और राजस्व वसली को। मापने के लिए) जैसे अतिरिक्त कर समाप्त कर दिए गये । दोषी पदाधिकारियों को दंड दिया जाता था।

शेरशाह ने आदेश दिया कि प्रत्येक वर्ष कटाई के समय जोती गयी भूमि को मापा जाएगा। उत्पाद में राज्य के हिस्से का निर्धारण शाही नियम-कानून के अनुसार होगा। मुल्तान और सिंध के संयुक्त प्रांतों के अलावा यह व्यवस्था पूरे साम्राज्य में लागू थी। दमनात्मक बलूच शासन के कारण मुल्तान का क्षेत्र उजड़ चुका था।। इसलिए शेरशाह ने अपने गवर्नरों को अपने क्षेत्रों के विकास का निर्देश दिया और किसानों से बंटाई के भार पर उत्पाद का एक चौथाई हिस्सा वसूलने को कहा । बलूच सरदारों के पहले स्थानीय शासकों के माग में यही व्यवस्था प्रचलित थी। अन्य प्रांतों में राज्य का हिस्सा कुल कृषीय उत्पाद का एक तिहाई होता था।

अबुल फजल कहता है कि भूमि उर्वरता के हिसाब से शेरशाह ने भूमि को तीन श्रेणियों (उत्तम,मध्यम और निम्न) में विभक्त किया था। इन तीनों तरह की भूमि से प्रति बीघा औसत पैदावार के अनुसार ही वसुली की जाती थी। इसका एक तिहाई हिस्सा राज्य के हिस्से में जाता था। राजस्व संकलनकर्ताओं की सुविधा और दिशा-निर्देश के लिए रे (प्रति बीघा उपज) तैयार कर ली जाती थी। अब बाजार भाव को आधार बना कर राज्य के हिस्से को आसानी से नगदी भाव में बदला जा सकता था। अबुल फजल ने भी  शेरशाह की उपलब्धि का उल्लेख किया है  उसके अनुसार “शेरखाँ (शरशाह) ने सभी प्रांतों में आज की दर के हिसाब से काफी कम दर से राजस्व की मांग की और किसानों तथा सेना की सुविधा के लिए नगद में वसूली की। अतः यह स्पष्ट है कि राज्य का हिस्सा प्रति बीघा में हुई उपज के आधार पर निर्धारित किया जाता था. पर वसुली करते वक्त उस क्षेत्र में चल रहे बाजार भाव के अनुसार फसल को नगदी में बदल दिया जाता था। पर वसुली करते समय उस क्षेत्र मे चल रहे बाजार भाव के अनुसार फसल को नगदी मे बदल दिया जाता था!

1553 में इस्लाम शाह की मृत्यु के बाद उसके संबंधियों और भतीजों के बीच सिंहासन के लिए झगड़े हुए और पूरे साम्राज्य में अव्यवस्था फैल गयी। दो साल तक यही क्रम जारी रहा और काफी लोग मारे गये। भुखमरी से बचने के लिए किसान दूर के इलाकों में भाग गये। इसी का फायदा उठाकर हुमायूं ने उत्तर भारत पर पुनः विजय प्राप्त की और नये सिरे से मुगल साम्राज्य की नींव डाली।

    इक्ता व्यवस्था
पूरा साम्राज्य "खालिसा" और "इक्ता" में विभक्त था। खालिसा सीधा राजस्व मंत्रालय दीवान-ए-विजारत के अधीन था। खालिसा से वसूला गया राजस्व सीधा राजकोष में जाता था। लोदी काल के दौरान कई शहर और परगना को खालिसा के लिए आरक्षित कर लिया गया जहाँ सुल्तान के प्रतिनिधि के रूप में शिकदार सैन्य के साथ-साथ राजस्व प्रशासन की भी देख-रेख करता था। उसे वेतन और भत्ते दिए जाते थे. पर यह नगद वेतन उसके इलाके में वसूले गये राजस्व के बीस प्रतिशत से ज्यादा नहीं हो सकता था। सुल्तान जिन सरदारा को परगना या सरकार जैसी प्रशासनिक इकाइयों का राजस्व वसूल करने का जिम्मा देता था, उन्हे शिकदार से बड़ी सेना की देख-रेख करनी होती थी। आम तौर पर खान नामक अधिन्यासी का पद 5,000 सवार से 10,000 सवार (घुड़सवार) तक का हो सकता था। ऐसे अधिन्यासियों को या तो मुक्ता कहा जाता था या फिर वजहदार।

लोदी शासनकाल में इक्ता व्यवस्था  के तहत जिन सरदारों को वेतन के बदले इक्ता प्रदान किया जाता था, उन्हें उस क्षेत्र विशेष की कानून व्यवस्था और रक्षा का जिम्मा भी संभालना पड़ता था। दीवान-ए-विजारत में उनके राजस्व लेखा को हर वर्ष जांचा और निबटाया जाता था। इसके अलावा बुद्धिजीवियों या अन्य योग्य व्यक्तियों को दिए जाने वाले भूमि अनुदान और एक सरदार को दिए गए इक्ता में फर्क था । इक्ता के आकार में भी फर्क होता था । इक्ता में एक परगना शामिल हो सकता था, परगना से छोटा भी हो सकता था और कभी पूरी सरकार ही शामिल हो सकती थी। अगर इक्ता में वसूला गया राजस्व इक्तादार के हिस्से से ज्यादा हो जाता था तो इस अधिशेष (फवाजिल) को राजकोष में डाल दिया जाता था।

लोटी शासन काल में इक्ता का हस्तांतरण अपवाद रूप में ही हुआ, अतः इक्तादारों ने इक्ता के आर्थिक विकास में काफी दिलचस्पी दिखाई । शक्तिशाली सरदारों ने अपने इक्ता के जमींदारों से दोस्ताना संबंध कायम किए और इस प्रकार केन्द्र के खिलाफ उन्हें स्थानीय सहयोग मिल गया। सिकन्दर लोदी की मृत्यु के बाद ऐसी एक स्थिति उत्पन्न हो गयी जिसमें सरदारों और सुल्तान इब्राहिम लोदी (सिकन्दर लोदी का पत्र और उत्तराधिकारी) के बीच ठन गयी।

इस स्थिति को टालने के लिए शेरशाह ने इक्ता को हस्तांतरणीय बना दिया। सरदारों का एक इक्ता से दूसरे इक्ता मे स्थानातंरण हो सकता था । उदाहरण के लिए, एक वरिष्ठ सरदार शुजात खाँ सूर को चार बार। बिहार से मालवा वहाँ से हरदयाल सरकार वहाँ से फिर मालवा, स्थानांतरित किया गया।

   नगरीकरण
यह बात आपको याद दिलानी जरूरी है कि इस काल में आर्थिक उन्नति होने से शहरों का विकास हुआ। बहलोल लोदी के शासन काल में शांति रही और पंजाब तथा अन्य क्षेत्रों में नये नगर बसाये गये। सिकन्दर मोदी के शासन काल में नगरीकरण की प्रक्रिया और तेज हुई । इस काल में शहरों और नगरों की स्थापना से संबद्ध जो स्रोत मिलते हैं, उनसे पता चलता है कि इस दिशा में सुल्तान और उनके सरदारों ने गंभीर प्रयत्न किए थे। इस काल में सुल्तानपुर (जालंधर जिला), सिकंदराबाद (बुलंदशहर जिला) और सिकंदराराऊ (अलीगढ़ जिला) जैसे महत्वपूर्ण शहर बसे । जलाली परगना में पिलखना गांव (अलीगढ़ जिला) के चारों ओर कई गांव बसाए गए और इस प्रकार पिलखना एक उपनगर के रूप में विकसित हो गया। इस दौरान भवन निर्माण गतिविधि में भी तेजी आई। उदाहरण के लिए, पिलखना में बनी जामा मस्जिद का भव्य दरवाजा लोदी स्थापत्य शैली का एक नमूना है।

सुल्तान सिकंदर लोदी ने प्रमुख शहर आगरा की स्थापना की। इसे सुल्तान के कारीगरों ने यमुना के किनारे . पोया और बासी गांव के बीच की ऊँची भूमि पर बनाया था, जो आगरा के पुराने किलाबंद शहर से कुछ दूर था। इस नये शहर के विकास के लिए इसे बनाये गये सरकार (एक अपेक्षाकृत बड़ा राज्य क्षेत्र) को मुख्यालय बना दिया गया और साथ ही दिल्ली की जगह इसे ही सल्तनत का भी मुख्यालय बना दिया गया मुल्तान और उसके सरदारों ने आगरा में अपने कारखाने स्थापित किए। इससे देश भर के दक्ष कलाकार विभिन्न शहरों और नगरों से खिंचे चले आये। इसी प्रकार दरबार की तरफ से प्रोत्साहित व्यापार से आकर्षित होकर व्यापारी यहां इकट्ठा होने लगे। विदेशों से भी व्यापारी आने लगे। इस क्रम में आगरा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार का प्रमुख केन्द्र बन गया।

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