मोर्ले-मिन्टो सुधार -Takeknowledge

                    मोर्ले-मिन्टो सुधार

1909 के मोर्ले-मिन्टो सधार का पारित होना 1892 के इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट (Indian Act) के उपरांत की राजनैतिक हलचल तथा तीव्र गतिविधियों के दौर की पृष्ठभूमि में देखी जानी चाहिये। 

  संवैधानिक परिवर्तनों की आवश्यकता 
कांग्रेस के बाहर (सन् 1892 के बाद के पंद्रह सालों में) कांग्रेस के लक्ष्यों और प्रणाली के प्रति असंतोष की भावना पनप रही थी। सन् 1885 में हाईस्कूल (मैट्रिक) में उत्तीर्ण होने वाले विद्यार्थियों की संख्या 1286 थी जो सन् 1906 में बढ़कर 8211 हो गई। यद्यपि आज के मापदण्ड से यह संख्या हास्यास्पद सीमा तक कम मालम पड़ती है परंत मात्रा की दृष्टि में इसमें सात गनी वृद्धि हई थी। यही प्रवृति समाचार पत्रों और पत्रिकाओं के प्रकाशन और बिक्री के संबंध में देखी गयी। इससे यह संकेत मिलता है कि उन भारतीयों की संख्या में, जो कि नागरिक के रूप में अपने अधिकारों के प्रति सजग हो सकते थे और सरकार के कर्तव्यों के प्रति भी जागरूक हो सकते थे, साथ ही साथ लोगों की संख्या में, जो कि विदेशी शासन की हानियों को समझने लगे थे, बहत अधिक वद्धि हई थी। इन्हीं वर्षों में उग्रवाद तथा । क्रांतिकारी विचारधारा का भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन के अंतर्गत उदय हुआ था, जिनके लिए अन्य बातों के अलावा कर्ज़न की नीतियाँ काफी हद तक जिम्मेदार थीं। 
सन् 1898 से सन् 1905 तक के काल में गवर्नर जनरल के रूप में कार्य करने वाले लॉर्ड कर्जन में स्वाभिमान कट-कूट कर भरा हुआ था, जो कि ग्रेट ब्रिटेन की सदृढ़ अंतर्राष्ट्रीय स्थिति को दर्शाता था। उसकी केंद्रीयकरण की नीति, शिक्षित भारतीयों की आकांक्षाओं तथा भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रति उसकी प्रत्यक्ष अवमानना और सबसे ज्यादा उसका बंगाल विभाजन का निर्णय ऐसी बातें थीं जिनसे जनता का विरोध उभर कर सामने आ गया था। दिसंबर 1903 से, अर्थात जब से विभाजन की योजना घोषित की गई थी, तब से बंगाल के निवासियों ने अपने अंसतोष को खले आम और स्पष्ट रूप से व्यक्त करना प्रारम्भ कर दिया था। बहुत सी वैकल्पिक योजनाएँ भी प्रस्तत की गईं। फिर भी विभाजन की योजना। कार्यान्वित की गई। यह अलोकप्रिय निर्णय शासक वर्ग के द्वारा शासित वर्ग की भावनाओं। को पूर्ण अवहेलना का प्रतीक बन गया। कांग्रेस के नेता अपने संगठन के लक्ष्य पर पुनर्विचार करने लगे, और खासकर ब्रिटिश सरकार पर इस निर्णय को बदलने के लिए दबाव डालने के लिए कोई उपाय सोचने लगे। विभाजन के निर्णय के फलस्वरूप, ब्रिटिश शासन के खिलाफ उभरा कटु विरोध कलकत्ता तथा अन्य स्थानों में हए विरोध प्रदर्शनों में व्यक्त हआ और साय हा साथ स्वदेशी, बहिष्कार तथा राष्ट्रीय शिक्षा के नारे भी बलंद किए गए।

 कुछ नरम दलीय नेताओं ने भी. खासकर बंगाल में उग्रवादियों के बहिष्कार और स्वदेशी कायक्रम का खुले आम समर्थन किया। लेकिन शीघ्र ही वे अपने पराने ढरे, "प्रार्थना और याचिका पर वापस आ गये। वे चाहते थे कि सरकार कछ सधार करके अपनी उदारता का परिचय दे। सन् 1905 के बनारस में हए कांग्रेस अधिवेशन में अपने अध्यक्षीय भाषण में गोपाल कृष्ण गोखले ने कहा था, "कांग्रेस का लक्ष्य है कि भारत का शासन खद भारतीयों के हित में किया जाये।" उनकी तात्कालिक माँगें थीं कि विधान परिषदों में सुधार किए जाएँ। और कम-से-कम तीन भारतीयों को भारत सचिव की काउंसिल में नियक्त किया जाये। नर' दल के नेता तब अधिक आशावान हो गए जब 1905 के अन्तिम दिनों में ब्रिटेन में सत्ता, लिबरल पार्टी के हाथ में आ गई और अपने उदार विचारों के लिए विख्यात मोर्ले भारत सचिव बनाए गए। कुछ समय पूर्व ही कंजरवेटिव लॉर्ड मिन्टों ने लॉर्ड कर्जन के उत्तराधिकारी के रूप में गवर्नर जनरल का कार्यभार संभाला था। मोर्ले और मिन्टो के नाम इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट, 1909 में किए गए परिवर्तनों के साथ जोड़ दिए गए, और यह ऐक्ट "मोर्ले-मिन्टो सधार' के रूप में विख्यात हुआ।

मोर्ले तथा मिन्टो दोनों की पृष्ठभूमि, प्रतिष्ठा और अनुभव में बड़ा अन्तर था। परन्तु जहाँ तक भारत के प्रति नीति का सवाल है दोनों का दृष्टिकोण एक समान था। दोनों यह मानते थे कि बंगाल विभाजन एक भारी भूल थी और उसका परिणाम सरकार के प्रति विरोध की भावना का उग्र होना था। उन्हें यह भी भय था कि विरोध की भावना मसलमानों में भी व्याप्त हो रही है। उनकी ये भावनाएं स्पष्ट रूप से सरकारी और गैर सरकारी पत्राचार में व्यक्त हई। उदाहरण के लिए एक सार्वजनिक संदेश में भारत सरकार ने लिखा।

"ऐसा लगता है कि अंग्रेजी बोलने वाले भारतीय समदाय पर हमारी पकड धीरे-धीरे कमजोर होती जा रही है और इस बात के संकेत हैं कि इस समुदाय के एक बड़े हिस्से में दबी उनकी शत्रता धीरे-धीरे समाज के निम्न वर्ग तक भी पहँच रही है, जो कि इसकी वजह तो नहीं जानता है पर यह ज़रूर देखता है कि अंग्रेज अधिकारी का जो दबदबा पहले था वह अब नहीं है। अतः सरकारी नीति में परिवर्तन किए जाने की निहायत ज़रूरत है।" 

नये बदलाव से उनका मतलब वैधानिक संस्थाओं के संगठन और कार्य में परिवर्तन से था। इससे वे नरम दल को ब्रिटिश साम्राज्य का पक्षधर बना सकते थे क्योंकि उनकी खास माँग ही संवैधानिक सधारों की थी। हालाँकि अंग्रेज़ शासक यह जानते थे कि नरम दल की बनियादी माँग.कि भारत का शासन भारतीयों के हित के लिए ही किया जाना चाहिए. साम्राज्यवादी। ढाँचे में सही तौर पर बैठ नहीं सकती थी। राष्ट्रीय चेतना के लिए कार्य करना और साथ ही साथ ब्रिटिश शासन की वफ़ादारी का इज़हार, दोनों का एक साथ निभ पाना असंभव था। अत: इस वर्ग के लोगों को अपनी ओर मिलाने के प्रयास के अतिरिक्त अंग्रेजों ने भारत में अपने शासन के समर्थन के लिए नए सहारों की तलाश की। भारत पहुँचने के कुछ समय बाद ही लॉर्ड मिन्टो ने लिखाः "इधर कुछ दिनों से मैं कांग्रेस के लक्ष्यों के संभावित प्रति । संतुलन के विषय में, काफी सोच रहा हूँ।" पहले सरकार का विचार गण्यमानों की एक अलग परिषद् बनाने का था जिसमें अंग्रेजों के प्रति निष्ठावान भारतीय रियासतों के शासक, ज़मींदार आदि शामिल किए जा सकते थे लेकिन बाद में उन्होंने जमींदारों को साम्राज्यिक विधान परिषद् में ही प्रतिनिधित्व देने का फैसला कर लिया।

इसी बीच अक्टबर 1906 में मुसलमानों के नेताओं का एक शिष्टमंडल वाइसरॉय से शिमला में मिला। उन्होंने इस बात की माँग की कि किसी भी प्रकार का प्रतिनिधित्व दिए जाते समय मसलमानों को उनकी संख्या के आधार पर नहीं बल्कि उनके राजनैतिक महत्व के आधार पर प्रतिनिधित्व दिया जाना चाहिए। अंग्रेजों ने इन माँगों में काँग्रेस का आशाजनक विकल्प देख लिया था। अब वे काँग्रेसी नेताओं की बढ़ती हुई माँगों के विरुद्ध मुसलमानों के इस वर्ग को अपना संरक्षण देकर प्रति संतुलन उत्पन्न कर सकते थे। जैसा कि हम देखेंगे कि मसलमानों को महत्व भी दिया गया और उन्हें अलग से प्रतिनिधित्व भी मिला। राष्टवादी नेताओं ने यह तर्क प्रस्तुत किया कि यह शिष्टमण्डल अंग्रेज़ां के इशारे पर ही काम कर रहा था। मोहम्मद अली ने इसे अंग्रेज़ों के निर्देशन में की गई प्रस्तति कहा। मस्लिम लीग के प्रशंसकों ने इस आरोप को निराधार । बताया और स्पष्ट किया कि उन्नीसवीं शताब्दी के नवें दशक में ही सर सैयद अहमद और उनके अन्यायी मस्लिम हितों का प्रतिनिधित्व करने के लिए मसलमानों के मनोनयन की माँग करते आ रहे हैं, और अब जबकि चनाव प्रणाली के लाग किए जाने की संभावनाएँ हैं, तब यह स्वाभाविक ही है कि मसलमानों द्वारा अधिक संख्या में सीटों व पृथक निर्वाचक मण्डल की माँग की जाए। हालांकि इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि अपना शासन बनाए रखने के लिए अंग्रेजों ने साम्प्रदायिक पथकत्व को बढ़ावा दिया था। यही कारण है कि, अपेक्षाकत दर्बल संगठन होने और दो दशको से कांग्रेस द्वारा अपनाई जा रही प्रार्थना और याचिका की पद्धति को अपनाने के बावजद लीग को अपनी स्थापना के तरंत बाद बड़ी सफलता मिली।

संवैधानिक सुधार किए जाने का पहला प्रस्ताव सन 1906 की गर्मियों में किया गया और एक लंबी तथा कष्टसाध्य बहस के बाद मई, सन् 1909 में इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट पारित हआ।

 वैधानिक सधारों के रूप में प्रतिबिंबित मेलमिलाप की इस नीति के साथ ही साथ सरकार ने उन सभी लोगों के निर्मम दमन की नीति अपनाई जो अब भी सरकार का विरोध कर रहे थे या उनकी भर्त्सना कर रहे थे। सन् 1907-1908 के दौरान प्रीवेन्शन ऑफ सेडिशस मीटिंग ऐक्ट के तहत निर्धारित क्षेत्रों में सभाओं के आयोजन पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया तथा न्यज़पेपर्स ऐक्ट के तहत छापाखानों की कर्की और इंडियन क्रिमिनल लॉ अमेन्डमेंट ऐक्ट के तहत बंगाल में समितियों पर प्रतिबंध लगाए जाने के कानन पारित किए गए।

ऐक्ट पारित होने से पहले ही, भारतीय नेताओं की एक महत्वपर्ण माँग, बिना कोई विधिक परिवर्तन किए हए ही मान ली गई। यह थी, भारत सचिव, गवर्नर जनरल तथा प्रांतीय गवर्नरों की परिषदों में दो-दो भारतीयों की नियक्ति। यह कदम प्रशासनिक सक्षमता बढ़ाने के लिए नहीं था, बल्कि साफ़ तौर पर विद्यमान व्यवस्था के अन्तर्गत शिक्षित भारतीयों के लिए उन्नति का अवसर प्रदान करने के लिए उठाया गया था। इस प्रावधान के अन्तर्गत अपेक्षाकृत कम महत्वपूर्ण विभाग जैसे कानन या शिक्षा आदि भारतीयों को सौंप दिए गये थे। फिर भी यह कदम महत्वपर्ण था क्योंकि इससे दो तथ्यों की अप्रत्यक्ष स्वीकृति का संकेत मिलता था। पहला यह कि भारतीय उच्चतम पदों पर नियक्त किए जाने के योग्य हैं और दसरा यह कि ब्रिटिश अधिकारियों की तलना में भारतीय ही अपने देशवासियों की आकांक्षाओं की बेहतर व्याख्या कर सकते हैं।

सन् 1892 के इंडियन काउंसिल्स ऐक्ट की ही भांति सन् 1909 का ऐक्ट भी एक संशोधनात्मक ऐक्ट था। इंडियन काउंसिल ऐक्ट की ही भाँति इसमें भी कानन व अधिनियम बनाने के लिए गवर्नर जनरल तथा गवर्नरों की परिषदों के आकार व कार्यों में परिवर्तन किए गए।

  वैधानिक संस्थाओं के संगठन में परिवर्तन
इस ऐक्ट ने केन्द्रीय तथा प्रांतीय विधान परिषदों का विस्तार किया। केन्द्रीय विधान परिषद् में अतिरिक्त सदस्यों की संख्या 60 कर दी गई जबकि प्रांतीय विधान परिषदों में इनकी संख्या 30 से 50 के बीच रखी गई। इसमें अवकाश प्राप्त सरकारी सदस्यों की संख्या शामिल नहीं है। अतिरिक्त सदस्य दो प्रकार के होते थे-सरकारी और गैर सरकारी। केंद्र में सरकारी सदस्यों (अवकाश प्राप्त सरकारी सदस्य मिलाकर) का बहमत होता था। प्रान्तीय विधान सभाओं में गैर सरकारी बहमत की माँग को मान लिया गया। ऐसा यह मानकर किया गर कि गैर सरकारी सदस्य एक दसरे के इतने विपरीत हितों और वर्गों का प्रतिनिधित्व करें। उनका एकजुट हो पाना कठिन होता। इसके अलावा यदि उनके द्वारा किसी अवांछित जिला को पारित किया भी जाता तो इस प्रकार के बिलों को आसानी से निषेधाधिकार का प्रयोग करके निरस्त किया जा सकता था। केंद्रीय या इम्पीरियल विधान परिषद में 37 सरकारी (9 अवकाश प्राप्त सरकारी सदस्य अतिरिक्त सरकारी सदस्य) और 32 गैर सरकारी सदस्य थे। सन् 1909 का ऐक्ट गैर । सरकारी स्थानों के वितरण और पर्ति के तरीके के कारण महत्वपूर्ण बन गया। इन 32 स्थान में से 5 सरकार द्वारा नामजद व्यक्तियों द्वारा भरे जाने थे। शेष 27 स्थानों का वितरण नि प्रकार से किया गयाः

1 प्रांतीय विधान परिषदों के गैर सरकारी सदस्यों में से 
2 प्रांतों के ज़मींदारों में से 
3 प्रान्तों के मसलमानों में से 
4 संयुक्त प्रांत के मुस्लिम भमिपति और बंगाल के मुसलमान  का बारी-बारी से  प्रतिनिधित्व 
5 बंबई और कलकत्ता के चैम्बर्स ऑफ कामर्स से

 इसी प्रकार के प्रावधान प्रांतीय विधान परिषदों के गठन के लिए किए गए लेकिन उनमें उनको विशिष्ट परिस्थितियों के अनरूप कछ परिवर्तन भी किए गए। मसलमान जमीदारों को जो महत्व प्रदान किया गया वह किसी ठोस एवं सत्यापित लाभदायक प्रथा के अनुसार नहीं था बल्कि उससे भविष्य में होने वाले लाभ की आशा में ही ऐसा किया गया था।

इन स्थानों की पर्ति चनाव द्वारा की जानी थी। तेरह सामान्य स्थानों के लिए दोहरी अप्रत्यक्ष चुनाव प्रणाली अपनायी गयी। किसी शहर या गाँव के करदाता नागरिक नगर पालिकाओं या स्थानीय स्वायत्त संस्थाओं के लिए प्रतिनिधि चनते थे और ये प्रतिनिधि फिर प्रांतीय विधान परिषदों के लिए प्रतिनिधि चनते थे। प्रांतीय विधान परिषदों के ये गैर सरकारी सदस्य फिर सर्वोच्च विधान परिषद् के लिए प्रतिनिधियों का चुनाव करते थे। इस प्रकार प्रान्तीय विधान परिषदों के लगभग 200 गैर सरकारी सदस्यों में से केंद्रीय विधान परिषद् के तेरह सामान्य स्थान भरे गए थे। यह आकार हास्यास्पद सीमा तक छोटा था और यहाँ तक कि । मोंटेग्य-चेम्सफोर्ड रिपोर्ट में भी इसकी आलोचना की गई थी। जमींदारों और मसलमानों के प्रतिनिधि केंद्रीय विधान परिषद् में भी सीधे चुने जाते थे। इसने मुसलमानों और गैर मसलमानों में किए गए भेदभाव को और भी अधिक विद्वेषपूर्ण और अन्यायपूर्ण बना दिया। जबकि मस्लिम ज़मींदारों, समृद्ध व्यापारियों, स्नातकों और पेशेवर लोगों को प्रान्तीय और यहाँ तक कि केन्द्रीय विधान परिषद् में मताधिकार प्रदान कर दिया गया था लेकिन गैर मस्लिम चाहे वे कितने ही समृद्ध और योग्यता प्राप्त क्यों न हों, उनको चनाव में मताधिकार । तब तक नहीं मिल सकता था जब तक कि वे नगरपालिका या जिला परिषद के सदस्य न हों। इस भेदभाव की नीति से गैर मुस्लिमों की भावनाओं को चोट पहँचती थी। इसके अलावा, मस्लिम सदस्यों का चुनाव पृथक निर्वाचक मण्डल द्वारा किया जाता था, अर्थात् उन्हें चुनने वाले सिर्फ मुसलमान ही थे। केवल मुस्लिम मतदाताओं के नामों के पृथक रजिस्टर तैयार किए गए। मुसलमानों को विशेष महत्व दिया गया अर्थात् उन्हें उनकी जनसंख्या की तुलना में अधिक स्थान प्रदान किए गये। उन्हें सामान्य स्थानों के लिए भी अन्य समदायों के समान ही चुनाव में खड़े होने का अधिकार प्रदान किया गया। सन 1909 में केन्द्रीय विधान परिषद् के चनाव में मुसलमान चार असुरक्षित सामान्य स्थानों पर विजयी हाए थे और इस तरह कल 30 गैर सरकारी स्थानों (दो स्थान जो कि चेम्बर्स ऑफ कॉमर्स के लिए निश्चित थे और जिन्हें गैर भारतीयों द्वारा भरा जाना था, उन्हें इसमें शामिल नहीं किया गया है) में से 11 स्थानों पर मुसलमानों का अधिकार था। हालांकि यह उल्लेखनीय है कि यद्यपि अधिकारीगण और मुस्लिम नेतागण हमेशा पूरे मुस्लिम समुदाय के परिप्रेक्ष्य में ही बात करते थे परन्तु व्यवहार में केवल कुछ विशिष्ट गण्यमान वर्ग जैसे जमींदार सरकारी अधिकारीगण आदि का ही वरीयता दी गई। सरकार द्वारा मसलमानों को तरजीह देने का उद्देश्य भारतीय समाज म बाँधे रखना था। संतुलन बनाए रखना नहीं था बल्कि कछ मसलमान नेताओं को एहसान रूपी रेशमी धागस

कुल मिलाकर चुनाव अधिनियम इतने उदार अवश्य थे कि उस समय संवैधानिक आन्दोलन की प्रणाली में विश्वास रखने वाले देश के प्रमख नेतागण विधान परिषदों में प्रविष्ट हो सके। केंद्रीय विधान परिषद् के सदस्यों में नवाब सैयद मोहम्मद बहादुर, श्री निवास शास्त्री, गोपालकृष्ण गोखले, दिनशा वाचा, भपेन्द्रनाथ बस्, सुरेन्द्रनाथ बनर्जी, मदन मोहन मालवीय, तेज बहादर सप्र, मोहम्मद अली जिन्ना, महमूदाबाद के राजा और मज़हर-उल-मुल्क सम्मिलित थे।

 कार्यों में परिवर्तन 
इस ऐक्ट ने काउंसिलों की वैधानिक शक्तियों में कोई परिवर्तन नहीं किया। इसने केवल उनके कार्यक्षेत्र का विस्तार किया। विधान परिषदों के सदस्यों को निश्चित सीमाओं के। अंतर्गत सार्वजनिक हित के विषयों पर प्रस्ताव पारित करने का अधिकार प्रदान कर दिया गया। ये प्रस्ताव संस्तुतियों के रूप में प्रस्तत होने थे और यह सरकार की इच्छा पर था कि वह उन्हें अपनाए, या नहीं अपनाए। वित्त सचिव द्वारा बजट पर बहस करने के लिए विस्तृत नियमावली बनाई गई। बजट को अंतिम रूप में प्रस्तत करने से पूर्व इस बात का अवसर प्रदान किया गया कि उस पर बहस हो और संस्ततियाँ प्रस्तत की जायें। प्रश्न करने के अधिकार को विस्तृत किया गया और जिस सदस्य ने मूल प्रश्न पूछा हो उसे पूरक प्रश्न करने का अधिकार भी दे दिया गया। 
उपरोक्त विचार विमर्श से यह स्पष्ट है कि सरकार ने दो उद्देश्यों को लेकर तथाकथित । संवैधानिक सुधार किए थेः 

i) नरमदल को साम्राज्य का समर्थक बनाकर राज को सदढ़ करना। 
ii) राजनैतिक रूप से सक्रिय हिंदू और मुसलमानों में मतभेदों को प्रोत्साहित करना दूसरे शब्दों में यह प्रयास किया गया कि फूट डालकर शासन करने की नीति के मार्ग में यह मील का पत्थर सिद्ध हो सके। 

यह शीघ्र ही स्पष्ट हो गया कि भारत सरकार इन दोनों उद्देश्यों तक पहुँचने में सफल नहीं हो सकी। प्रारंभ में नरमदल के नेता संतष्ट थे और उन्होंने खुद को उत्साहपूर्वक काम में लगाया। इससे पूर्व वे सन् 1907 में, सूरत में, कांग्रेस पर कब्जा, कर चुके थे, फिर भी वास्तविकता यह थी कि कांग्रेस के भीतर उनकी भूमिका निश्चयात्मक रूप से कम महत्वपूर्ण होती जा रही थी। कांग्रेस की कार्यवाहियाँ फीकी पड़ती जा रही थीं। नरमदल और गरमदल के बीच सन् 1916 में हुए समझौते के बाद नरमदल, स्वतन्त्रता आंदोलन से दर हटता चला गया और उसकी इसमें मुख्य भूमिका क्षीण होती चली गई। 

सरकार राजनैतिक रूप से सक्रिय हिन्दू और मुसलमानों में दूरी बढ़ाने में भी सफल नहीं हई हालाँकि इस विषय में विभिन्न इतिहासकारों के विचार भिन्न-भिन्न हैं। मसलमानों को महत्ता प्रदान किए जाने और पृथक निर्वाचक मंडल दिए जाने के सिद्धान्त को लागू किए जाने का जो अविलम्ब परिणाम था उसने सरकार की आशाओं पर पानी फेर दिया। एक ऐसी संस्था में जहाँ विभिन्न वर्गों को ज़रूरत से ज्यादा सावधानी से छाँट कर एक दूसरे के प्रति संतलन के रूप में कार्य करने के उद्देश्य से रखा गया हो, यह स्वाभाविक था कि कछ सदस्य सरकार का समर्थन करते। परन्त सदस्यों द्वारा सदन में किए गए व्यवहार से यह प्रदर्शित हआ कि शायद ही किसी मामले में उन्होंने ऐक्ट के निर्माताओं के उद्देश्यों के अनुरूप कार्य किया हो। उन्होंने साथ-साथ मिलकर वोट देने की प्रवृत्ति दिखाई, खासकर ऐसे विषयों में वे एकमत रहे जिनपर कछ समय से देश में व्यापक रूप से बहस चल रही थी। यह बात भारत के लिए आर्थिक स्वायत्तता, रेलवे पर राज्य का नियंत्रण, कपास पर आबकारी कर की। समाप्ति, बंधुआ मज़दूरी के रूप में उत्प्रवास का उन्मलन तथा शिक्षा पर अधिक व्यय के मामलों में दिखाई दी। वास्तव में इन मामलों पर बहस ने जनता और एक विदेशी सरकार के आपसी हितों के टकराव को उजागर किया। यह बात सही है कि सरकार ने इन प्रस्तावों को केंद्र में सरकारी सदस्यों के बहमत के बल पर और प्रांतों में सरकारी सदस्यों और नामजद गैर सरकारी सदस्यों के समर्थन के सहारे नामंजर कर दिया। लेकिन विधान सभाओं में हुई इन बहसों ने महत्वपूर्ण कार्य किया। बिलों और प्रस्तावों पर की गई बहस में सदस्यों ने । अकाट्य तर्क प्रस्तुत किए जिन्होंने अक्सर सरकारी सदस्यों को परेशानी में डाल दिया। प्रेस के द्वारा इन तर्कों को देश के कोने-कोने में पहुँचाया गया। इस प्रकार इन बहसों ने अंग्रेज़ी राज की नैतिक आधारशिला को कमज़ोर किया।

 हालांकि मसलमानों को महत्त्व और पथक निर्वाचक मंडल प्रदान किए जाने का निर्णय, आग। चलकर साम्राज्यवादी रणनीति की एक बेहतर चाल साबित हई। एक बार जब धर्म को राजनीति में शामिल कर लिया गया तो धार्मिक हितों के आधार पर राजनैतिक कार्यक्रमों का स्वतः मान्यता मिल गई और लोगों की धार्मिक भावनाओं को उभार कर चुनाव जीतना आर अपनी राजनैतिक महत्ता बनाए रखना एक आम बात हो गई।

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