होमरूल लीग- Takeknowledge

                         होमरूल लीग
प्रथम विश्व महायुद्ध से उत्पन्न परिस्थितियों की एक अन्य कम नाटकीय लेकिन अधिक प्रभावशाली प्रतिक्रिया हई-लोकमान्य तिलक एवं ऐनी बिसेंट की होम रूल लीग।

 लीगों के बनने में सहायक घटनायें
मांडाले, बर्मा में छह वर्ष की लंबी कैद काटने के बाद जब तिलक वापस हिन्दुस्तान लौटे तो सबसे पहले उन्होंने अपना ध्यान स्वयं तथा अन्य उग्रवादियों के कांग्रेस में वापस जाने की ओर दिया जिसमें से उन्हें 1907 में सरत में निकाल दिया गया था। 1907 में भी वे विभाजन से खुश नहीं थे। अब तो वह एकता के और भी हामी बन गये। इसके अतिरिक्त, किसी भी प्रकार की राजनैतिक गतिविधियों के लिए कांग्रेस की महर आवश्यक थी क्योंकि लोगों के दिमाग में कांग्रेस राष्ट्रीय आंदोलन का विशिष्ट चिह्न बन गई थी। साथ ही, विभाजन ने अंग्रेज़ों को ही लाभ पहँचाया था जिन्होंने पहले तो गरम दल को दमन करके अलग कर दिया। और फिर नरम दल की भी उपेक्षा ऐसे संशोधन लाकर कर दी जो अपेक्षाओं से बहुत ही कम थे। 1908 के बाद से राजनैतिक गतिविधियों के पूर्ण अभाव से नरम दलीय पर मिसेज़ ऐनी बिसेंट का भी काफी दबाव था क्योंकि वे हिन्दुस्तान में भी आयरिश होम रूल लीग की तरह। का आंदोलन चलाना चाहती थीं और वह उग्रवादियों के वापस लिए जाने पर जोर दे रही थीं। एनी बिसेंट जिनकी उम्र 1914 में 66 वर्ष की थी, 1893 में इंग्लैंड से थियोसौफिकल सोसाइटी काम करने हिन्दुस्तान आई थीं। वह पहले मुक्त विचारधारा, क्रांतिकारी विचारधारा तथा रेबियनवाद की समर्थक रह चुकी थीं। उन्होंने मद्रास के निकट अदयार में अपना मख्य कार्यालय बनाया था और उन शिक्षित भारतीयों में से बहत को थियोसोफिकल सोसायटी का। सदस्य बना लिया था जिनके समुदायों में किसी प्रकार का सांस्कृतिक पनउत्थान नहीं हुआ। था। इसी को आधार बना कर वह राजनैतिक आंदोलन आरंभ करना चाहती थीं।।

  दो लीग
दिसम्बर 1914 के कांग्रेस के अधिवेशन में उग्रवादियों को पनः प्रवेश नहीं मिल पाया लेकिन 1015 में लगातार प्रयत्नों के कारण, जिन्हें एनी बिसेंट और तिलक ने समाचार पत्रों तथा स्थानीय एसोसियेशनों के द्वारा शुरू किया था, दिसंबर 1915 में उन्हें पुनः प्रवेश मिल गया। फिरोजशाह की मृत्यु के बाद उनके विरोध में काफी कमी आई थी क्योंकि वे उनके विरोधियों में सबसे प्रमुख थे। कांग्रेस जिसमें अभी भी नरम दलीय सत्ता में थे, स्थानीय स्तर की कांग्रेस समितियों को दबारा शुरू करने व सितम्बर 1916 तक लोगों को शिक्षित करने के कार्यक्रम को शरू नहीं कर पाई। इसीलिए तिलक और एनी बिसेंट ने 1916 में अपने-अपने । संगठन-होम रूल लीग-शुरू कर दिये। दोनों लीगों ने अपने-अपने प्रभाव क्षेत्रों को साफ-साफ सीमित कर लिया। तिलक की लीग को महाराष्ट्र, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, और बरार में काम करना था और एनी बिसेंट वाली लीग को शेष भारत में।

तिलक का होम रूल लीग . तिलक की होम रूल लीग को जिसे अप्रैल 1916 में बेलगाम में हुई बंबई की क्षेत्रीय कांफ्रेंस में शुरू किया गया था। इसे छह ब्रांचों में संगठित किया गया था जिनमें से एक-एक मध्य महाराष्ट्र, बंबई शहर, कर्नाटक तथा मध्य प्रदेश में थी और दो बरार में थीं। इसने मराठी में 6 और अंग्रेज़ी में 2 पैम्फलैट जारी किये जिनकी 47,000 प्रतियाँ बिकीं। पैम्फलैट कन्नड़ और गुजराती में भी निकाले गये। इसके अतिरिक्त सबसे प्रमुख भूमिका अदा की तिलक द्वारा । महाराष्ट्र के दौरे ने जिसमें उन्होंने भाषण दिये और होम रूल की माँग के बारे में बताया। "हिन्दुस्तान उस बेटे की तरह था जो अब व्यस्क हो गया था", उन्होंने कहा, "अब उसे । उसके ट्रस्टी या पिता से वह सब मिलना चाहिए जो उसका हक था।” उनके उस समय के भाषणों में धार्मिकता की अपील बिल्कुल नहीं थी। उन्होंने साफ़-साफ़ कहा :


"परायापन का संबंध धर्म, व्यापार तथा व्यवसाय से जुड़ा नहीं है; यह तो रुचि का प्रश्न है। जो भी ऐसा कोई काम करता है जो इस देश के हित में है, चाहे वह मस्लिा हो या अंग्रेज़, वह विदेशी नहीं है।"

और न ही उनके विचारों से कोई संकचित क्षेत्रीय भाषाई प्रभुत्व या जाति-पांति का पक्षपात झलकता है। वे सभी भाषाओं व संस्कतियों की प्रगति के पक्ष में थे और चाहते थे कि शिक्षा भारतीय भाषाओं में दी जाये। वे छआछत के पूरी तरह विरुद्ध थे. उन्होंने कहा अगर भगवान भी छुआछूत को मानता है तो उसे भगवान ही नहीं मानूँगा"। उन्होंने ब्राह्मणों से कहा कि वे गैर-ब्राह्मणों की मांगों का विरोध न करें और साथ ही गैर-ब्राह्मणों से अनरोध। किया कि वे नौकरियों की कमी जैसी समस्याओं को ब्राह्मण-गैर-ब्राह्मण के दृष्टिकोण से न। देखें क्योंकि इसका असली कारण ब्राह्मणों में शिक्षा का अधिक प्रसार था। जैसे ही तिलक का आंदोलन जनता में फैलने लगा, सरकार ने यह कह कर उन पर चोट की कि वह । 60,000 रुपये "सरक्षा-राशि" के रूप में जमा करायें अन्यथा उन पर एक साल के लिए "सद्व्यवहार" की रोक लगा दी जायेगी। तिलक निचली अदालत में तो केस हार गये लेकिन नवम्बर 1916 में उच्च न्यायालय में उन्हें बरी कर दिया। सरकार द्वारा उनका मँह बन्द करने के असफल प्रयत्न से आंदोलन को बल मिला जिसके फलस्वरूप तिलक ने घोषणा कर दी कि होम रूल को अब वैधानिक मान्यता मिल गई थी। अप्रैल 1917 तक लीग के सदस्यों की संख्या 14,000 हो गई थी।

एनी बेसेंट की होम रूल लीग
इस बीच एनी बिसेंट की लीग भी काफी सक्रिय थी। सितम्बर 1916 में लीग के औपचारिक उद्घाटन से पहले ही प्रचार फंड ने 26 अंग्रेज़ी पैम्फलैट्स की 300,000 प्रतियाँ बेच डाली थीं जिनमें हिन्दुस्तान में चल रहे शासन के स्वरूप तथा सैल्फ-गवर्नमेंट (स्वशासन) की माँग की व्याख्या की गई थी। भारतीय भाषाओं में पैम्फलेट निकाले गये, स्थानीय शाखाओं ने भाषणों तथा चर्चा-सभाओं का आयोजन किया तथा पुस्तकालयों की स्थापना की गई। अडयार के मख्यालय में एनी बिसेंट तथा उनके सहयोगियों ने जिनमें अरूंडेल.सी.पी. रामस्वामी अय्यर तथा बी.पी. वाडिया शामिल थे, न्यू इंडिया और कॉमनवील नामक पत्र निकाले। न्य इंडिया में अरूंडेल का "होम रूल" कॉलम खबरों तथा निर्देश का माध्यम था। थियोसोफिकल । सोसायटी के वर्तमान सदस्यों के अलावा, इलाहाबाद से जवाहरलाल नेहरू, कलकत्ता से बी. चक्रवर्ती तथा जे. बनर्जी समेत बहुत से नये सदस्यों ने लीग में शामिल होने का फैसला किया।

होम रूल लीग बहुत से उदारवादी कांग्रेसियों की सहायता प्राप्त करने में भी सफल हो सकी क्योंकि वे कांग्रेस की गतिविधियों से असंतष्ट थे। गोखले के सर्वेन्टस ऑफ इंडिया सोसायटी के सदस्यों ने दौरे करके भाषण दिये, पैम्फलेट छापे तथा होम रूल की माँग का समर्थन किया: उत्तर प्रदेश में उदारवादी कांग्रेसियों ने छोटे शहरों तथा गाँवों के दौरों में होम लीग वालों का साथ दिया। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं थी क्योंकि होम लीग के समर्थक उदारवादियों ही के कार्यक्रम को जोर-शोर से आगे बढ़ा रहे थे।

दिसम्बर 1916 में लखनऊ में हए कांग्रेस के वार्षिक अधिवेशन में भी होम रूल के समर्थकों को अपनी शक्ति दिखाने का अवसर मिला और वे इसमें बड़ी संख्या में शामिल हए। तिलक व एनी बिसेंट ने कांग्रेस व मस्लिम लीग में संधि कराने में महत्वपर्ण भमिका निभाई जिस पर इसी अधिवेशन में हस्ताक्षर किये गये। तिलक ने इस आलोचना का कि हिन्द मसलमानों के। प्रति बहत अधिक सहृदयता दिखा रहे थे, उत्तर इस प्रकार दिया :

"मझे विश्वास है कि मैं समचे भारत का सामूहिक रूप से प्रतिनिधित्व कर रहा हूँ जब मैं यह कहता हूँ कि अगर स्वशासन (Self Government) सिर्फ मसलमान समुदाय को दिया जाता है तो हम बिल्कुल भी आपत्ति नहीं करेंगे यदि यह अधिकार हिन्दुस्तान के किसी एक समुदाय को दिया जाता है तो भी हम कोई आपत्ति नहीं करेंगे।"

"जब आपको एक तीसरे दल के विरुद्ध लड़ना होता है तो यह अत्यन्त महत्वपर्ण है कि हम इस मंच पर इकट्ठे खड़े हों, जाति, धर्म तथा राजनैतिक विचारों की विविधता होते हुये भी एक हों।" हालाँकि इसमें कोई संदेह नहीं कि कांग्रेस-लीग संधि में मसलमानों के लिए अलग चनाव-क्षेत्र का स्वीकार किया जाना बहुत ही विवादास्पद था लेकिन उसकी आलोचना बदसंख्यक वर्ग द्वारा सहृदयता न दिखाने के लिए कतई नहीं कि जा सकती थी।

अधिवेशन की समाप्ति पर होम रूल लीगों की संयक्त सभा हई जिसमें 1000 से अधिक पतिनिधियों ने भाग लिया। इस सभा को तिलक और बिसेंट दोनों ने संबोधित किया। वापसी पर दोनों नेताओं ने उत्तर, मध्य तथा पूर्वी भारत का दौरा किया।

सरकार द्वारा एक बार फिर दमन की नीति अपनाने से आंदोलन को और बल मिला। जन । 1917 में बिसेंट, वी.पी. वाडिया तथा अरूंडेल को हिरासत में ले लिया गया। परिणामस्वरूप जो लोग पहले अलग थे, वे भी आंदोलन में शामिल हो गये और विरोध प्रकट करने लगे। जिन्ना, रेन्द्रनाथ बनर्जी तथा मदन मोहन मालवीय इनमें प्रमुख थे। ए.आई.सी.सी. की । जलाई 1917 की मीटिंग में तिलक ने निष्क्रिय विरोध का सझाव दिया तथा गांधी के उस सझाव को स्वीकार किया गया जिसमें कहा गया था कि एक हजार ऐसे व्यक्तियों के हस्ताक्षर इकटठे किये जाएँ जो हिरासत के सरकारी निर्देश का विरोध करके बिसेंट के हिरासत स्थल पर जाएँ। गाँवों के दौरे व सभाएँ आयोजित की गईं तथा आंदोलन में एक नई शक्ति दिखाई दी।

  अंग्रेज़ी रवैये में परिवर्तन
इस आंदोलन की बढ़ती हई शक्ति को देख कर ब्रिटेन में सरकार ने दबाव कम करने का फैसला किया। इस बदलती हुई नीति का संकेत भारत के लिए सैक्रेट्री ऑफ स्टेट, मौंटेग्य द्वारा हाउस ऑफ कॉमन्स में इस घोषणा से मिला "सम्राट की सरकार की पॉलिसी है कि ब्रिटिश साम्राज्य के अखंड भाग के रूप में हिन्दस्तान में ज़िम्मेदार सरकार की स्थापना की प्रगति के प्रयास के लिये प्रशासन की हर शाखा के साथ हिन्दुस्तानियों को सम्बद्ध किया जाना चाहिए ताकि धीरे-धीरे स्वशासन संस्थाओं का विकास हो सके।" यह घोषणा 1909 में करते समय मोर्ले (वायसराय) ने कहा था कि स्वशासन को बढ़ावा गवर्नमेंट या होम-रूल की माँग को देशद्रोह नहीं माना जा सकता था और यह एक महत्वपूर्ण उपलब्धि थी। लेकिन इसका अर्थ यह भी नहीं था कि ब्रिटेन भारत को स्वशासन प्रदान करने वाला था। इस वक्तव्य में कहा गया था कि इन संशोधनों के स्वरूप तथा समय का फैसला अकेले ब्रिटिश सरकार ही करेगी। इससे अंग्रेज़ों को भारतीयों के हाथ शासन सौंपने की प्रक्रिया को लगातार स्थगित करते रहने का काफी अवसर मिल गया। इस नई नीति का तरंत लाभ यह हआ कि सितंबर 1917 में एनी बिसेंट को छोड़ दिया गया। तिलक के सुझाव पर कांग्रेस के 1917 के वार्षिक अधिवेशन में बिसेंट को अध्यक्ष चन लिया गया। इस समय उनकी प्रतिष्ठा चरम-सीमा पर थी तथा आंदोलन भी प्रगति के लिए एकदम तैयार था।
  होम रूल लीगों का पतन लेकिन 1918 में होम रूल लीग आंदोलन धीरे-धीरे ढीला पड़ गया। इसका एक कारण उदारवादियों द्वारा अपना समर्थन वापस ले लेना था जिन्हें एक बार फिर संशोधन की आशा दिखाई पड़ने लगी थी और जो होम रूल लीग के सदस्यों द्वारा नागरिक अवज्ञा की बढ़ती हई बातचीत से संशंकित थे। जुलाई 1918 में सुधार योजना के प्रकाशन से राष्ट्रवादियों में और भी विभाजन हो गया : कुछ उसे ठकरा देना चाहते थे जबकि अन्य उन्हें कार्यान्वित किये जाने का अवसर दिये जाने के हक में थे। संशोधन तथा निष्क्रिय विरोध के दोनों ही प्रश्नों पर स्वयं एनी बिसेंट के विचारों में विरोधाभास था। कल मिलाकर तिलक के विचारों में एकरूपता थी। कि ये संशोधन ब्रिटेन द्वारा दिये जाने और हिन्दुस्तान द्वारा स्वीकार किये जाने के लायक नहीं है, लेकिन एनी बिसेंट के ढलमल विचारों के कारण वह कुछ अधिक कर सकने की स्थिति में हीं थे। 1918 के अंत में उन्होंने इंडियन अनरेस्ट (Indian Unrest) के लेखक वेलेंटाइन । रौल (Valentine Chirol) के विरुद्ध एक मान-हानि का मुकदमा दायर किया और उसके ये इंग्लैंड जाने का फैसला किया जिसके कारण कई महत्वपूर्ण महीनों तक वे कार्यक्षेत्र से पस्थित रहे। आंदोलन लगभग नेतृत्वहीन हो गया। 

होम रूल आंदोलन की सबसे बड़ी उपलब्धि राजनैतिक समझ से युक्त राष्ट्रवादी कार्यकताआ। का एक ऐसा दल तैयार करना था जिन्होंने आने वाले जन-आंदोलनों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने गाँवों तथा शहरों में जो सम्पर्क स्थापित किये थे वे आने वाले वर्षों में अमूल्य साबित हए। होम रूल के विचार के प्रसार से राष्ट्रीय भावनाओं को बल मिला।

यह सच है कि होम रूल आंदोलन के नेता स्वयं आगे का रास्ता दिखाने में असमर्थ रहे और इस चेतना को जन-आंदोलन में बदलने में असफल रहे। लेकिन उन्होंने अगले आंदोलन क लिए एक मंच तैयार करने की भूमिका तैयार की-एक ऐसा मंच जिसे महात्मा गांधी के व्यक्तित्व ने एक विशिष्ट स्वरूप प्रदान किया।

भारतीय स्वतंत्रता

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